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बालीवुड फिल्म : खोखली बनाम सच्ची देशभक्ति

खोखली देशभक्ति, झूठी देशभक्ति और असली देशभक्ति में अंतर होता है। खोखली देशभक्ति में नारों के अलावा कुछ नहीं होता

प्रिय दादू,

आपके पिछले माह के पत्र में आपने खोखली देशभक्ति की चर्चा की थी। इससे आपका क्या आशय है? देशभक्ति भला खोखली कैसे हो सकती है?

सप्रेम
साफा

प्रिय साफा,

तुम ठीक कह रही हो। मैं जब-तब इस तरह के दुरूह शब्दों का प्रयोग कर देता हूं। इसके लिए मैं माफी चाहूंगा। बात यह है कि अपने काम के सिलसिले में मुझे इतना लेखन करना पड़ता है कि मैं बिना सोचे-समझे अपने निजी पत्रव्यवहार में भी ऐसे शब्दों का प्रयोग कर देता हूं, जिनका आशय बहुत स्पष्ट नहीं होता।

बालीवुड के बारे में लिखते हुए मैंने 1930 और 1940 के दशक में बनीं फिल्मों की असली देशभक्ति की चर्चा की थी। उस दौर में हम पूरे देश में एकता के भाव का संचार करने की कोशिश कर रहे थे। हम जातिवाद और धार्मिक व भाषायी विभेदों को भुलाकर देश को एक करना चाहते थे ताकि हम ब्रिटिश शासन से मुक्ति पा सकें। इसे ही मैं असली देशभक्ति कहता हूं। उस समय हम उन नकली मूल्यों के विरुद्ध संघर्षरत थे जो हमारे राष्ट्र की आतंरिक एकता में बाधक थे और जो हमें हमारे औपनिवेशिक शासकों से स्वतंत्र होने के रास्ते में आ रहे थे।
इसके विपरीत, आज हमारे देश पर किसी साम्राज्यवादी ताकत का कब्जा नहीं है और एक अर्थ में हम यह कह सकते हैं कि चीन को छोड़कर, हमारा कोई बाहरी शत्रु भी नहीं है। चीन का मसला भी पेचीदा है, क्योंकि उसके साथ हमारे व्यापारिक रिश्ते भी हैं। पाकिस्तान? वह इतना छोटा और इतना कमजोर है कि किसी मच्छर की तरह थोड़ी-बहुत तकलीफ देने के अलावा वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कहने का मतलब यह है कि बालीवुड के पास लडऩे के लिए अब कोई असली बाहरी शत्रु नहीं है, परंतु हमारे देश के अंदर कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर लंबी लड़ाई लड़े जाने की जरूरत है। ये मुद्दे मुख्यत: खोखले और दकियानूसी मूल्यों से जुड़े हैं। परंतु चंद अपवादों को छोड़कर, बालीवुड इन आंतरिक शत्रुओं के खिलाफ नहीं लड़ रहा है। कई फिल्मों में बालीवुड द्वारा युद्ध का महिमामंडन किया जा रहा है तो कई में ऐसी देशभक्ति का चित्रण हो रहा है, जिसमें कोई सत्व ही नहीं है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी देशभक्ति पर आधारित फिल्मेंं सत्वहीन हैं। चक दे इंडिया हमारे देश में व्याप्त धार्मिक पूर्वाग्रहों और आंतरिक विभेदों का मार्मिक चित्रण करती है और यह बताती है कि किस तरह टीम भावना और कड़ी मेहनत से इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। स्वदेस ने कई अप्रवासी भारतीयों को अपने देश वापस आकर गरीबी, जातिगत भेदभाव, बाल विवाह, अशिक्षा, परिवर्तन का प्रतिरोध व शिक्षा को नकारने जैसी बुराइयों से संघर्ष करने की प्रेरणा दी। परंतु देश के सामने उपस्थित चुनौतियों की सूक्ष्म समझ और इन चुनौतियों से लडऩे के सुनियोजित व संगठित प्रयास के अभाव के चलते यह फिल्म सिर्फ एक काल्पनिक आशावाद की वाहक बनकर रह गई। इस आशा में की कि अप्रवासी भारतीयों के देश में लौटने मात्र से समाज बदल जाएगा। यह भी तो हो सकता है कि लौटने वाले अप्रवासी हमारे देश की समस्याओं की विशालता और उनकी मजबूत जड़ों से हार मान लें या सफल होने की स्थिति में उनका उसी तरह सफाया कर दिया जाए जैसा कि गांधीजी का किया गया था।

लक्ष्य सेना को एक ऐसी संस्था के रूप में प्रस्तुत करती है जो अनुशासनहीन लुच्चों को आत्मानुशासित आदर्श नागरिक बना सकती है (हो सकता है यह सही हो। परंतु प्रश्न यह है कि क्या देशभक्ति का एकमात्र पैमाना पाकिस्तान का विरोध है?) गदर बहुत अच्छी बन पड़ी है परंतु यह पाकिस्तान से भारत लौटे एक व्यक्ति की अविश्वसनीय कहानी कहती है (मैं सोचता हूं कि यह फिल्म इतनी लोकप्रिय इसलिए हुई, क्योंकि उसने हम लोगों के दिल के उस कोने को स्पर्श किया जो यह मानता है कि विभाजन होना ही नहीं चाहिए था)। परंतु यह फिल्म उस हिन्दू पुनरुत्थानवाद का कोई विश्लेषण नहीं करती, जिसने मुस्लिम पुनरुत्थानवाद को जन्म दिया और जिसके कारण अंतत: देश का विभाजन हुआ। और ना ही यह फिल्म पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर करने का कोई व्यावहारिक और यर्थाथवादी रास्ता सुझाती है। रंग दे वसंती भी खोखली देशभक्ति का एक और उदाहरण है। इस फिल्म में भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए मित्रों का एक समूह गैर कानूनी और अनैतिक तरीके अपनाता है और जब वे मारे जाते हैं तो फिल्म उन्हें शहीद का दर्जा देती है और उनकी तुलना उन शहीदों से की जाती है जिन्होंने हमारे देश की स्वतंत्रता की खातिर अपनी जानें न्यौछावर की थीं। मेरी समझ में यह तुलना बेमानी है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के अपने नारे के बावजूद यह फिल्म हिंसा का महिमामंडन करती है और कानून तोडऩे को प्रोत्साहित करती है । इस फिल्म में सच्ची देशभक्ति तो कहीं है ही नहीं बल्कि यह फिल्म देशभक्ति विरोधी है।

तुम शायद समझ गई होगी कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। खोखली देशभक्ति, झूठी देशभक्ति और असली देशभक्ति में अंतर होता है।
खोखली देशभक्ति में नारों के अलावा कुछ नहीं होता।

झूठी देशभक्ति कई तरह की होती है। कुछ झूठे देशभक्त केवल पाकिस्तान या मुसलमानों के खिलाफ भावनाएं भड़काने को देशभक्ति मानते हैं। उनकी मूर्खता की हद यह है कि वे भारत को हिन्दू राष्ट्र मानते हैं। ऐसे लोगों को बिना किसी देरी के फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। वे हमारे संविधान के साथ विश्वासघात करते हैं, क्योंकि संविधान में धर्मनिरपेक्षता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और वह धर्मनिरपेक्षता ही है जिसके कारण हमारे विविधतापूर्ण देश का अस्तित्व इतने सालों से कायम है। झूठे देशभक्तों की दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो ऐसा नाटक करते हैं कि वे देश की भलाई के प्रति समर्पित हैं परंतु असल में उनका उद्धेश्य केवल अपनी जेबें भरना होता है। यह दुखद है कि इस श्रेणी में सभी राजनीतिक दलों के अनेक राजनेता, उद्योग जगत की अनेक हस्तियां और कई सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।

झूठे देशभक्तों की पहचान करने का क्या कोई अचूक तरीका है? दूसरे शब्दों में क्या हम सच्ची देशभक्ति की कोई स्पष्ट परिभाषा देे सकते हैं? मैं समझता हूं कि कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति निम्नलिखित परिभाषा को सहर्ष स्वीकार कर लेगा। सच्ची देशभक्ति है अपने व्यक्तिगत समय, धन और ऊर्जा (बौद्धिक, शारीरिक या सामाजिक) का इस्तेमाल कर राष्ट्र निर्माण और हमारे देश को दुनिया में उसका उचित स्थान दिलाने के लिए हरसंभव प्रयास करना और हर उस चीज के खिलाफ कार्य करना जो हमें कमजोर करती है या बांटती है।

वे कौन सी चीजें हैं जो हमें कमजोर करती हैं और बांटती हैं ? पहली, भ्रष्टाचार और स्वार्थपरता, दूसरी, शारीरिक बल का गैर-कानूनी इस्तेमाल और तीसरी धर्म, भाषा या जाति के आधार पर भेदभाव।

मैं जानता हूं कि इससे कई प्रश्न उपजते हैं (उदाहरणार्थ, आरक्षण के बारे में)। परंतु यदि तुम ऊपर दिए गए मुख्य बिंदुओं से सहमत हो तो उनसे संकेतित होने वाले पूरक प्रश्नों पर हम बाद में चर्चा कर सकते हैं।

सप्रेम
दादू


(फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

 

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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