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खूब बिका दलित-बहुजन साहित्य

प्रगति मैदान के हॉल नंबर बारह को हिन्दी प्रकाशकों के लिए आरक्षित किया गया था। हॉल के गौतम बुक सेंटर में दलित, पिछड़ा वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रही। स्टॉल पर मुरलीधर जगपत की महात्मा फुले : सामाजिक क्रांति के अग्रदूत व फुले द्वारा लिखी गुलामगिरी मिल रही थीं

विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली

चार फरवरी से शुरू होकर दस फरवरी तक चले विश्व पुस्तक मेले के आखिरी दिन लोगों ने जमकर खरीदारी की। मेले में भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। हर पवेलियन व स्टाल पर पुस्तक प्रेमियों का जमघट लगा हुआ था। वे अपनी पसंद की पुस्तकों की तलाश में मशगूल थे। जो सबसे खास बात रही वह थी मेले में दलित साहित्य की खासी मौजूदगी। यों तो लगभग सभी स्टालों पर दलित साहित्य मौजूद था लेकिन कुछ ऐसे स्टाल थे जहां केवल दलित और गौतम बुद्ध से जुड़ी किताबें मिल रही थीं।

प्रगति मैदान के हॉल नंबर बारह को हिन्दी प्रकाशकों के लिए आरक्षित किया गया था। हॉल के गौतम बुक सेंटर में दलित, पिछड़ा वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रही। स्टॉल पर मुरलीधर जगपत की महात्मा फुले : सामाजिक क्रांति के अग्रदूत व फुले द्वारा लिखी गुलामगिरी मिल रही थीं। इसके अलावा दलित इतिहास, दलित कविताएं, आलोचना, वर्ण-जाति एवं दलित उत्पीडऩ एवं ब्राह्मणवाद, मनुवाद जैसे विषयों पर भी पुस्तकें उपलब्ध थीं। भगवानदास की आत्मकथा-मैं भंगी क्यों हूं, दयानंद का कहानी संग्रह सुरंग, गोपाल नारायण आवटे का उपन्यास अपरिचित चेहरे भी ग्राहकों द्वारा पसंद किए जा रहे थे। इसके अलावा ओबीसी क्या है, पिछड़े वर्ग का राजनीतिक आंदोलन, इतिहास के आइने में दलित-पिछड़ा, मान्यवर कांशीराम की चमचा युग की मांग पूरे मेले के दौरान बनी रही।

बहुजन समाज के महान विभूतियों और बौद्ध साहित्य के अग्रणी प्रकाशन के शांति स्वरूप बौद्ध कहते हैं कि हमारा ध्येय सस्ते और रियायती दाम पर मूल्यवान दुर्लभ साहित्य उपलब्ध कराना है। आरोही प्रकाशन के मुकेश मानस का कहना है कि लोगों का अच्छा रिस्पांस मिल रहा है। मुकेश आगे बताते हैं कि हमारी पत्रिका मगहर का इस बार का दलित बचपन पर विशेषांक होने के कारण स्टाल पर जमकर भीड़ लग रही है और यह पत्रिका लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। वहीं लोकमित्र प्रकाशन के आलोक वताते हैं कि दलित साहित्य पर आलोचनाएं अच्छी आ रहीं हैं। इसके साथ-साथ कविता और कहानी भी अच्छी आ रही है।

पुस्तक मेले में खरीदारी करने आए पुनीत का कहना है कि यहां आकर यह एहसास हो रहा है कि सदियों से उपेक्षित समाज के बारे में भी भारी संख्या में उनका साहित्य उपलब्ध होने लगा है। वो कहते हैं कि मैंने दलित साहित्य की दर्जनों किताबें खरीदी हैं। यहां आकर मुझे बेहद खुशी हो रही है और मैं अगली बार भी यहां आऊंगा।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अशोक चौधरी

अशोक चौधरी फारवर्ड प्रेस से बतौर संपादकीय सहयोग संबद्ध रहे हैं।

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