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दिल्ली बलात्कार कांड और भारत का शहरी मध्यवर्ग

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद यह दूसरा बड़ा आंदोलन था, जिसमें उत्तर भारत का शहरी मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर हिस्सा ले रहा था

गत 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के विरोध में हुए प्रदर्शनों ने रायसीना हिल्स को हिला कर रख दिया। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद यह दूसरा बड़ा आंदोलन था, जिसमें उत्तर भारत का शहरी मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर हिस्सा ले रहा था। अन्ना के आंदोलन की तुलना में इस आंदोलन में युवाओं की हिस्सेदारी बहुत ज्यादा थी। यही कारण था कि क्या सत्ता, क्या विपक्ष, दिल्ली की गद्दी पर राज करने वाले सभी पक्ष, भारत में अरब स्प्रिंग की आहट महसूस कर रहे हैं। आखिर, एक ऐसे देश में जहां हर एक घंटे से कम समय में बलात्कार की एक घटना होती है तथा हर आधे घंटे से कम समय में बलात्कार की कोशिश या छेड़छाड़ की घटना होती है, उस देश में दिल्ली की एक अनाम लड़की के साथ हुई घटना को लेकर इतना बड़ा आंदोलन क्यों हुआ? क्या सिर्फ इसलिए कि दिल्ली भारत की राजधानी है, और यहां समाचार-माध्यमों की नजर ज्यादा रहती है? या फिर इसलिए कि लोगों के धैर्य का घड़ा अब भर चुका है?

वास्तव में, भारत में अरब स्प्रिंग की आहट महज कुछ अति उत्साही आंखों का धोखा ही नहीं है। भारत जैसे लोकतंत्र में भले ही ‘सत्ता परिवर्तन’ बहुसंख्यक आबादी के वोटों से होता हो लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि व्यवस्था परिवर्तन का आगाज शहरी मध्य वर्ग के द्वारा ही होता रहा है। उत्तर भारत का शहरी मध्यवर्ग- जिसका अधिसंख्य हिस्सा द्विज जातियों का है-भारत की मौजूदा संवैधानिक राजनीतिक व्यवस्था से ऊब चुका है और घुटन महसूस कर रहा है।

अच्छी बात यह है कि यह शहरी मध्यवर्ग अपने लिबास और रहन-सहन में तो यूरोपीय आधुनिकता अंगीकार करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन बहुत बुरी बात यह है कि मनुस्मृति के विधान की दो प्रमुख विशिष्टताओं पर इसकी कटटरता लगभग अक्षुण्ण है। ये विशिष्टताएं हैं, स्त्रियों का महज भोग्या होना और जाति की श्रेणीबद्धता। यही विरोधाभास इसके दोमुंहापन और दोगले चरित्र का कारण है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड में भी इस वर्ग का यह चरित्र सामने आया।

2004 में पश्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी। चटर्जी कोलकात्ता में एक रिहाइशी अपार्टमेंट का गार्ड था और उसने उसी अपार्टर्मेंट में रहने वाली एक 14 वर्षीय बालिका की बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी। राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान से इनकार करने के बाद जब चटर्जी की फांसी तय हो गई तो यही शहरी मध्यवर्ग, इसके बुद्धिजीवी और इसके मीडिया ने एक सुर में फांसी मात्र की सजा का विरोध करना शुरू कर दिया। उस दौरान के अखबारों को देखें तो वे फांसी की सजा को खत्म करने की वकालत से भरे पड़े दिखते हैं। उस समय भारत का प्रसिद्ध जल्लाद नाटा मल्लिक जीवित था। अखबारों ने उसके इंटरव्यू प्रकाशित करने शुरू किए, जिसमें नाटा को यह कहते हुए दिखाया गया कि धनंजय चटर्जी को फांसी देते हुए उसके हाथ कांप जाएंगे।

यही मध्यम वर्ग दिसंबर, 2012 में दिल्ली बलात्कार कांड पर फांसी की सजा की मांग कर रहा था। 2004 में धनंजय चटर्जी मामले में ऐसा क्या था कि फांसी में जल्लाद तक का हाथ कांप जा रहा था? धनंजय चटर्जी ब्राह्मण था। मनुस्मृति हिंदू विधान में ब्राह्मण को हत्या व बलात्कार सहित किसी भी अपराध के लिए फांसी नहीं दी जा सकती। और संभवत: भारत के ज्ञात इतिहास में पहली बार किसी ब्राह्मण को राज्य सत्ता द्वारा फांसी की सजा दी गई थी इसलिए दिसंबर के दिल्ली बलात्कार कांड को इस दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। ताकतवर जातियों के पुरुष वंचित जातियों की महिलाओं के साथ बलात्कार करते रहे हैं। शहरीकरण ने स्थितियों में बदलाव लाया है। दिल्ली बलात्कार कांड को ही उदाहरणस्वरूप लें तो इसमें बलात्कारी झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले बिहार से आए लंपट प्रवासी थे। इस तरह की विलोम घटनाएं शहरों में बढती जा रही हैं। किस तरह वंचित जातियों के एक लंपट तबके ने सामंती जातियों के अवगुणों को अपनाया है, यह अलग से पड़ताल का विषय है। आर्थिक कारणों से महिलाओं को घर से बाहर भेजना इस शहरी मध्यवर्ग की जरूरत है। इसे अपने लिए आधुनिकता से लैस वातावरण भी चाहिए। यही कारण है कि बलात्कार की इन विलोम घटनाओं ने शहरी मध्यवर्ग को झकझोर कर रख दिया है, अन्यथा इसी दिल्ली में बिहार-झारखंड से आई किशोर नौकरानी से बलात्कार की घटनाओं का कोई संज्ञान तक नहीं लेता।

वास्तव में, यह वही शहरी मध्यवर्ग है जो भ्रष्टाचार में सबसे अधिक लिप्त भी है और वंचित तबकों से आने वाले कुछ राजनेताओं तथा सरकारी नौकरों (जो, इनकी नजर में सिर्फ आरक्षण के बूते आए हैं) के भ्रष्टाचार से सबसे अधिक त्रस्त भी है, जिस तरह इसे भ्रष्टाचार मात्र से परहेज नहीं है, निचले तबके के लोगों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से परहेज है, उसी तरह इसे हरियाणा, राजस्थान, ओडिशा या बिहार के गांवों में सामंती तबकों के पुरुषों द्वारा निचली जातियों की महिलाओं के साथ किए जाने वाले क्रूरतम बलात्कार पर कोई खास आपत्ति नहीं है, इसे आपत्ति है अपने मुक्त आधुनिक स्पेस के सिकुडऩे पर। इन्हीं कारणों से यह भारत में व्यवस्था परिवर्तन का आकांक्षी भी है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

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