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भारतीय संविधान की प्रगति-उन्मुख प्रस्तावना

संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को जब नए संविधान को अपनी मंजूरी दी थी तब उन्होंने आने वाले कई दशकों के लिए विकास का एजेंडा तय कर दिया था। ऐसा एजेंडा जिसके ठोस क्रियान्वयन की आवश्यकता है

21 फरवरी : डॉ. बी.आर आंबेडकर ने संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया

विधान की संक्षेपिका

भारतीय संविधान की प्रस्तावना, वह सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है, जो भारत किस तरह विकसित हुआ, उसे समझने में हमारी सहायता कर सकता है। यह पूरे संविधान की संक्षेपिका है और उस लक्ष्य को चिन्हित करती है, जिसके लिए भारतीय राष्ट्र का निर्माण हुआ था। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना, प्रत्येक शासकीय समाज कल्याण कार्यक्रम और गैर-सरकारी संस्थाओं की प्रत्येक जमीनी पहल, अंतत: इसी एक वाक्य से उपजती है, और इसी के संदर्भ में देखी जाती है।

संविधान की प्रस्तावना कहती है-हम भारत के लोग, भारत को एक [सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य] बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और [राष्ट्र की एकता और अखंडता] सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

पांच शब्दों (सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य) में भारत के राजनीतिक ढांचे और उसकी विचारधारा को प्रस्तुत किया गया है और इन्हें विस्तार दिया गया है। संविधान के अध्याय 1-2, व 5-22 में। चार शब्दों (न्याय, स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व) में यह भारत के लक्ष्यों को वर्णित करती है, जिन्हें विस्तार दिया गया है अध्याय 3-4 में, जो मूलभूत अधिकारों, नीति निदेशक तत्वों और मूलभूत कर्तव्यों से संबंधित हैं।

टॉम वुल्फ की हालिया प्रगति-उन्मुख संस्कृतियों पर केन्द्रित लेखों की श्रृंखला के संदर्भ में यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि आठ प्रगति-उन्मुख कारकों और भारतीय संविधान के चार लक्ष्यों में अदभुत समानताएं हैं। हम यह कह सकते हैं कि संविधान, टॉम वुल्फ द्वारा प्रतिपादित प्रगति-उन्मुख संस्कृति के स्वरूप को वर्णित करता है और उसके निर्माण का रास्ता सुझाता है।

प्रस्तावना का अनुप्रयोग

यद्यपि उद्धेश्यिका आठ कारकों तक सीमित नहीं है तथापि वह मोटे तौर पर राष्ट्र के विकास के लक्ष्यों को परिभाषित करती है और इन्हीं लक्ष्यों के मद्देनजर, रणनीतियां तैयार की जाती हैं। इस तरह, आठ कारकों को उद्धेश्यिका के लक्ष्यों के ठोस क्रियान्वयन के संदर्भ में देखा जा सकता है।

प्रतिष्ठा की समानता : महिलाएं

जाति और वर्ग के अतिरिक्त, प्रतिष्ठा की समानता का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि महिलाओं (जो कि हर देश की आबादी का आधा हिस्सा होती हैं) का दर्जा-औपचारिक और अनौपचारिक दोनों संदर्भों में (सम्मान की दृष्टि से)-पुरुषों के समान होगा। समान दर्जे का यह अर्थ नहीं है कि दोनों की भूमिकाएं एक सी होंगी परंतु इसका अर्थ है कि सभी महिलाओं-अजन्मी लड़की से लेकर विधवा तक-के मूल्यों की पूरी तरह रक्षा की जाएगी।

अवसर की समानता : शिक्षा-योग्यता

सभी बच्चों को बराबरी का अवसर देने का सबसे त्वरित तरीका क्या है? सबको उच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध करवाना। भारत ने इस संबंध में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। आज से 200 वर्ष पूर्व, कोई दलित या लड़की शिक्षित नहीं होती थी। सन् 1949 में भारत ने अपने राज्य के नीति निदेशक तत्वों में लिखा कि राज्य सभी बच्चों को शिक्षा उपलब्ध करवाएगा (अनुच्छेद 45)। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के जरिए शिक्षा अब हर भारतीय बच्चे का मूलभूत अधिकार बन गया है। यह अधिनियम कुछ के लिए नहीं बल्कि सब के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी देता है। यद्यपि यह साफ है कि इस अधिनियम के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।


शिक्षा के अभाव के अतिरिक्त, वह दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारक कौन-सा है जो सभी को समान अवसर उपलब्ध कराने के रास्ते में बाधक है? सिफारिशबाजी की संस्कृति। अक्सर कहा जाता है कि कोई अच्छी नौकरी पाने के लिए ‘आप क्या जानते हैं से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि आप किसे जानते हैं। हो सकता है कि व्यावहारिक दृष्टि से यह सही हो परंतु यह भारतीय संविधान की आत्मा के विरोध में है। संविधान एक ऐसी व्यवस्था का पक्षधर है जिसमें, जहां तक संभव हो सके-नागरिकों को उनके प्रयासों और योग्यता के आधार पर प्रतिफल मिले न कि उच्च पदस्थ व्यक्तियों से उनके संबंधों के आधार पर। जब भी कोई व्यक्ति किसी पद या किसी दर्जे को प्राप्त करने के लिए रिश्वत देता है या सिफारिश करवाता है तब संविधान आहत होता है। जब भी किसी व्यक्ति को उसकी जाति, समुदाय या वर्ग के कारण नहीं चुना जाता है तब संविधान आहत होता है। संविधान की मंशा साफ है। वह प्रगति-उन्मुख समाज का निर्माण करना चाहता है-ऐसे समाज का जो योग्यता पर आधारित हो।

विचार की स्वतंत्रता : समय

विचार की स्वतंत्रता से अभिप्राय है पुराने विचारों पर प्रश्न उठाने और उनकी समालोचना करने की आंतरिक शक्ति और नए विचारों को अपनाने का अधिकार। सामान्यत: इसका यह अर्थ नहीं है कि हम पुराने विचारों को एक सिरे से त्याग दें और नए विचारों को पूरी तरह अपना लें। इसका अर्थ है विचारक समाज को बढ़ावा देना और सुधार की भावना का पोषण (अनुच्छेद 51 एच) करना ताकि समाज लगातार अपने मेें बदलाव ला सके। संविधान की भाषा में इसका अर्थ है वैज्ञानिक सोच का विकास करने का प्रयास (अनुच्छेद 48)। आठ कारकों की भाषा में इसका अर्थ है कि व्यक्ति केवल भूतकाल (चाहे वह अच्छा हो या बुरा) से नियंत्रित न हो। बल्कि उसमें भविष्य को आकार देने और उसे बदलने की क्षमता हो।

अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास व उपासना की : स्वतंत्रता-विश्वदृष्टि व नागरिक बहुवाद

इन चारों स्वतंत्रताओं के मूल में है अंत:करण की स्वतंत्रता। अंत:करण की स्वतंत्रता को समाजशास्त्री ओस गिनीज इस रूप मेंं परिभाषित करते हैं-यह हर एक व्यक्ति का अपने अंत:करण के आधार पर, जो कुछ भी वह चाहे, वह विश्वास रखने का अधिकार है- इस शर्त के साथ कि अन्य सभी व्यक्तियों के इस अधिकार को भी वह सम्मान दे। इस स्वतंत्रता में व्यक्ति का यह अधिकार शामिल है कि वह अपने विश्वासों के आधार पर सार्वजनिक जीवन (मीडिया, राजनीति व व्यवसाय) में प्रवेश कर सके। अंत:करण की स्वतंत्रता के तीन परिणाम होते हैं 1. वह शक्ति व आदेश की नहीं वरन् विमर्श व बहस की संस्कृति का निर्माण करती है 2. वह एक ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण करती है, जिसमें विविधता सुरक्षित रहती है व 3. वह विद्रोह व विरोध की उस अवश्यंभावी लहर को रोकती है जो किसी भी विश्वास के एकाधिकार व ताकत के बल पर अपनी सत्ता स्थापित करने से जन्म लेती है। आठ कारकों के संदर्भ में इसे विश्वदृष्टि व बहुवाद कहा जाता है।

न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक : सदाचार

परंतु इसकी नींव है सदाचार-व्यवहार की एक आचार संहिता। व्यापक व अंतर्मन से उपजे सदाचार के भाव के बगैर, समाज बंधा नहीं रह सकता। सदाचार का प्रत्येक उल्लंघन, विश्वास का खंडन है और विश्वास उस आपसी रिश्ते की नींव है जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि संविधान के नीति-निदेशक तत्व सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता की बात करते हैं।

राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली : बंधुता-सामुदायिक भावना

सदाचार की नींव पर एक ऐसे समाज का निर्माण संभव है जो कार्य के आधार पर एक रहे। हममें से अधिकांश हमारे कार्य के संवैधानिक अर्थ को नहीं समझ पाते हैं। हमारे कार्य का संवैधानिक अर्थ यह नहीं है कि मैं और मेरा परिवार इतना धन कमा सके जिससे हम अपना जीवनयापन कर सकें या शायद रईस बन सकें। हमारा कार्य व्यावहारिक होना चाहिए और उसमें यह निहित होना चाहिए कि मैं अपने पड़ोसी से किस तरह प्यार करता हूं और उसके लिए काम करता हूं। इससे राष्ट्र की एकता और अखंडता निर्मित होती है। या जैसे कि संविधान के मूलभूत कर्तव्य कहते हैं कि कार्य का उद्धेश्य है उत्कृष्टता की ओर बढऩे की कोशिश…ताकि देश उच्चतर उपलब्धियों को हासिल कर सके। अपने आप से पूछिए, क्या आप अपना काम केवल अपने जीवनयापन के लिए कर रहे हैं या सेवा के लिए। अगर हम सेवा के लिए काम करते हैं तो हम प्रगति-उन्मुख संस्कृति का निर्माण करते हैं। अगर हम केवल जीवनयापन के लिए काम करते हैं तो हमें हमारी तनख्वाह तो मिलती है परंतु हम उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कुछ नहीं करते जिसके लिए हमारे राष्ट्र की स्थापना की गई थी।


अंत में हम प्रगति-उन्मुख संस्कृतियों के शीर्ष भाव तक पहुंच गए हैं : सामुदायिकता की भावना। क्या इसका विस्तार सीमित होता है (अर्थात मैं, मेरा समुदाय) या सार्वभौमिक (अर्थात मैं-मेरा समुदाय-अन्य)? आम्बेडकर इसे अन्य मनुष्यों के प्रति सहानुभूति की भावना कहते हैं। एक शपथ इसे इन शब्दों में बयान करती है कि सभी भारतीय मेरे भाई-बहिन हैं। अनुप्रयोग के स्तर पर इसका अर्थ है कि हम हमारे भाईयों और बहिनों, जो हमारे समुदाय के हिस्से नहीं हैं, के लिए कुछ करें। इसके विपरीत जहां कार्य का अर्थ मात्र हमारे पड़ोसी की सेवा करने के हमारे सामान्य कर्तव्य से है वहीं सामुदायिकता की भावना का अर्थ यह है कि हम हमारे पड़ोसी की सेवा के लिए असाधारण प्रयास करें। हम जो कार्य करते हैं उसके लिए हमें भुगतान मिलता है। दूसरी ओर, सामुदायिकता की भावना त्याग की मांग करती है। परंतु यह बंधुत्व के भाव को प्रोत्साहित करती है और यह करना भारत के हर नागरिक का मूलभूत कर्तव्य है।

संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को जब नए संविधान को अपनी मंजूरी दी थी तब उन्होंने आने वाले कई दशकों के लिए विकास का एजेंडा तय कर दिया था। ऐसा एजेंडा जिसके ठोस क्रियान्वयन की आवश्यकता है। आठ कारक भले ही उद्धेश्यिका के सारतत्व को पूरी तरह परिभाषित न करते हों फिर भी वे उन आठ रणनीतियों की ओर इशारा करते हैं जिन्हें अपनाने से भारत अपनी उच्चतम महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकता है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

केविन ब्रिंकमेन

केविन ब्रिकमेन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट नई दिल्ली में इंटरनेशनल एसोसिएट हैं और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विकास पर अफगानिस्तान, अमेरिका व कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों व शिक्षकों के समक्ष व्याख्यान दिए हैं

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