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जब मुझे यह पता लगा कि मेरा नाम “अंतराष्ट्रीय” है

मैंने आइजेया बर्लिन की किताब की भूमिका बहुत ध्यान से पढ़ी। उसमें कहा गया था कि आइजेया बर्लिन, दुनिया के तत्कालीन महानतम दार्शनिकों और इतिहासविदें में से एक थे। वे जर्मन नहीं थे बल्कि ब्रिटिश थे और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रूसी-यहूदी थी

मार्क्सवाद-माओवाद के नशे में झूम रहे हम लोग उन दिनों आम्बेडकर को विचारक के तौर पर नहीं देखते थे। हम ज्यादा से ज्यादा उन्हें बुर्जुआ भारतीय संविधान का लेखक मानते थे। हमारी निगाहों में यह संविधान कोई बहुत अच्छा नहीं था। अब हालांकि हम यह समझते हैं कि आम्बेडकर के बारे में हमारे विचार गलत थे। आम्बेडकर की किसी भी किताब के बारे में हम नहीं जानते थे और न ही वे उन लेखकों की सूची में शामिल थे, जिन्हें हम पढ़ते थे। हम यूरोप के पुनर्जागरण और सुधार आंदोलन के बारे में लगभग सब कुछ जानते थे। यद्यपि उन दिनों मैं पूरी दुनिया के बारे में पढ़ता था परंतु इस तथ्य और विश्वविद्यालय में रहने के बावजूद भी मैं अपने अत्यंत स्थानीय और घटिया नाम से उपजी शर्मिंदगी से मुक्त नहीं हो पाया था। हम मार्क्सवादी छात्र अपने परिवारों से अधिक मार्क्स और माओ के परिवारों और उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में जानते थे। उनके नाम हमें सांस्कृतिक दृष्टि से किसी भी भारतीय उच्च जाति के नाम या किसी भी हिन्दू नाम से अधिक सम्मानित लगते थे। यद्यपि हम यूरोपियन साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के कटु आलोचक थे तथापि यूरोप की संस्कृति, सभ्यता और वहां के लोगों के चरित्र से हम बहुत प्रभावित थे। उनके नाम हमें हिन्दू गांधी और नेहरू के नामों की तुलना में किसी ऊंची सभ्यता के नाम लगते थे।

फिर, अचानक, एक दिन, जब मैं उस्मानिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के तलघर में विशाल ऊंची-ऊंची अलमारियों में भरी किताबों में कोई मार्क्सवादी किताब ढूंढ रहा था, अचानक मेरे हाथ आइजेया बर्लिन की एक किताब लग गई। उनके नाम की वर्तनी बिल्कुल मेरे नाम जैसी (आइजेया-आयलैया) थी। केवल जरा सा फर्क था। मैंने उस किताब के शीर्षक को दोबारा पढ़ा। एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि उसमें मेरा ही नाम लिखा हुआ है। उनका उपनाम बर्लिन भी मेरे लिए बहुत जाना-पहचाना था। इस शहर के बारे में मैंने बहुत कुछ पढ़ा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में बर्लिन का पतन और उसके बाद बर्लिन की दीवार के निर्माण के बारे में मैं काफी कुछ जानता था। बल्कि मैं दिल्ली या हैदराबाद से ज्यादा बर्लिन के बारे मेंं जानता था। मैंने आइजेया बर्लिन की किताब की भूमिका बहुत ध्यान से पढ़ी। उसमें कहा गया था कि आइजेया बर्लिन, दुनिया के तत्कालीन महानतम दार्शनिकों और इतिहासविदें में से एक थे। वे जर्मन नहीं थे बल्कि ब्रिटिश थे और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रूसी-यहूदी थी। मैंने अलमारियों को एक बार फिर खंगालना शुरू किया, यह पता लगाने के लिए कि क्या उनकी कोई और पुस्तक वहां है। जल्दी ही मेरे हाथों में उनकी लिखी एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें थीं। मैंने उनके नाम को एक बार फिर से पढ़ा। मुझे लगा कि जैसे मैं आयलैया नहीं आइजेया हूं। मैंने उनके नाम की तर्ज पर अपना पूरा नाम अपनी नोटबुक में लिखा-आयलैया कांचा। मेरा अपना नाम मुझे कुछ अलग सा लगा। आयलैया कांचा एक ऐसे विश्वप्रसिद्ध इतिहासविद्, दार्शनिक और विचारक-आइजेया बर्लिन-के नाम जैसा लग रहा था, जिसका मुकाबला कोई भारतीय नहीं कर सकता था। मैं किताबों की अलमारियों के बीच खुशी से झूमने लगा। वाह रे वाह! मेरा नाकारा नाम एक विश्वप्रसिद्ध इतिहासविद् और दार्शनिक से कितना मिलता-जुलता था!

मैं अब यह पता लगाना चाहता था कि क्या दुनिया में कोई ऐसा इतिहासविद् या दार्शनिक था, जिसका नाम शास्त्री या शर्मा या रेडडी या राव, पटेल या चौधरी, चटर्जी या बैनर्जी के नामों से मिलता हो। मैंने इतिहास और दर्शनशास्त्र की पुस्तकों की अलमारियों की एक-एक किताब देखनी शुरू की। मुझे नीलकांथा शास्त्री द्वारा लिखित एक पुस्तक मिली परंतु वहां किसी रेडडी या राव की लिखी कोई किताब नहीं थी। मैंने नीलकांथा शास्त्री की किताब खोली। वह राजाओं और उनके द्वारा लड़े गए युद्धों का कहानी की तरह प्रस्तुतिकरण करने वाली एक साधारण सी किताब थी। क्या कारण था कि रेडडी और राव, जो मेरे विश्वविद्यालय और राज्य में इतने प्रभुत्वशाली थे, एक भी ऐसी किताब नहीं लिख सके जैसी कि मेरे नाम से मिलते-जुलते नाम वाले आइजेया ने लिखी थी? क्या उनके केवल नाम प्रभावशाली थे, बुद्धि नहीं? मुझे यह सोचकर बहुत आनंद आ रहा था।

फिर मैं यह सोचने लगा कि ब्रिटेन, जिसने भारत और पूरी दुनिया पर लंबे समय तक राज किया था, के एक नागरिक के मेरे नाम से मिलते-जुलते नाम का क्या स्रोत हो सकता है। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं, मैं ब्रिटेन से उसके औपनिवेशिक चरित्र के कारण घृणा करता था परंतु मैं वहां के नागरिकों की बुद्धिमत्ता का कायल था। आखिर इतना छोटा-सा देश पूरी दुनिया पर राज कैसे कर सका ? केवल बुद्धि के बल पर। भारतीयों में ऐसी बुद्धि क्यों विकसित नहीं हो सकी? क्या इसलिए क्योंकि वहां आइजेया किताबें लिखते थे और यहां आयलैयाओं को किताबें पढऩे तक नहीं दी जाती थीं।

मैंने आइजेया बर्लिन के नाम का स्रोत ढूंढना शुरू किया। उनकी एक किताब की भूमिका में मैंने पढी कि उनका नाम आइजेया नाम के प्रसिद्ध इसराइली पैगम्बर के नाम पर रखा गया था, जो कि ईसा मसीह से 700 साल पहले हुए थे। आइजेया, एक पैगम्बर! कितना आश्चर्यजनक था यह सब! हमारे देश में तो इस तरह के नाम वाले लोगों को कूढमगज, गंदे, गधा समझा जाता है। इस तथ्य के उदघाटन ने मुझमें एक अजीब सी जिज्ञासा पैदा कर दी। यह कैसे था कि मेरे नाम, जिसे भारत में हेय दृष्टि से देखा जाता है, से मिलते-जुलते नाम का एक पैगम्बर प्राचीन इजराइल में हुआ था और आधुनिक ब्रिटेन के एक महान इतिहासविद् का नाम भी वही था। जब मुझे यह पता चला कि आइजेया का नाम बाइबिल में है तब मैंने बाइबिल पढऩे की ठानी।

मैंने बाइबिल की एक प्रति उठाई और जब मैंने उसकी विषय सूची को पढ़ा तो मुझे पता चला कि उसके कम से कम छह खंडों के शीर्षक मेरे नाम जैसे थे-नहेमायाह, आइजेया, यिर्मयाह, ओबद्दाह, सपन्याह व जकर्याह। बाइबिल इन सबके बारे में बहुत विस्तार से बताती है। ये सब पैगम्बर थे-वे व्यक्ति जिन्हें ईश्वर ने महान और ईश्वरीय काम करने के लिए चुना था। फिर मैंने आइजेया के बारे में बहुत सारी पुस्तकें पढ़ीं। वे सब कहती थीं कि आइजेया, ईसा मसीह के पहले हुए पैगम्बरों में से महानतम थे। उन्होंने ही सबसे पहले यह भविष्यवाणी की थी कि दुनिया को बदलने के लिए ईसा मसीह आएंगे। मुझे यह जानकर बहुत सुखद आश्चर्य हुआ कि भारत में घृणा की दृष्टि से देखे जाने वाले मेरे नाम के पैगम्बर इसराइल में हुए थे। नाम, अक्सर संबंधित क्षेत्र की संस्कृति को प्रतिबिंबित करते हैं और किसी भौगोलिक क्षेत्र की सांस्कृतिक स्थितियां, उस क्षेत्र की उत्पादक स्थितियों को प्रतिबिंबित करती हैं। व्यक्तियोंं के नाम किसी क्षेत्र विशेष और वहां रहने वाले लोगों की ऐतिहासिक विरासत की ओर भी इंगित करते हैं। मैं जानता था कि मेरे माता-पिता चरवाहे थे। वे किसान भी थे। हमारे नाम जिन देवताओं के नाम पर रखे गए थे वे देवता पशुपालन और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए देवता थे। मेरे माता-पिता का निम्न सामाजिक दर्जा उनके पेशे और उनके सांस्कृतिक जीवन से संबद्ध था। मुझे बहुत जिज्ञासा थी कि मैं आइजेया की पृष्ठभूमि के बारे में जानूं और यह समझूं कि वे एक महान पैगम्बर कैसे बने। रूथ नाम के एक प्रसिद्ध लेखक, जिन्होंने कृषि उत्पादन और बाइबिल के संबंधों पर गहन अध्ययन किया था, लिखते हैं, इसराइल में खेतों में फसल उगाई जाती थी और पशुपालन भी होता था। पैट्रियाक्स के युग में पशुपालन मुख्य आर्थिक गतिविधि थी परंतु जब इसराइल के निवासी एक स्थान पर बसने लगे तब पशुओं का अर्थव्यवस्था में महत्व कम हो गया। जानवर मुख्यत: इसलिए पाले जाते थे कि वे एक तरह की संपत्ति माने जाते थे। वे भोजन का स्रोत भी थे, यद्यपि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की तुलना में उस समय सामिष भोजन का चलन कम था। अधिकतर परिवारों के पास भारवाहक पशु भी थे जिनमें बैल सबसे कीमती था और गधा सबसे आम। उस समय खेती में न तो घोड़ों का इस्तेमाल होता था और न ही ऊंटों का। घोड़ों का इस्तेमाल केवल सेना में होता था और ऊंटों का व्यापार के लिए (एग्रीकल्चर इन द बाइबिल)।

यहां हम भारत और इसराइल के बीच समानताएं स्पष्ट देख सकते हैं। दोनों खेती के लिए बैलों और युद्ध के लिए घोड़ों पर निर्भर थे। निस्संदेह दोनों देशों में गौमांस खाया जाता था परंतु भेड़, बकरी, मुर्गा और मछली का भी भोजन के रूप मेें प्रयोग होता था। प्राचीन, मध्यकालीन और वर्तमान भारत में कृषि में बैल की ताकत का व्यापक इस्तेमाल होता है। इसी तरह, यात्रा और युद्ध के लिए घोड़े पर निर्भरता प्राचीन काल से आज तक बनी हुई है। आइजेया के समय का इसराइल पूर्णत: खेती पर निर्भर था, उसी तरह जिस तरह मेरे माता-पिता निर्भर थे।

बाइबिल में उन सभी जानवरों और पक्षियों का जिक्र आता है जिन्हें हम भारत में आज देखते हैं। तेलंगाना-वह क्षेत्र जहां मैं पैदा और बड़ा हुआ-के काकतिया और गोलकुंडा शासक, युद्ध में घोड़ों का इस्तेमाल करते थे। सभी जातियों और समुदायों के किसान बैलों से खेत जोतते थे। इस क्षेत्र की आज की कृषि अर्थव्यवस्था और इसराइल की प्राचीन कृषि अर्थव्यवस्था में काफी समानताएं हैं। लोगों के नामों में समानता के पीछे उनकी आर्थिक पृष्ठभूमि की समानता रही होगी। जैसा कि हम सब जानते हैं, संस्कृति, दरअसल, भौगोलिक व आर्थिक परिस्थितियों की उपज होती है। एक से जानवरों को पालने व लगभग एक सी फसलेंं उगाने से एक सी संस्कृति, एक सी मानवीय चेतना उभरना स्वाभाविक था। इसका यह अर्थ नहीं है कि छोटे-मोटे अंतर नहीं थे।

भारत में इस्तेमाल होने वाले दूध का बड़ा हिस्सा हमें भैंस से मिलता है। चूंकि गाय प्रेमी आर्य इस काले जानवर से घृणा करते थे इसलिए उन्होंने प्राचीन समय मेंं भैसों का बड़ी संख्या में वध किया। श्वेत अमरीकियों ने भी आधुनिक काल में यही किया। दूसरी ओर, द्रविड़ भैंस से प्रेम करते थे, क्योंकि भैंस उनकी ही तरह काली थी। वे लंबे समय से भैंस पालते आ रहे थे। यद्यपि भैंस की चर्चा बाइबिल में है तथापि उसे नदी किनारे रहने वाला एक जानवर बताया गया है, दूध देने वाला पालतू पशु नहीं। क्या इसका अर्थ यह है कि इसराइली पानी में रहने वाली भैंस को पालतू नहीं बना सके जबकि भारतीय द्रविड़ों ने उसे आसानी से पालतू बना लिया ? क्या इसका अर्थ यह है कि प्राचीन द्रविड़ों का पशुओं को पालतू बनाने की तकनीक का ज्ञान प्राचीन इसराइलियों से बेहतर था? तो फिर बाद में भारत इसे पीछे क्यों छूट गया ? इसराइल ने पूरी दुनिया पर सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रभाव डाला। भारत ऐसा क्यों नहीं कर सका? इसराइल ने विश्वस्तरीय पैगम्बर, दार्शनिक, चिंतक दुनिया को दिए। भारत में ऐसा कोई व्यक्तित्व क्यों नहीं जन्मा?

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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