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कबीरपंथ : न माया मरी न मन मरा

कबीर की जरूरत आज भी हमारे समाज को है और इसलिए इतने लम्बे काल से चलते आए कबीरपंथ की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। पता नहीं, कबीर के अपने समय में समाज पर उनका क्या प्रभाव था। इस संबंध में कोई ठोस निष्कर्ष देने वाली जानकारी हमें प्राप्त नहीं है

कबीर छह सौ साल पहले कबीर भारत की धरती पर आकर चले गए, परंतु उनके विचारों का प्रभाव हमारे समाज पर आज भी है। सामंती समाज था हमारा तब। हिन्दू धर्म में परंपरा से चलते आ रहे जातीय भेदों, अंधविश्वासों और बाह्याचारों की जकडऩ ने सामान्यजनों का जीना दुश्वार कर रखा था। हिन्दू हो या मुस्लिम, कबीर के समय में भी पीडि़तजनों के सारे मानवोचित अधिकार शासकों, सामंतों और उनकी थैली के चटटे-बटटों के यहां गिरवी थे और हिन्दू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक तनाव और विद्वेष परवान चढ़ चुका था। सामंती व्यवस्था को ब्राह्मणी धर्म-व्यवस्था की गलबहियां मिली थीं। ऐसे समय-समाज में कोई किसी के स्वप्नों को साकार करने के लिए राह दिखाने आ जाए तो उसकी और बेसब्र ख़ुशी से बदहवास दौड़ लगाने वालों का तांता लगना अस्वाभाविक नहीं। परिणामस्वरूप तब के धार्मिक टंटों-बखेड़ों से मुक्ति दिलाने वालों की कबीरी अंगड़ाई सामने आई। कबीर के अनुयायी कबीरपंथ के बैनर तले उनके विचारों को जहां-तहां समाज में दखल दिलाने के लिए सामने आ गए।

कबीर के समय में भारत में दो धर्म ही बचे थे। उनके पहले क्रांतिकारी बुद्ध और महावीर आकर चले गए थे। उनके नाम पर बने चले आ रहे बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव भी हिन्दुत्वादी शासकों एवं शक्तियों के जुल्म के चलते खत्म हो चला था। हिन्दू धर्म फिर से पूरी तरह रुग्ण होकर अपने आतंककारी शक्ति, स्वरूप और प्रभुता को पा गया था। अनपढ़ कहे वाले अनन्य बुद्धि-बल कौशल के धनी कबीर ऐसे ही कठिन समय में रोशनी की एक दमदार लौ की तरह आ धमकते हैं और बाह्याचारों से जकड़े हिन्दुओं व मुस्लिमों दोनों के लिए मानवतावादी रास्ता अख्तियार करने की राह बनाते हैं। कबीर के यही विचार उनके जाने के बाद कबीरपंथ के मतानुयायी आगे भी फैलाने की कोशिश करते हैं। इस कार्य के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों तबकों के मानवीय और समझदार लोग आगे आते हैं।

कबीर के विचारों पर, कबीरमत पर चलना हिन्दू या मुस्लिम धर्म के बाह्याचारों को सहलाते हुए हुए कतई संभव न था और बाह्याचार को छोड़ दें तो इन दोनों धर्मों में बचता ही क्या है। इसलिए मूल कबीरपंथ बड़ी असुविधा का रास्ता था। इसे धर्म छोड़कर ही अपनाया जा सकता था, पर इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं है कि किसी भी काल में बड़े से बड़े कबीरपंथी ने स्वयं को अपने जन्म का धर्म न मानने वाला बताया हो। मैं समझता हूं कि हिन्दू या मुस्लिम धर्म से साफ दूरी न रखते हुए कबीरपंथी होने का जो चलन रहा है, वही कबीरपंथ के रीढ़विहीन हो जाने का मूल कारण बना।

आप देखेंगे कि कथित उच्चवर्णीय स्वार्थी तत्वों ने भी अपने लाभ-लोभ की पूर्ति होते देख कबीरपंथ का बाना धारण किया और सेंध लगाकर नेतृत्वकारी व ऊंचे आसनों पर जा बैठे। अधिकांश सम्पत्तिशाली और भव्य कबीरमठों के महंथ पद आप दबंग और उच्च मानी जाने वाली जातियों से ही सुशोभित पाएंगे। जबकि उच्च जातियों के आम तबके ने कबीरपंथ को किसी समय में भी नहीं अपनाया। कबीरपंथ की मूल और मुख्य पैठ हिन्दू-मुस्लिम समाज के निचले तबकों के बीच थी। कारण साफ था। हिन्दू-मुस्लिम के उच्च कहे जाने वाले तबके ने ही धार्मिक बाह्याचारों में दमित जातियों को फंसाकर आपस में बांट रखा था और उनके मूल मानवाधिकारों को स्थगित कर रखा था।

आज के वैज्ञानिक-तार्किक समय में भी तो कबीर और उनके मतानुयायियों के प्रयास का कोई स्पष्ट और परिणामी प्रभाव हमारे समाज में नहीं दिखता। जबकि कबीरपंथ का प्रसार भारत में कम नहीं है। ज्यादा जोगी-मठ उजाड़ वाली उक्ति कबीरपंथ के साथ भी चरितार्थ होती है। कबीरपंथी मठों से लगी चल-अचल संपत्ति और जन-स्वीकार्यता के कारण उस पर वर्चस्व का स्वाथी, लोभी और खूनी खेल वैसा ही चलता है, जैसा कि हिन्दू धर्मावलंबी मठों में। साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय, का तोषकारी रास्ता अख्तियार करने वाले कबीर के साथ यह बड़ा धोखा-मजाक और अन्याय है। कबीर का प्रतीक ले कहें तो इन मठों के रवैए भी कमाल के हैं। कबीर का प्रसिद्ध दोहा याद आता है-माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। आशा-तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर।

कहीं-कहीं कबीरपंथियों में कुछ ऐसे कट्टर किस्म के शुद्धतावादी हैं कि लकड़ी पर पानी के छींटे मारकर शुद्ध करने के पश्चात ही चूल्हे में जलाते हैं और कहीं ऐसी पंथगत शिथिलता है कि गले की कंठीमाला के कारण ही वे कबीरपंथी हैं। वरना, सुबह-शाम मूर्ति-पूजन के लिए मंदिर भी जा रहे हैं। वे शुद्ध शाकाहारी होटल तक में खाना नहीं खाएंगे। सोयाबीन की सब्जी में उन्हें मीट (मांसाहार) की गंध नजर आती है। बिन कंठीधारी परिवार के घर का अन्न, जल नहीं ग्रहण करने वाले लोग भी हैं।

सवाल भी बनता है कि गुरु जन्मना होना चाहिए कि कर्मणा। जन्मना व्यवस्था तो जाति-व्यवस्था की तरह हुई, जिससे कबीर ने संघर्ष किया था। ब्राह्मणी-सामंती व्यवस्था में पिता के बाद पुत्र गद्दी का हकदार होता है, चाहे उसमें अपने पिता के समान काम-काज करने के गुण हों या नहीं। कबीर गुरु गद्दी के लिए वंशानुगत-व्यवस्था के पक्षधर नहीं हो सकते। अन्य पंथों, धर्मों की तरह कबीरपंथ में भी इस वंशानुगत परंपरा का उग आना भयावह है।

भारतीय मानसिकता को धार्मिक चमत्कारों ने तर्कशून्य बनाने की भरपूर कोशिश की है और धार्मिक बाह्याचारों के सख्त खिलाफ रहे कबीरपंथ के कुछ सांप्रदायिक ग्रंथों में कबीर एवं कुछ मुख्य कबीरपंथी साधुओं-महंतों के चमत्कारिक कार्यों का काफी उल्लेख है। कुछ कबीरपंथी अगुआ एवं महंतों का मानसिक स्खलन और उत्साह इस कदर बढ़ गया है कि वे गंडा, ताबीज, जड़ी-बूटी बेचने लगे हैं और झाड-फूंक करने लगे हैं। हिन्दू मिथकों को समर्थित करते हुए कोई बात कहने से कबीरपंथ के विवेकशील प्रवक्ताओं और पुराण मानसिकता के खिलाफ लडऩे वाले धर्म प्रचारकों को बचना चाहिए। जबकि आप देखेंगे कि कबीर के विचारों-उपदेशों का बयान करते कबीरपंथी साधु-महात्मा रामचरितमानस और गीता के दोहे, चौपाई आदि का संदर्भ देने लगते हैं।

कबीर की जरूरत आज भी हमारे समाज को है और इसलिए इतने लम्बे काल से चलते आए कबीरपंथ की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। पता नहीं, कबीर के अपने समय में समाज पर उनका क्या प्रभाव था। इस संबंध में कोई ठोस निष्कर्ष देने वाली जानकारी हमें प्राप्त नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि किस मामले में कबीरपंथी हिन्दू अन्य पंथों-धर्मों के अनुयायियों से अलग है। हिन्दू कर्मकांडों के स्थान पर नए कर्मकांड पुराने मंत्रों के बदले नए मंत्र पूजा-पाठ के बदले चौका-आरती। आखिर परिवर्तन क्या हुआ। इनसे पंथ का प्रचार-प्रसार भले ही हुआ हो। कबीर के मूल विचार प्रचारित नहीं हो पाए हैं। कबीरपंथियों को तो कबीर से भी आगे जाना था। कबीर के आधुनिक मिजाज और सर्वकालिक चिंतन की रक्षा करते उन्हें जनसामान्य के बीच ले जाना था। कबीर के मानवतावादी आदर्शों को इस देश के वामपंथी, बौद्ध, जैन, आम्बेडकरवाद जैसे म़त आगे ले जा सकते थे। वे उस चेतना को जनता के बीच फैलाने का काम जारी रख सकते थे, जिसके लिए कबीर जैसे क्रांतिधर्मी और अग्रसोची लोग धर्मवादियों के खिलाफ लड़ते रहे। आज लडऩा कोई नहीं चाहता। मार्क्सवादी तो बिलकुल भी नहीं,न ही कबीरपंथी या बौद्ध या जैन। वैसे कुछ आशा वामपंथियों-आम्बेडकरवादियों से की जा सकती है, पर उनका संगठन भी बहुत असरकारी नहीं है। भारतीय वामपंथियों के विचार भटके हुए हैं। कबीरपंथ की तरह यहां भी संगठन के महत्वपूर्ण स्थलों पर सवर्ण काबिज हैं। यानी कबीर के ही शब्दों में-अंतर तेरे कपट कतरनी, फिर ऊंट के मुंह में जीरा से तो हमारा काम नहीं चल सकता।

जब तक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कबीरपंथ का कोई सार्थक और प्रभावी हस्तक्षेप नहीं होगा तब तक पंथ को औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। कबीर को एक सार्वजनिक गाली बहुत समय से पड़ती आ रही है। विद्रोही कबीर ने अपनी कर्मस्थली और हिन्दुओं की पुण्यस्थली काशी को त्याग अपनी मृत्यु के लिए उस मगहर का चुनाव किया था जिसके बारे में मान्यता यह है कि यहां जिसका अंत होता है वह सीधे नरक में जाता है। संदेश स्पष्ट था। पर उनके अनुयायियों ने हिन्दू और मुस्लिम चश्मे से ही उनका अंतिम संस्कार किया। मगहर में हिन्दू कबीर और मुस्लिम कबीर के मजार अलग-अलग हैं। कभी अखबार में पढ़ा था, बिहार में कुशवाहा कबीरमठ भी हैं।आश्चर्य क्या करना। हतप्रभ क्यों होना।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

मुसाफिर बैठा

मुसाफिर बैठा चर्चित दलित लेखक व आलोचक हैं

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