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फॉरवर्ड विचार, मार्च 2013

कांशीराम, जिन्हें फॉरवर्ड प्रेस का यह खास अंक समर्पित है, ने फुले-अंबेडकर के दिक्सूचक और मानचित्र को अपनाया और भारत की पावर पॉलिटिक्स के छलपूर्ण दलदल में अपना रास्ता बनाना आरंभ किया। वह एक ऐसे बहुजन नेता थे जिन्हें लगातार सिद्धांत और समझौते की रस्सी पर संतुलन बनाते हुए चलते रहना पड़ा

मेरी पत्नी और मैंने हाल ही में स्टीफन स्पीलबर्ग की फिल्म ‘लिंकन’ देखी। ऑस्कर पुरस्कारों के नामांकन की दौड़ में यह 12 नामांकनों के साथ हॉलीवुड की बाकी सब फिल्मों से आगे है। जब तक आप इसे पढ़ेंगे, हम जान चुके होंगे कि इस फिल्म ने वास्तव में कितने ऑस्कर पुरस्कार जीते (बशर्ते आपको ऑस्कर में दिलचस्पी है)। खैर, मेरा वोट इसी फिल्म के हक में है। फिल्म देख कर वापस आते समय मैं यही सोच रहा था कि भारत को भी ऐसे जीवनी-आधारित सिनेमा की जरूरत है जो फुले और आंबेडकर जैसे महान बहुजन व्यक्तित्वों के जीवन के हिस्से परदे पर उतारे।

उपरोक्त फिल्म में लिंकन हमें याद दिलाते हैं कि शासन कला के लिए सिद्धांत और समझौता दोनों ही आवश्यक है। समझौते बिना सिद्धांत लंगड़ा है, सिद्धांत बिना समझौता अँधा है। एक दृश्य में हम देखते हैं कि दो राजनेता एक ही कंपास (कंपस) का इस्तेमाल कर सकते हैं – इस मामले में, गुलामप्रथा का उन्मूलन – लेकिन मंजिल तक वही पहुँचेगा जो वहाँ पहुँचने के लिए मानचित्र का सहारा भी लेता है। इस पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि आधुनिक युग में फुले ने बहुजनों को कंपास दिया – कि अंतत: ब्राह्मणवादी गुलामी को उखाड़ फेंकना है। अंबेडकर ने उस कंपास का इस्तेमाल किया और दलितबहुजनों के उत्पीड़ित यथार्थ और उससे निकलने के मार्ग का मानचित्र बनाना शुरू किया।

कांशीराम, जिन्हें फॉरवर्ड प्रेस का यह खास अंक समर्पित है, ने फुले-अंबेडकर के दिक्सूचक और मानचित्र को अपनाया और भारत की पावर पॉलिटिक्स के छलपूर्ण दलदल में अपना रास्ता बनाना आरंभ किया। वह एक ऐसे बहुजन नेता थे जिन्हें लगातार सिद्धांत और समझौते की रस्सी पर संतुलन बनाते हुए चलते रहना पड़ा। वह इसमें कितने सफल हुए, यह तो प्रिय पाठक आप ही को तय करना है। इसमें आपकी मदद करने के लिए, एफपी दो दृष्टिकोण आपके सामने रख रहा है। पहला प्रोफेसर विवेक कुमार का है जो लंबे अंतराल के बाद एफपी के पन्नों में लौट रहे हैं। अकादिमक नजरिए से लिखा गया उनका सराहनापूर्ण मूल्यांकन मान्यवर कांशीराम को एक महान नेता और संगठन के रूप में पेश करता है। हमारे नियमित योगदानी विशाल मंगलवादी, जो शुरुआती दिनों में कांशीराम के साथ नजदीकी से जुड़े रहे, वह भी एक छोटे अंतराल के बाद लौट रहे हैं। वह प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या ‘साहब’ एक ‘असफल मसीहा’ थे।

इस कांशीराम विशेषांक की परिणति के रूप में हम बहुजन कार्यकर्ताओं की एक टीम पर फोटो-फीचर भी पेश कर रहे हैं। कांशीराम ने जिस मार्ग पर साइकल यात्रा की थी उसी पर साइकल चला कर ये लोग 2,500 किमी की यात्रा कर 15 मार्च को कांशीराम साहब के जन्मस्थल रोपड़, पंजाब, में पहुँच रहे हैं। हमारे नियमित लेखक कँवल भारती एक संकलन की समीक्षा कर रहे हैं जिसमें कांशीराम के चुनिंदा संपादकीय शामिल हैं। विवेक कुमार के लेख से हमें पता चलता है कि कांशीराम ने कई बहुजन पत्र-पत्रिकाओं को आरंभ और बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

मंगलवादी द्वारा इस बात की ओर इशारा करना कि कांशीराम अंतत: ‘असफल’ थे मुख्यत: इस कारण से है: ‘वह भारत की सामाजिक समस्याओं का यथार्थवादी हल नहीं सुझा पाए क्योंकि उन्होने हमारे सामाजिक यथार्थ से उपजे गंभीर दार्शनिक व आध्यात्मिक मुद्दों के बारे में सोचा तक नहीं।’ मुझे इस बात की खासतौर पर खुशी है कि ‘जनविकल्प’ के हमारे नियमित स्तंभकार प्रेमकुमार मणि ने भारतीय समाज में सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार – हमारा और उनका – से उपजे गहरे दार्शनिक और रुहानी प्रश्न उठाने में कोई संकोच नहीं किया। यह विश्लेषण फुले और आंबेडकर द्वारा दिखाए गए मार्ग के अनुरूप ही है जिस पर वे खुद चल – बौद्धिक, नैतिक और, मुझे कहना चाहिए, रुहानी रीति से भी।

जबतक बहुजन – अगुवे और अनुयायी – फुले-आंबेडकर के कंपास और मानचित्र को नहीं अपनाते, तबतक हम उस नियत स्थान पर पहुँचने की आशा नहीं कर सकते जिस ओर हमारा संविधान इशारा करता है, जहाँ सभी भारतवासी स्वतंत्रता, समता और बुंधत्व का अनुभव कर सकते हैं। अगर फुले के कंपास और आंबेडकर के मानचित्र दोनों को ही न अपनाया जाए तो मात्र राजनैतिक सत्ता पर कब्जा करना, चाहे वह सबसे बड़े राज्य की बात हो या फिर केंद्र की, बेमतलब ही रहता है। कंपास और मानचित्र अपनाने के बाद ही हम ‘उस समय’ को प्राप्त कर पाएँगे जिसका सपना फुले ने देखा था और जो उनकी प्रार्थना का विषय भी था।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2013 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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