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फिल्म समीक्षा: फार्मूले से ‘इनकार’ नहीं

दामिनी रेप कांड से उपजे जनाक्रोश के बाद रिलीज हुई या की गई फिल्म 'इनकार' से यौन उत्पीड़न के लेबल में दी गई एक साधारण प्रेम की गोली निकलती है

प्रेम हिंदी फिल्मकारों के लिए एक ऐसा कुआं है, जिसमें वे किसी भी ज्वलंत, संवेदनशील और गंभीर विषय को डुबा कर उसकी जान ले सकते हैं। प्रेम के कुएं का यह विध्वंसक दुरुपयोग न केवल मसाला फिल्मकार करते हैं बल्कि संजीदा कहे जाने वाले फिल्मकार भी उतना ही करते हुए दिख जाते हैं। होना तो यह था कि प्रेम का इस्तेमाल वे समाज की विद्रूपताओं के खिलाफ एक हथियार के रूप में करते, पर हो यह रहा है कि वे प्रेम के हथियार से गंभीर मसलों का गला रेत देते हैं। आप राजनीतिक फिल्म देख रहे हों, आतंकवाद पर फिल्म देख रहे हों, सामाजिक मसले पर फिल्म देख रहे हों, पर आखिर में आपको पता चलता है कि आप तो एक स्टीरियोटाइप प्रेम कहानी देख रहे थे। सुधीर मिश्रा की यौन उत्पीडऩ पर बनी बहुप्रचारित फिल्म इनकार भी इसी अनिवार्य बॉलीवुडिया गति को प्राप्त हुई है।

दामिनी रेप कांड से उपजे जनाक्रोश के बाद रिलीज हुई या की गई फिल्म इनकार से यौन उत्पीड़न के लेबल में दी गई एक साधारण प्रेम की गोली निकलती है। वैसे तो महिलाओं पर यौन हमला कोई नया मसला नहीं है लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ सालों में लड़कियों ने बड़े पैमाने पर घर की दहलीज को अपनी नियति मानने से इनकार कर बाहर की दुनिया में अपनी हिस्सेदारी करनी शुरू की है, यौन उत्पीडन का दायरा काफी फैल गया है। इस बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति का श्रेय बाजार लेता है और कहता है कि उसने लड़कियों को पुराने खांचे से मुक्त किया है। स्त्रियों के इस बंधे हुए लिबरेशन का लाभ भी पुरुषों को मिला है, क्योंकि वे ही बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं और उसे चलाते हैं। सविता सिंह की कविता है-अच्छा है मुक्त हो रही हैं स्त्रियां, मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए।

कहना न होगा कि पुरुषों की इस मानसिकता की वजह से कार्यस्थल स्त्री उत्पीड़न के नए क्षेत्र बन गए हैं। साथ ही यह एक बड़े मुद्दे के रूप में उभरा है। जाहिर है यह विषय एक फिल्मकार के रूप में आपसे ज्यादा होमवर्क, रिसर्च, विजन और संवेदनशील स्त्री की दृष्टि की मांग करता है। वैसे भी इस विषय पर बन रही फिल्म से उम्मीद भी ज्यादा होती है। तब तो और भी ज्यादा जब इसे बनाने वाले ये वो मंजिल तो नहीं, इस रात की सुबह नहीं और हजारों ख्वाहिशें ऐसी जैसी फिल्म बनाने वाले सुधीर मिश्रा हों। पर इस विषय की फिल्मकार से जो अनकही मांगे हैं निर्देशक के रूप में सुधीर मिश्रा उसे पूरा करने में असफल रहते हैं। फिल्म शुरू होती है नायिका के अपने बॉस पर लगाए गए बोल्ड और साहसिक यौन उत्पीड़न के इल्जाम की सुनवाई से। सुनवाई के विभिन्न हर्फों से कहानी की विभिन्न शाखाएं फूटती हैं। विभिन्न कोणों से वह अलग-अलग भी नजर आती है पर नजरिए के फर्क से कहानी बदल सकती है, पलट नहीं सकती, जैसा कि निर्देशक दिखाता है। फिल्मकार असल में अपने नायक के साथ खड़ा नजर आता है। यह फिल्मकार की पुरुष मानसिकता भी है और अपने नायक का बचाव करने और नीचे दिखाने से बचाने की निर्देशकीय मजबूरी भी। हालांकि फिल्मकार अपने तई और हमारे समाज के एक तबके के मुताबिक स्त्रीवादी भी है। लेकिन फिल्मकार के स्त्रीवाद की सीमा भी है। वह वेश्यावृत्ति को वैध करने को महिला अधिकार मानते हैं और इसे पेशे के चुनाव की आजादी से जोड़ कर देखते हैं। फिल्म में नायक सरेआम इतनी बार और इतनी तरह से नायिका का करियर बनाने का श्रेय लेता है कि आपको कोफ़्त हो सकती है। मानो उसने मिट्टी के पुतले में जान फूंकी हो या नायिका की अपनी कोई प्रतिभा ही न हो।


एक स्तर पर यह फिल्म अपनी मातहत लड़की-कर्मचारी या प्रेमिका के कद्दावर होने से आहत हुए पुरुष अहं की कहानी लगती है तो दूसरे स्तर पर अपने बॉस का इस्तेमाल कर आगे बढऩे वाली लड़की की। लड़की चूंकि अपने बॉस के साथ पहले सो चुकी है, इसलिए वह आगे क्या उत्पीडन करेगा के तर्क से कहानी आगे बढ़ती है और हम पाते हैं कि असल में यह एक कारपोरेट हाउस के सत्ता संघर्ष की कहानी है। फिल्म इस निष्कर्ष पर थोड़ा-सा ठहरती हुई आगे बढ़ती है और अंत में आपको पता चलता है कि दो लडऩे वाले लड़के-लड़की की यह लड़ाई असल में प्यार है, के पुराने फार्मूले का मामला है जिसे सूत्रबद्ध करते अभिनेता-निर्माता आमिर ने अपनी फिल्म डेल्ही बेल्ही में ‘आई हेट यू लाइक आई लव यू’ का नाम दे दिया था। इस तरह फिल्म अपने ढलान को पहुंचती है कि फिल्मकार को सहसा याद आता है कि वह नारीवादी है सो वह नायिका को ‘तुम मर्द…’ जैसे दो-एक संवाद दे देता है और कुछेक लड़कियों की कुछेक तालियां बटोरने की कोशिश करता है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है और पुराने-नए सभी किस्म के दर्शक ऊब चुके होते हैं। फिल्म यहां भी खत्म की जा सकती थी पर फिल्मकार को अपने नायक की गरिमा की याद आती है। उसे पीछे कई दफा नायक के स्त्री विरोधी हो जाने को भी संतुलित करना है। सो जब नायिका लगभग हार चुकी होती है तब वह थप्पडऩुमा त्यागपत्र मेल करता है तो एक साथ नायिका और दर्शकों की निगाह में ऊपर उठ जाता है। समाज में ‘महाजनो येन गत: स पंथा’ का मुहावरा जरूर है पर फिल्म का ‘मुहावरा नायक येन गत: स नायिका पंथा’ है। सो नायिका भी नायक के नक्शे-कदम पर निकल पड़ती है। फिल्म के क्लाइमेक्स पर बज रहा गीत संकेत करता है कि दोनों मिलेंगे। वे इसी के लिए बने हैं। यौन उत्पीडऩ का अभियोग तो असल में उनके प्रेम की एक परीक्षा ही थी जो वे थोड़ा अपने मन से और थोड़ा औरों के हाथों इस्तेमाल होकर दे रहे थे। हो गई यौन उत्पीड़न पर आधारित फिल्म की प्रेममय परिणति।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

उमाशंकर सिंह

उमाशंकर सिंह हिंदी के चर्चित युवा कहानीकार हैं। पत्रकारिता करते हुए वे इन दिनों मुंबई में फिल्म लेखन में सक्रिय हैं

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