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संसदीय सत्ता के वैष्णव चंडाल

तमिलनाडु की यह घटना भारतीय संसदीय राजनीति के लिए कोई अलग-थलग घटना नहीं है। उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के पिता-पुत्र नेता दलित विरोध का स्वर बोलने लगे थे। चुनाव में जीत के बाद तो उन्होंने खुल्लम-खुल्ला बोलना शुरू कर दिया है। आदिवासियों व दलितों को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ संसदीय पार्टियों के बीच समाजवादी पार्टी ने झंडा उठा रखा है

हिन्दू के पाठक पी हरिदास चेन्नई से लिखते हैं कि तमिलनाडु में पीएमके के नेता एस रामदास अपनी पार्टी के बनने से लेकर अब तक दलितों और वन्नियारों की एकता के पुरजोर प्रवक्ता रहे हैं। वन्नियार पिछड़े वर्ग में एक जाति का नाम है। लेकिन अब एस रामदास की राजनीतिक हैसियत बेहद कमजोर हो गई है और वे दलितों से बेहद नाराज चल रहे हैं। उनका यह गुस्सा धर्मपुरी जिले में नाथन गांव में वन्नियार जाति के नागराज द्वारा आत्महत्या की घटना के बहाने जाहिर हुआ। नागराज को लगता था कि उनकी बेटी ने एक दलित लड़के से शादी करके न केवल उनके परिवार के सम्मान को चोट पहुंचाई है बल्कि इससे उनकी जाति का सिर भी शर्म से झुक गया है। नागराज की आत्महत्या के बाद गांव नाथन में दलितों के घरों में आग लगा दी गई। उनकी गाडिय़ां जला दी गईं। हिन्दी के समाचारपत्रों से तो तमिलनाडु के इस राजनीतिक उत्पात का पता नहीं चलता लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्रों में इस सामाजिक-राजनीतिक परिघटना को लेकर काफी कुछ छप रहा है। एस रामदास ने अपनी नई राजनीतिक लाइन के मुताबिक दलितों के खिलाफ इस रूप में हल्ला बोला है कि उन्होंने अंतर्जातीय विवाहों पर ही पाबंदी लगाने की मांग की है। यह उस पिछड़े बुद्धिजीवियों की समझ का विस्तार है जो यह कहने लगे हैं कि अंतर्जातीय विवाह से
जाति नहीं टूटती है।

तमिलनाडु की यह घटना भारतीय संसदीय राजनीति के लिए कोई अलग-थलग घटना नहीं है। उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के पिता-पुत्र नेता दलित विरोध का स्वर बोलने लगे थे। चुनाव में जीत के बाद तो उन्होंने खुल्लम-खुल्ला बोलना शुरू कर दिया है। आदिवासियों व दलितों को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ संसदीय पार्टियों के बीच समाजवादी पार्टी ने झंडा उठा रखा है। समाजवादी पार्टी ब्राहमण सम्मेलन आयोजित कर रही है। भारतीय संसदीय राजनीति में यह पहला मौका है जब हिन्दूत्ववादियों से ज्यादा आक्रामक तरीके से सामाजिक न्याय की पार्टियां और उनके नेता दलित विरोध में दिखाई दे रहे हैं। केंद्र सरकार की नौकरियों में जब आरक्षण का फैसला हुआ था तो उस दौर में आरक्षण विरोधियों के साथ दो-दो हाथ करने वालों में दलित जातियां सबसे आगे थीं। मंडल के आने के बाद संसदीय राजनीति में पिछड़ा-दलित नेतृत्व का प्रादुर्भाव हुआ। सत्ता का बड़ा हिस्सा पिछड़ों के नेतृत्व को मिला। उस समय के बाद दो तरह की प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं। पहला, संसदीय राजनीति में जो दलित नेतृत्व उभरा उसमें ज्यादातर ने पिछड़ों के नेतृत्व को सामाजिक फासीवाद के रूप में परिभाषित किया। बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार के दौरान बेलछी कांड हुआ था। उसे दलितों के खिलाफ पिछड़ों की एक जाति का हमला माना गया था। लेकिन तब पिछड़ी जातियों में इस घटना के खिलाफ बहुत रोष देखा गया था।

संसद में राम अवधेश सिंह ने आवाज उठाई थी। कई विश्लेषकों ने हमले और इसके विरोध को पिछड़ों के बीच सशक्त जातियों के एक अंतर्विरोध के रूप में देखा था। बाद में यह नीतीश कुमार बनाम लालू यादव के रूप में सामने आता है। पिछड़ों में सशक्त मानी जाने वाली जातियों के बीच नेतृत्व के झगड़े का एक इतिहास है। 1990 से पहले संसदीय राजनीति में पिछड़े-दलितों के बीच फांक करने के लिए कांग्रेस मशहूर रही है। दूसरी तरफ संसदीय राजनीति में सौ में नब्बे पिछड़े, दलितों, आदिवासियों व मुसलमानों को एक करने की राजनीति को कामयाब बनाने की कोशिश की जाती रही है। ब्राहमणवाद के खिलाफ वैचारिक लड़ाई का संसदीय रूप इसी गणित के साथ सामने आया। 1990 के बाद जब पिछड़ा-दलित और एक हद तक अल्पसंख्यक एकजुटता का दृश्य दिखाई दिया, तब आदिवासी पीछे छूट गए लेकिन इस एकजुटता से ब्राहमणवाद की वैचारिक लड़ाई को आगे बढऩे की संभावना दिखी। लेकिन संसदीय राजनीति और ब्राहमणवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्ष का तालमेल नहीं बन सका। ब्राहमणवाद ने अपने लिए संसदीय़ रास्ते तैयार कर लिए। मंडल आयोग की अनुशंसाओं की मुखालफत करते हुए ब्राहमणवाद का नेतृत्व करने वाले संघ परिवार और उसके संसदीय दल भारतीय जनता पार्टी ने राम रथयात्रा निकाली।

उस दौरान साम्प्रदायिक हमलों में उन्हें आगे किया जो ब्राहमणवाद के बोझ से दबी रही हैं। इसके बाद सोशल इंजीनियरिंग का नारा दिया और ब्राह्मणवादी हमले का झंडा इंजीनियरिंग को सौंप दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस पिछड़े माने जाने वाले कल्याण सिंह के नेतृत्व में हुआ। साम्प्रदायिक हमलों का चरित्र हम इस रूप में देखते हैं कि कहीं पिछड़े, कहीं दलित तो कहीं आदिवासी साम्प्रदायिक हमलों के नेतृत्व में हैं। ब्राहमणवाद की सोशल इंजीनियरिंग इस रूप में सफल दिखती है कि ब्राहमणवाद की कमान अब पिछड़े, दलित, आदिवासी संभाल रहे हैं। ब्राहमणवाद वैष्णव चंडाल तैयार करने के लिए भी जाना जाता है। ब्राहमणवाद की कई संसदीय पार्टियां अब हो गई हैं। संसदीय पार्टियों के पिछड़े, दलित, आदिवासी नेतृत्व को ब्राहमणवादी सत्ता चाहिए न कि ब्राहमणवाद का खात्मा। रामदास, मुलायम, नीतीश की वैचारिकी वैष्णव चंडाल से रूबरू है।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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