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नेपाल एवं स्विट्जरलैंड – दो अलग रेलगाडिय़ाँ, दो अलग पिंजरे

इन दो देशों के भौतिक और मानव संसाधन लक्षण लगभग समान हैं तो फिर उनके विकास के स्तरों में इतना भारी अंतर होने के क्या कारण हो सकते हैं?

मेरा सुझाव है कि “बंदी गृह” और “सुखद गृह” की तुलना करने के लिए हम स्विट्जरलैंड और नेपाल की तुलना करें। नेपाल और स्विट्जरलैंड की तुलना से इतिहास का 500-वर्षीय सबक साफ हो जाता है। साथ ही मनु संस्कृतियों और बलिराजा संस्कृतियों के बारे में फुले के विचारों का और गहराई से मूल्याँकन किया जा सकता है।

मुझे जानकारी नहीं कि यह केस स्टडी पहले भी की गई है या नहीं। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मुझे यह बहुत दिलचस्प और सृजनात्मक प्रश्नों से भरपूर लगती है।

स्विट्जरलैंड और नेपाल दोनों, स्थल रुद्ध, पवर्तीय देश हैं, एक यूरोप में है और दूसरा एशिया में भूगोल, अर्थव्यवस्था, लोगों और धर्म (विश्वदृष्टियों) के हिसाब से चौंकाने वाली समानताएँ हैं।

देखा जाए तो स्विट्जरलैंड के मुकाबले नेपाल पर कुदरत की इनायत थोड़ी अधिक हुई है। मिसाल के तौर पर, अनुपात के हिसाब से नेपाल के पास अधिक पानी है, प्रति वर्ग किलोमीटर पोषित किए जाने को कम लोग हैं (5,300 — 5,600 प्रति वर्ग किलोमीटर), और स्विट्जरलैंड से दुगुनी कृषि योग्य जमीन है।

साल 2006 तक, नेपाल आधिकारिक तौर पर दुनिया का एकमात्र हिंदू राज्य था। स्विट्जरलैंड सेकुलर प्रोटैस्टेंट यहूदी-ईसाई विश्वदृष्टि राष्ट्र है। नेपाल की विश्वदृष्टि अनुपात इस प्रकार हैं : 86 प्रतिशत हिंदू, 8 प्रतिशत बौद्ध, 4 प्रतिशत मुसलमान और दो प्रतिशत अन्य।

लगभग इसकी दर्पण छवि हमें स्विट्जरलैंड में दिखती है : 86 प्रतिशत ईसाई, 9 प्रतिशत कुछ नहीं या सेकुलर और 5 प्रतिशत अन्य। इस तरह विश्वदृष्टियों के प्रतिशत के हिसाब से जनसंख्या की विविधता में अद्भुत समानता नजर आती है।

करीब 2.31 खरब अमेरिकी डॉलर की जीडीपी वाले देश स्विट्जरलैंड का विवरण द वर्ल्ड फैक्टबुक कुछ इस प्रकार देती है : “स्विट्जरलैंड शांत, समृद्ध और स्थिर आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था है। बेरोजगारी कम है, श्रम शक्ति उच्च कुशलता वाली है, और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) किसी भी बड़ी पश्चिमी यूरोपी अर्थव्यवस्था से अधिक है।” जबकि 35.6 अरब जीडीपी वाले नेपाल का ब्यौरा वह इस प्रकार देती है : नेपाल दुनिया के सबसे गरीब और कम विकसित देशों में से एक है जिसकी 40 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।”

दक्षिण एशिया में व्याप्त जीववादी-ओझावादी विश्वदृष्टि के प्रगति रोधक प्रभाव पर अच्छा-खासा शोध किया जा चुका है। इन पुस्तकों पर गौर करें : काठमांडू की त्रिभुवन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री डॉन डोर बहादुर बिष्ट की फेटलिज्म एंड डिवेलेपमंट : नेपाल्ज स्ट्रगल फॉर मॉडर्नाइजेशन; विशेषज्ञ जे. हिचकॉक तथा आर. जोन्स की स्पिरिट पोजेशन इन द नेपाल हिमालयाज; ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी डी.एन. गॅल्नर की मंक, हाउसहोल्डर, एंड तांत्रिक प्रीस्ट : नेवार बुद्धिज्म एंड इट्स हाइरारकी ऑफ रिचुअल; तथा लंडन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस मानवविज्ञानी सी.जे. फुलर की द कैमफर फ्लेम : पॉपुलर हिंदुइज्म एंड सोसाइटी इन इंडिया

इन दो देशों के भौतिक और मानव संसाधन लक्षण लगभग समान हैं तो फिर उनके विकास के स्तरों में इतना भारी अंतर होने के क्या कारण हो सकते हैं? कई लोग यह कहेंगे कि इन देशों में विकास के स्तरों में अंतर होने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है इन दो देशों की विषम विश्वदृष्टियाँ जो एक को प्रगति उन्मुख (स्विट्जरलैंड) बनाती हैं और दूसरी को प्रगति रोधक (नेपाल)।

हारवर्ड विश्वविद्यालय के इतिहासकार स्टीवन ओजमंट ने लिखा है कि पिछले 500 सालों में स्विट्जरलैंड और उत्तरी यूरोप को यहूदी-ईसाई विश्वदृष्टि ने आकार दिया है। यह ऐसी विश्वदृष्टि है जो खोखले कर्मकांडों का त्याग करती है और व्यक्तिगत धार्मिक दृढ़विश्वास, मेहनत और सामाजिक सुधार की पक्षधर है। “दुनिया के पहले प्रोटैसटेंट धर्मावलंबियों ने सभी देशों के सब लोगों को” — फुले इन प्रोटैस्टेंट धर्मावलंबियों को “पश्चिम के बलिराजा के अनुयायी” कहते हैं — “रुहानी आजादी और समानता की ऐसी धरोहर सौंपी है जिसके नतीजा आज भी दुनिया में सामने आ रहे हैं।”

बिष्ट ने ब्राह्मणवादी हिंदू विश्वदृष्टि का विश्लेषण किया। यह वह विश्वदृष्टि थी जो पिछले 500 सालों के अंतराल में, जिसकी बात ओजमंट करते हैं, नेपाल और दक्षिण एशिया में मूल्यों का निर्माण कर रही थी।

जब बिष्ट इस ब्राह्मण बौद्धिक ढाँचे की रूपरेखा बनाते हैं तो उसमें कई विषमताएँ उभर कर आती हैं :

  • नियतिवाद में पूरी आस्था
  • आत्माओं का तुष्टिकरण
  • श्रेणीबद्ध तथा अपरिवर्तशील जाति व्यवस्था, जिसमें जाति निर्धारित कार्य ही सौंपे जाते हैं
  • सामाजिक बदलाव के अजेंडा की अवैधता।

जो लोग दक्षिण एशिया में जीवन की परिस्थितियों से वाकिफ हैं, उनके लिए स्विट्जरलैंड और नेपाल की केस स्टडी पेयरेफीत के “रेल और रेलवे स्टेशन” किस्से की दुविधा पर तेज प्रकाश डालती है। फुले उन दुर्लभ भारतीय बुद्धिजीवियों में से एक थे जिन्होंने बहुत ही स्पष्टता से और दूसरों के मुकाबले बहुत पहले ही इतिहास के 500 वर्षीय सबक को समझ लिया था : अगर संस्कृतियाँ रास्ते बदलने को तैयार हैं, सांस्कृतिक बदलाव निश्चित तौर पर संभव है।

पिछले 500 सालों में किसी भी अन्य घटना ने स्विट्जरलैंड पर इतना असर नहीं डाला जितना रेफरमेशन या धर्मसुधार आंदोलन के इंजीलवादी विश्वदृष्टि रूपांतरण ने डाला है। और फिर भी, ओजमंट के अनुसार, “पश्चिमी इतिहास में प्रोटैस्टेंट धर्मसुधार जैसी दूसरी ऐसी महान घटना नहीं है जिसे इतिहासकारों और सामान्य जनता ने इतना नजरअंदाज किया हो”। और इसलिए उनका यह उत्तेजक प्रश्न : “ऐसा क्यों है कि हमें बाकी सब क्रांतियों के साथ, जिन्होंने हमारी दुनिया को आकार दिया, तो सहज हैं (सेकुलर फ्रैंच या साम्यवादी रूसी क्रांति) लेकिन महान धार्मिक क्रांतियों के साथ नहीं?”

ओजमंट उत्तरी यूरोप द्वारा “पटरी बदलने” के धार्मिक स्रोतों और सामाजिक नतीजों का सार देते हैं। वे रेलगाडिय़ाँ जो अगल पटरी पर चलीं, और वे पक्षी जो पिंजरे से छूट कर निकलते रहे, उन्होंने लगातार

  • खोखले कर्मकांडों का त्याग किया
  • व्यक्तिगत धार्मिक दृढ़विश्वास के पक्षधर रहे
  • मेहनत से सहमति जताई
  • और सामाजिक सुधार को पोषित किया

और जो बात ओजमंट ने 16वीं सदी के यूरोप के बारे कही, फुले उसे 19वीं सदी के भारत के बारे में जानते थे : “अगर आपको ऐसे लोग मिलते हैं जिन्हें लगता है कि उनके दिलों और चूल्हों को लूटा गया है, विवेक के मामलों में उनसे छल किया गया है और भौतिक रूप से भी उनका फायदा उठाया गया है, तो आपको ऐसे लोग मिल गए हैं जो सुधार और क्रांति के लिए तैयार हैं।”

महात्मा जोतिराव फुले का बलिराजा प्रस्ताव

इस प्रकार महात्मा जोतिराव फुले का बलिराजा प्रस्ताव बदलाव का एक क्रांतिकारी आह्वान था। फुले का आह्वान था कि भारत के अगुवे अपनी पटरियाँ बदलें, लोग अलग गाड़ी पर चढ़ें, पक्षी आजादी से उड़ें।

लेकिन फुले को यह भ्रम नहीं था कि यह यात्रा आसान होगी। फिर भी, वह अपने निष्कर्ष से टलने वाले नहीं थे। फुले जानते थे कि अगर भारत के सांस्कृतिक रूपांतरण को गहराई तक जाना है तो, भारत को पटरियाँ बदलनी होंगी : उसे एक अलग सांस्कृतिक मेन्टॉर को अपनाना होगा।

दरअसल, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी एल्विन हैच के 20वीं सदी के निष्कर्षों के लिए  फुले की सोच 19वीं सदी की केस स्टडी पेश करते हैं।

हैच बताते हैं कि हर जगह लोग एक जैसी नीतिसंगत राय रखते हैं जिस पर आमतौर पर एकराय बनी होती है। वह कहते हैं कि सांस्कृतिक सीमाओं के आर-पार “आचरण का नैतिक मूल्याँकन सर्वव्यापक” है। चार बिंदुओं पर आम राय बनती है :

  1. कुछ समाज “असफल” होते हैं। कुछ समाज गलतियों, चोटों और अन्याय के चक्र में फँसे होते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे मुश्किल से ही बदलते हैं।
  2. मानवीय सिद्धांतों का समूह होता जिसे आमतौर पर सहमति प्राप्त होती, मानवीय आचरण के लिए “मानवीय मापदंड”। अधिकांश लोग, ईमानदारी, गरिमा और न्याय पर सहमत होते हैं।
  3. मानवता का एक “बड़ा हिस्सा” मौलिक नैतिक मापदंडों पर सहमत होता है।
  4. और अंतत:, एक सवाल है “सुधार” का — अगर कोई संस्कृति अपने लोगों को सम्माननीय जीवन देने में कोताही करती है, तो क्या किसी दूसरी संस्कृति में ऐसी परिकल्पनाएँ और आचरण हैं जो उस समाज के प्रस्तावों और समाधानों में “सुधार” ला सकती हैं?

फुले ने साफतौर पर देखा कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और रुहानी बदलाव वाकई मुमकिन हैं। लेकिन उनका यह निष्कर्ष भी स्पष्ट था कि अगर भारत मनु के अधीन ही बना रहेगा तो रुहानी, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूपांतरण उसी रूप में संभव नहीं है। लेकिन फुले को यकीन था कि बलिराजा के द्वारा संपूर्ण जीवन की बेहतरी के लिए बदलाव निश्चित रूप से संभव है — गंभीर, सतत और व्यवस्थात्मक बदलाव।

संक्षेप में, भारत को अपने आप पर छोडऩे की आवश्यकता नहीं है। भारत को अपने आप से उठाने की आवश्यकता है।

फुले के विचार में, भारत को एक नए सांस्कृतिक मेन्टॉर की जरूरत है। जिसके परिणामस्वरूप फुले ने सुझाया कि मनु को त्याग कर बलिराजा का अनुयायी बना जाए। उत्तरी यूरोप और उत्तरी अमेरिका ने ऐसा किया था। भारत भी कर सकता था।

दूसरे राष्ट्रों द्वारा इतिहास में की गई प्रगति और उस प्रगति के बने रहने के बारे में किए गए फुले के अध्ययन ने उनको इस बात का विश्वास दिला दिया कि उनके अपने देश के लिए भी इसी तरह का अनुभव संभव है। यही फुले के बलिराजा प्रस्ताव के केंद्र में था।

स्विट्जरलैंड और नेपाल 500 वर्षीय केस स्टडी बन सकते हैं। एक रेलगाड़ी स्टेशन से निकली। दूसरी स्टेशन पर ही खड़ी रही। एक पिंजरे का दरवाजा खुला और पंछी आजाद उड़ गए। दूसरे पिंजरा कस पर बंद रहा, और पंछी अब भी कराह रहे हैं।

इसके बारे में और बात अगली बार।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी 2012 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

टॉम वुल्फ

डॉ. टॉम वुल्फ यूनिवर्सिटी इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, के निदेशक हैं। उन्होंने महात्मा जोतिराव और सावित्रीबाई फुले पर कई लेख और पुस्तकें प्रकाशित की हैं

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