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कांग्रेस का राष्ट्रपति शासन

दरअसल, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। कांग्रेस वर्ष 2006 में निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार को बाहर से समर्थन देकर एक बार अपना हाथ जला चुकी है, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा है। छवि बनाने की जुगत में कांग्रेस दागी चेहरों को सत्ता तक पहुंचाने से परहेज कर रही है

झारखंड में एक बार फिर से राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है और वह भी विधानसभा को भंग किए बगैर। 18 जनवरी को केंद्र द्वारा झारखंड के निर्माण के बाद से राज्य में तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है। बगैर विधानसभा को भंग किए झारखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने से जनता में यही संदेश जा रहा है कि परोक्ष रूप से राज्य में कांग्रेस की सत्ता आ गई है और राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल कांग्रेस अपनी धूमिल छवि को सुधारने में करेगी। कांग्रेस इस दिशा में झामुमो को भी मोहरा बनाने से नहीं चूक रही। दूसरी ओर, राष्ट्रपति शासन के लागू होने से तथा विधानसभा को निलंबित रखने से विपक्ष आक्रोशित हो गया है।

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत तब लगाया जाता है, जब राज्य की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चल रही हो। सवाल यह उठता है कि क्या राष्ट्रपति शासन राज्य में लगाए जाने के बाद भी विधानसभा का कोई अस्तित्व रह जाता है या विधानसभा भंग समझी जाए। संवैधानिक प्रावधानों से इतर उत्तर प्रदेश में जब 1968 में राष्ट्रपति शासन लगाया गया था तब विधानसभा का अस्तित्व राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के दो महीने बाद तक कायम रहा था। बंगाल में जब 1968 में राष्ट्रपति शासन लगा था तो विधानसभा को तत्काल प्रभाव से भंग कर दिया गया था।

कहते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। कांग्रेस की हार्दिक इच्छा है कि ऐसा एक बार फिर से हो। जनवरी 1980 में कांग्रेस जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बहुमत में आई तो नौ राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की सिफारिश इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति से की थी तथा राष्ट्रपति ने 1980 में नौ राज्यों की विधानसभाओं को भंग कर दिया था तथा मई 1980 के चुनाव में कांग्रेस इन नौ में से आठ में बहुमत से सत्ता में आ गई थी। सैद्धांतिक तौर पर राष्ट्रपति शासन के बाद विधानसभा भंग होनी चाहिए, परंतु राजनीतिक परंपरा यह भी रही है कि विधानसभा कुछ माह बाद भी भंग की जा सकती है, जैसा कि 1968 में उत्तर प्रदेश में किया गया था।

 

उपरोक्त संवैधानिक पहलू को ध्यान में रखते हुए औसत बुद्धिमता वाले लोगों को भी यह समझने में समस्या नहीं होगी कि राष्ट्रपति शासन के बाद परोक्ष रूप से कांग्रेस झारखंड में सत्ता में आ गई है। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार है तथा राष्ट्रपति कांग्रेस के कभी रीढ़ हुआ करते थे। यह भी सच है कि कांग्रेस की छवि राज्य में कुछ अच्छी नहीं है, इसलिए राष्ट्रपति शासन के साये में आगामी लोकसभा चुनाव के लिए जमीन तैयार करना कांग्रेस का पहला उद्देश्य होगा न कि राज्य में नई सरकार का गठन, जैसा कि झामुमो आस लगाए बैठा है। अपनी खराब छवि सुधारने का इससे अच्छा मौका शायद कांग्रेस को नहीं मिलेगा। झारखंडवासी अभी तक भूले नहीं हैं कि वर्ष 2006 में कांग्रेस ने अपने यूपीए सहयोगी राजद की मदद से निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के नेतृत्व में सरकार का गठन करा दिया था। वर्ष 2009 व 2010 में भी झारखंड राष्ट्रपति शासन के अधीन रह चुका है। इस बार झामुमो सत्ता में रहते हुए कांग्रेस की शतरंजी चाल का शिकार हो गया और पूर्व उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को माया मिली न राम।

कांग्रेस आलाकमान की नजरें लोकसभा सीटों पर हैं। कांग्रेस की प्राथमिकता नई सरकार नहीं बल्कि झामुमो के साथ लोकसभा का चुनावी गठबंधन है। सूत्रों के अनुसार पहले कांग्रेस व झामुमो के बीच गठबंधन का स्वरूप तय होगा, इसके बाद सरकार पर कांग्रेस सोचेगी। राज्य में लोकसभा की 14 सीटों में से कांग्रेस आठ सीट अपने लिए चाहती है। कांग्रेस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को एकजुट कर अधिक से अधिक सीटें हथियाना चाहती है इसलिए वह राजद से भी सीटों के तालमेल के पक्ष में है। जनवरी के अंत में कुछ घंटों के लिए झारखंड आए केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा कि राज्य में सरकार बनाने में कांग्रेस की कोई दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि झारखंड की जनता के लिए राष्ट्रपति शासन ही बेहतर है। झामुमो ने कांग्रेस के बड़े नेताओं के बयान से आहत होकर यह कहा है कि दो सप्ताह में कांगेस निर्णय करे कि वह स्वयं सरकार बनाएगी या सरकार बनाने के लिए झमुमो को समर्थन देगी।

ऐसा नहीं है कि राज्य में लोकतंत्र का माखौल बनने के लिए सिर्फ राजनीतिक दल ही जिम्मेवार हों, इसके लिए राज्य की जनता भी जिम्मेवार है जो खंडित जनादेश देती आ रही है। राजनेताओं के निजी स्वार्थ की वजह से गठबंधन सरकार राज्य में पूर्णत: विफल रही है। राजनीतिक सुधार राज्य के लिए परम आवश्यक है।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


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राजीव कुमार

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