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भ्रष्टाचार की भेंट चढा मनरेगा

बिहार के जिन 10 जिलों में सर्वेक्षण कार्य किया गया है उन जिलों में किसी भी परिवार को मनरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार बीते छह साल में नहीं मिला है। जबकि पिछले एक साल में इनमें से 53 फीसदी को एक भी दिन काम नहीं मिला। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के इन जिलों में सालाना औसत मात्र 5 दिनों का काम उपलब्ध कराया गया है, जबकि कम से कम 100 दिन काम उपलब्ध कराने का प्रावधान है

केंद्र में सत्तारूढ संयक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती है। मगर इस योजना का क्रियान्वयन उस तरह से नहीं हो पाया है जैसा सोचा गया था। या यूं कहें कि अपनी छोटी-सी यात्रा के दौरान ही इस योजना का दम निकल रहा है। मनरेगा में भ्रष्टाचार का एक नया मामला बिहार में सामने आया है। दिल्ली स्थित गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड फुड सिक्योरिटी द्वारा जनवरी 2012 में किए गए सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है कि बीते छह सालों के दौरान ( (2006-07 से 2011-12) बिहार सरकार ने मनरेगा पर कुल 8189 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, जिसमें से 73 फीसदी राशि राज्य सरकार के अधिकारियों की मिलीभगत से गबन कर ली गई है। यह भारी-भरकम लूट की राशि, कुल 5977 करोड़ रुपये यानी 6000 करोड़ रुपये के आसपास है। गौरतलब है कि सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड फूड सिक्योरिटी (सीईएफएस) के सर्वे के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा में मनरेगा घोटाले की सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं। सीईएफएस ने यह आकलन बिहार के 10 जिले के करीब 100 गांवों के सर्वेक्षण के आधार पर किया है। बिहार के जिन जिलों को मूल्यांकन कार्य के लिए चुना गया था, उनके नाम-पूर्णिया, कटिहार, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर, वैशाली, नालंदा, नवादा, गया, भोजपुर व बक्सर हैं। इस सर्वेक्षण का सबसे अहम बिन्दु यह है कि प्रत्येक गांव में 25 अत्यंत गरीब दलित और आदिवासी परिवारों का प्रश्नावली-आधारित तरीके से सर्वेक्षण किया गया है। इस सर्वेक्षण में कुल 2,500 परिवारों को सम्मिलित किया गया, जिसकी 90 प्रतिशत आबादी अत्यंत गरीब दलित और आदिवासी परिवारों की है, जो अत्यंत गरीबी और भुखमरी का जीवन जीते हैं।

बिहार के जिन 10 जिलों में सर्वेक्षण कार्य किया गया है उन जिलों में किसी भी परिवार को मनरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार बीते छह साल में नहीं मिला है। जबकि पिछले एक साल में इनमें से 53 फीसदी को एक भी दिन काम नहीं मिला। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के इन जिलों में सालाना औसत मात्र 5 दिनों का काम उपलब्ध कराया गया है, जबकि कम से कम 100 दिन काम उपलब्ध कराने का प्रावधान है। लेकिन इन जिलों में जिस तरह से मनरेगा की राशि का गबन पिछले छह साल में हुआ है वह चौंकाने वाली है। सर्वेक्षण के अनुसार पूर्णिया में 80 प्रतिशत, कटिहार में 70 प्रतिशत, बेगूसराय में 62 प्रतिशत, मजफ्फरपुर में 71 प्रतिशत, वैशाली में 82 प्रतिशत, नालंदा में 70 प्रतिशत, नवादा में 79 प्रतिशत, गया में 63 प्रतिशत, भोजपुर में 85 प्रतिशत और बक्सर में 68 प्रतिशत मनरेगा की राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।

बहरहाल, बिहार के इन जिलों में मनरेगा गरीबों की जीविकोपार्जन की उम्मीदों को पूरा करने में कितना सहायक रहा है, यह सीईएफएस के सर्वेक्षण से अनुमान लगाया जा सकता है। हाल में किसी भी कल्याणकारी योजना ने लोगों का ध्यान उतना आकर्षित नहीं किया है, जितना कि मनरेगा ने किया है। यही वजह रही कि सरकार शुरू से मनरेगा को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है तो दूसरी तरफ इसके क्रियान्वयन को लेकर अब तक सवाल खड़े होते रहे हैं। अब तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लेकर जो भी अध्ययन और सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें भी कई खामियां देखने को मिली हैं। मसलन कहीं जॉब कार्ड बन जाने पर भी काम न मिलने की शिकायत तो कहीं पूरे सौ (100) दिन काम न मिलने की और कहीं हाजिरी रजिस्टर में हेराफेरी की। इसके अतिरिक्त फर्जी मास्टर रोल, फर्जी मशीनों का उपयोग दिखाकर बिल बनाए जाने के मामले सामने आए हैं। यह स्पष्ट है कि यह योजना कई कमजोरियों का शिकार है। नए अध्ययनों का सार भी यही है कि भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है। यह कैसी विडंबना है कि इस योजना के तहत मजदूरों को न तो समय पर मजदूरी मिल रही है और न ही 100 दिन का रोजगार।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

रवि शंकर

रवि शंकर सेंटर फॉर एनवायर्नमेंट एंड फूड सिक्योरिटी (सीईएफएस) में रिसर्च एसोसिएट हैं

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