h n

अब्राहम लिंकन और जोतीराव फुले : भारतीय संबंध

अमेरिका और विश्व के लिए लिंकन की धरोहर, जॉर्ज वॉशिंगटन के बराबर की है। वाशिंगटन दूसरे अमेरिकी थे जिनका प्रशंसक महात्मा फुले थे। अगर वॉशिंगटन की धरोहर उत्पीडऩ के खिलाफ आजादी की प्रेरणा की है तो लिंकन की धरोहर गुलामी से मुक्ति के सम्मान की है

अब्राहम लिंकन ((12 फरवरी 1809 – 15 अप्रैल 1865)

अब्राहम लिंकन (1809-1865) और जोतीराव फुले (1827-1890) समकालीन थे, और दोनों गुलामी के विध्वंस के प्रति समर्पित थे। लिंकन अमेरिका में, फुले भारत में΄।

अब्राहम लिंकन ने ”अश्वेत गुलामाें” को मुक्त करवाने की शपथ ली थी : ‘‘मैंने किसी से कुछ नहीं΄ कहा, लेकिन अपने आप से और (थोड़ी झिझक के साथ) अपने सृष्टिकर्ता  से एक प्रतिज्ञा की।’‘ फुले ने शूद्रों΄ को आजाद करने की शपथ ली : ‘‘मै΄ इस व्यवस्था पर गहरी चोट करूंगा।”

 

फुले स्वयं को और भारत को सदैव ही लिंकन से जोड़ते थे। सन् 1873 मे΄, अपनी विवादास्पद पुस्तक ‘गुलामगिरी’ का अंग्रेजी समर्पण लिखते हुए स्नेहपूर्ण इस्पात से इस संबंध का निर्माण किया।

नीग्रो गुलामी के उन्मूलन हेतु
उनके उदात, नि:स्वार्थ एवं आत्मबलिदानी समर्पण के लिए
संयुक्त  राज्य के नेक लोगों को समर्पित।
और इस उत्सुक इच्छा के साथ
कि मेरे देशवासी ब्राह्मण गुलामी के जाल से
अपने शूद्र भाइयों को आजाद करने हेतु
उनके श्रेष्ठ उदाहरण को मार्गदर्शक माने΄

लिंकन संयुक्त राज्य अमेरिका के 16वें΄ राष्ट्रपति थे। वह लिंकन ही थे जिन्होंने ”नीग्रो गुलामी” को समाप्त करने में ”संयुक्त राज्य के नेक लोगों΄” का नेतृत्व किया था। गुलाम प्रथा का समर्थन करने वाले दक्षिणी राज्यों΄ के संघ के विरुद्ध लिंकन ने रक्तरंजित गृहयुद्ध मेें उतरी राज्यो΄ की अगुवाई की। उनका कद लंबा था, लेकिन विचार गहरे थे। उनके शब्द नपे-तुले थे और इच्छाशक्ति मजबूत। उनकी कार्यशैली शांतमय थी और जीवन छोटा।

लिंकन की धरोहर

अमेरिका और विश्व के लिए लिंकन की धरोहर, जॉर्ज वाशिंगटन के बराबर की है। वाशिंगटन दूसरे अमेरिकी थे जिनके प्रशंसक महात्मा फुले थे। अगर वाशिंगटन की धरोहर उत्पीडऩ के खिलाफ आजादी की प्रेरणा की है तो लिंकन की धरोहर गुलामी से मुक्ति के सम्मान की है।

लिंकन की औपचारिक शिक्षा फुले से कम ही थी। लेकिन फुले के ही समान लिंकन अपनी ग्रामीण जड़ों को नहीं भूले, चाहे वह शहर में΄ रहे और वहीं΄ से लोगों का नेतृत्व किया?

फुले जानते थे कि लिंकन केवल अमेरिका के ही नहीं बल्कि सारे विश्व के हैं। मैं फुले को लिंकन का भारतीय जुड़वा भाई मानता हूँ। दिलचस्प बात यह है कि दोनों को यह आभास था कि गुलामो΄ की आजादी का उनका कार्य – चाहे वे अश्वेत गुलाम हों या ब्राह्मणो΄ के जातिगत गुलाम – ईश्वरीय प्रेरणा से निर्देशित था, ”सबके उत्पत्तिकर्ता” की ओर से निर्देशित।

”ईश्वराधीन”

नवंबर 1863 मे΄ लिंकन के गेटिसबर्ग रणभूमि संबोधन मे΄ यह पद ”ईश्वराधीन” बड़े ही स्वाभाविक रूप से आया। अब यह ध्वज को सलाम का भाग बन चुका है। लिंकन ने विश्व को कभी यह भूलने नहीं दिया कि गृहयुद्ध मे΄ एक दूसरा बड़ा मुद्दा शामिल था। वह केवल ग्रामीण दक्षिण और औद्योगिक उत्तर का मामला नही΄ था, या मात्र अर्थव्यवस्था या राजनीति का। उनका ”गेटिसबर्ग संबोधन” सैन्य कब्रिस्तान का संक्षिप्त समर्पण भाषण था। लेकिन हम उनके शब्दों΄ को भूल नही΄ पाते: ”हम दृढ़ निश्चय करते हैं कि मृतकों की मृत्यु को व्यर्थ नहीं जाने देंगे- कि यह राष्ट्र, ईश्वराधीन, स्वतंत्रता का एक नया जन्म लेगा – और यह कि लोगों की, लोगों के द्वारा, लोगों के लिए सरकार, धरती से कभी नष्ट नहीं होगी।”


लिंकन ने खुलकर और गहराई में जाकर राष्ट्र के ईश्वरीय सत्ता पर निर्भर होने की बात की, और इस प्रकार पहला राष्ट्रीय थैंक्सगिविंग डे (आभार दिवस) स्थापित किया – अवकाश का वह समय जब ईश्वरीय मार्गदर्शन के लिए आभार और निवेदन किया जाए। निश्चित तौर पर आपको स्वयं राष्ट्रपति लिंकन के 1863 की आभार उद्घोषणा ( थैंक्सगिविंग प्रोक्लेमेशन) पढऩे का प्रयास करना चाहिए। अमेरिकी आभार दिवस की जड़ें शुरुआती औपनिवेशक अमेरिका मे΄ हैं। 1621 मे΄ ”प्यूरिटन” प्रोटेस्टे΄ट ईसाई पिलग्रिम खाने की मेज पर अपने परिवार और मूलनिवासी अमेरिकी ”इंडियन” मित्रों के साथ बैठकर ईश्वर को धन्यवाद देने, अपने पड़ोसियों΄ के साथ मेल-मिलाप स्थापित करने और विधवाओं और अनाथों की सहायता के लिए समर्पित हुए। ये प्रोटेस्टेंट ईसाई यूरोप और अमेरिका मे΄ विश्वास के उसी परिवार के सदस्य थे जिसमें भारत के विलियम कैरी, जोतीराव फुले, पंडिता रमाबाई और डॉ. ग्राहम स्टेन्स ने शिक्षा पाई।

”हमारा भरोसा ईश्वर पर है”

यह पद पहले लिंकन प्रशासन में इस्तेमाल हुआ और अब ”हमारा भरोसा ईश्वर पर है” (इन गॉड वी ट्रस्ट) सिक्कों पर अंकित है और अमेरिकी संसद के दोनों सदनों की दीवारों पर नक्श है। लिंकन का ”ईश्वराधीन” और ”हमारा भरोसा ईश्वर पर है” मुझे फुले के ”सत्यमेव जयते” की याद दिलाता है। हर कोई सोचता है यह पद गाँधी का है। गाँधी ने निश्चित तौर पर इसे लोकप्रिय बनाया था। लेकिन कुछ ही लोगों को मालूम है कि ”सत्यमेव जयते” महात्मा फुले से शुरू हुआ।

नैतिक दिक्सूचक और नैतिक विकर्षण

लिंकन के सभी विशिष्ट ‘फैसलों के नीचे एक गहरा आधार होता था : सृष्टिकर्ता का सत्य का दिक्सूचक तथा मानवीय गुलामी के खिलाफ नैतिक विकर्षण (आकर्षण का विपरीत) सकारात्मक शब्दों΄ में, अपने 1885 के एक सार्वजनिक संबोधन में लिंकन ने तेरह मूल उपनिवेशों के नैतिक दिक्सूचक की रूपरेखा दी : ”पुराने इंडिपे΄डस हॉल में अपने प्रतिनिधियों के द्वारा इन समुदायों ने पूरी दुनिया के लोगों से कहा :
‘हम इन सत्यों को स्व-प्रामाणिक मानते हैं कि सभी मनुष्य समान रचे गए हैं, और उन्हे΄ उनके रचयिता ने कुछ न छीने जा सकने वाले अधिकार दिए हैं।’


”भूमंडल की यह उनकी शानदार समझ थी। रचे गए प्राणियों के प्रति रचियता के न्याय की समझ – सभी रचे गए प्राणियों के प्रति, संपूर्ण महान मानव परिवार के प्रति। उनके प्रबुद्ध विश्वास के अनुसार, ईश्वरीय छवि और स्वरूप से चिन्हित कोई भी व्यक्ति जो इस विश्व में भेजा गया उसे कुचलना, उसका अपमान करना और अपने साथियों द्वारा उसका पाशवीकरण करना निषिद्ध है।

”उन्होंने न केवल उस समय जीवित संपूर्ण मानवीय नस्ल को पहचाना बल्कि वे आगे बढ़े और जहाँ तक संभव था आने वाली नस्लों को अपनी पकड़ में लिया। उन्होंने ऐसा प्रकाशस्तंभ खड़ा किया जो उनके बच्चों और उनके बच्चों के बच्चों का मार्गदर्शन करेगा, और कई अनगिनत लोगों का दूसरे युगों मे΄ इस धरती पर वास करेंगे”

नकारात्मक रूप मे΄, लिंकन ने लिखा। ”आप सोचते हैं कि गुलामी सही है और इसका विस्तार किया जाना चाहिए। हम सोचते हैं कि यह गलत है और इसे सीमित किया जाना चाहिए। यह मूल विवाद है – हमारे बीच का मुख्य अंतर।’

आज, लिंकन और फुले दोनों, उस सतत रूप से जारी मनुवादी गुलाम-बलात्कारी संस्कृति के प्रति घृणा से भर जाते जो दिल्ली की बस से शुरू कर सिंगापुर के अस्पताल मे΄ विनाश तक ले जाती है।

बागानों के मालिक सिस्टम मे΄ कुछ बदलाव लाते: महिला गुलामो΄ को सलाह देते कि क्षमायाचना करते हुए चिल्लाएँ, बलात्कार न करवाएँ, धार्मिक मंत्र पढ़े΄। लिंकन और फुले इस सिस्टम की भर्त्सना करते: लड़कियों का पीछा करने वालों से अपनी गंदगी का त्याग करने का आह्वान करें, बलात्कार न करें और सत्य में चलें।

तो आश्चर्य की बात नही΄ कि फुले उनके प्रशंसक थे जो अमेरिका में गुलामी के उन्मूलन का प्रयास कर रहे थे और भारत मे΄ इसी की इच्छा कर रहे थे। लिंकन के शब्द आज भी प्रासंगिक है΄: ”जब भी मैं किसी को गुलामी के पक्ष में बोलता सुनता हूँ तो मुझमें यह तीव्र इच्छा जागती है कि उस व्यक्ति पर उसे व्यक्तिगत तौर पर आजमाया जाए।” और, ”एक ‘अच्छी’ बात के रूप मे΄ गुलामी मे΄ एक विशिष्टता है। यह एकमात्र अच्छी वस्तु है जो व्यक्ति अपने लिए नही΄ चाहता।”

लिंकन और फुले की महानता? लिंकन को सुनें: ‘‘हमें लगता है कि गुलामी एक महान नैतिक दोष है। हमे΄ लगता है कि स्वयं के सम्मान, भविष्य की पीढिय़ों के लिए सरोकार, और हमें बनाने वाले ईश्वर के लिए, जरूरी है कि हम इस दोष को वहाँ रख दे΄ जहाँ हमारे वोट इस तक उचित रीति से पहुँच सकें।’

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

टॉम वुल्फ

डॉ. टॉम वुल्फ यूनिवर्सिटी इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, के निदेशक हैं। उन्होंने महात्मा जोतिराव और सावित्रीबाई फुले पर कई लेख और पुस्तकें प्रकाशित की हैं

संबंधित आलेख

क्या है ओबीसी साहित्य?
राजेंद्र प्रसाद सिंह बता रहे हैं कि हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में...
बहुजनों के लिए अवसर और वंचना के स्तर
संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता...
पिछड़ा वर्ग आंदोलन और आरएल चंदापुरी
बिहार में पिछड़ों के आरक्षण के लिए वे 1952 से ही प्रयत्नशील थे। 1977 में उनके उग्र आंदोलन के कारण ही बिहार के तत्कालीन...
कुलीन धर्मनिरपेक्षता से सावधान
ज्ञानसत्ता हासिल किए बिना यदि राजसत्ता आती है तो उसके खतरनाक नतीजे आते हैं। एक दूसरा स्वांग धर्मनिरपेक्षता का है, जिससे दलित-पिछड़ों को सुरक्षित...
दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना
आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते...