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औराही हिंगना में मैला आंचल

रेणुजी के परिवार से मिलकर ख़ुशी इस बात की हुई कि परिवार रेणुजी की विरासत को समझ रहा है और उसे संजोने में लगा है। राज्य सरकार भी परिवार की भावनाओं का आदर, बिहारी अस्मिता के निर्माण और महान रचनाकार के सम्मान और धानुक मंडल जाति के वोट बैंक की हिफाजत के मिश्रित भाव में उदार दिख रही है

रेणुजी के गांव जाना संभव हुआ पूर्णिया में प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य अधिवेशन में शिरकत करने के कारण और सम्मेलन की बहसों तथा बहसों से उभरे अंतर्द्वंद्व से एक तात्कालिक नजरिया बना कि कैसे देखा जाए, किस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए औराही हिंगना को। रानीगंज के इलाके, मैला आंचल में मेरीगंज को जहां फणीश्वरनाथ रेणु का पुश्तैनी घर है, जो मैला आंचल और परती परिकथा सहित उनकी कई कहानियों की आधारभूमि है, जहां पंचलैट के टोले हैं, जहां तीसरी कसम के जीवंत पात्र और कस्बाई समाज की उपस्थिति है।

दो दिवसीय सम्मेलन में वक्ताओं में से अधिकांश ने नवसाम्राज्यवाद के शोषण सेक्टर की पहचान, असमानता की जटिलताओं की पहचान के साथ वर्ग-संघर्ष के जरिए समाजवादी व्यवस्था का लक्ष्य लेखकों के सामने रखा। हालांकि वे जाति और जेंडर के सवालों को विमर्श के दायरे में रखकर उन्हें वर्ग चेतना के निर्माण में बाधा बताने से भी नहीं चूके। उन्होंने क्लासिकल मार्क्सवाद की पुनर्प्रस्तुति करते हुए लेखकों के सामने सामजिक-राजनीतिक एजेंडे रखे। इन संबोधनों के बीच सुप्रसिद्ध आलोचक चौथीराम यादव ने जाति और जेंडर आधारित शोषण और उसके खिलाफ संघर्ष को मौजूं बताते हुए आम्बेडकर के द्वारा लोकतान्त्रिक समाज के निर्माण में जाति और जेंडर आधारित असमानता को समाप्त करने की दिशा में की गई पहलों की ऐतिहासिकता पर बात करते हुए, प्रलेस के 75 साल पूरे होने के बाद लेखकों के सामने समय की जटिलताओं की मुक्कमल तस्वीर सामने रखी। चौथीरामजी ने रेणु सहित हिंदी के रचनाकारों की रचनाओं में जातीय और जेंडर आधारित असमानताओं की पहचान और उनके खिलाफ संघर्ष के जरिए वर्ग चेतना के निर्माण की दिशा में पहल की चर्चा की। मेरे लिए इसी चर्चा से लेखक संगठन के अंतद्र्वंद्व की परख से औराही हिंगना को देखने का तात्कालिक एजेंडा बना। मैला आंचल का जाति-वर्ग और जेंडर आधारित मेरे द्वारा किया गया पाठ नया ज्ञानोदय में 2005 में प्रकशित हो चुका था, यानी उपन्यास के माध्यम से इलाके का जाति-वर्ग और जेंडर समाज मेरे सामने स्पष्ट था। साथ ही प्रोफेसर आनंद चक्रवर्ती का पूर्णिया का केस स्टडी जो उन्होंने जाति और वर्ग के अंतर्संबंधों तथा उससे बने अंतद्र्वंद्वों के आलोक में किया था, इपीडब्ल्यू में प्रकाशित हुआ था, भी इस इलाके के संदर्भ में मेरी दृष्टि बना चुका था।

साहित्यकार पूनम सिंह हमारे लिए इस इलाके की गाइड भी थीं। इस दौरान उनके भाई के द्वारा इलाके का राजनीतिक समीकरण स्पष्ट हुआ। यह क्षेत्र बीजेपी का डोमेन है। सारे विधायक और सांसद बीजेपी के ही हैं। यह अररिया और पूर्णिया की मुस्लिम जनसंख्या के कारण हिन्दू मतों के धु्रवीकरण का उदाहरण है। पूनम सिंह का परिवार जमींदार परिवार रहा है। कई हजार एकड़ के मालिकाना के साथ जो 54 के लैंड सेटलमेंट के साथ हजारों का तो नहीं लेकिन सैकड़ों का जमींदार जरूर है। भूमिहार जाति का यह संयुक्त परिवार है। नाश्ता के बाद हम आठ लोग, मेरे और पूनम सिंह के अलावा हिंदी के चर्चित युवा कवि और प्राध्यापक रमेश रितंभर, प्राध्यापिका पुष्पाजी, नवोदित कवयित्री मिनाक्षी मीनल, प्रकाशक अशोक गुप्ता और एक पत्रकार मित्र राजू औराही हिंगना के लिए निकले। नेशनल हाइवे शानदार है। सफर करते हुए रोड और भवनों के माध्यम से विकास के गणित में उलझ जाया जा सकता है, यदि आप विकास के समेकित लक्षणों की पड़ताल न करें तो पूर्णिया में भी बिहार के दूसरे इलाकों की तुलना में अच्छी सड़कों से सुशासन के इस गणित पर यकीन होने की पूरी संभावना है। हालांकि रेणु के गांव तक जाने में लगभग तीन किलोमीटर सड़क पर सुशासन मेहरवान अभी तक नहीं हुआ है।

जलालगढ़ के पास मैला आंचल के मठ का वर्तमान संस्करण दिखा, जिसके नाम पर आज भी सैकड़ों एकड़ जमीन है, वहीं बालदेव के वर्तमान भी उपस्थित थे, जाति से भी यादव नाथो यादव, जिनके जिद्दी अभियान से जलालगढ़ के किले का जीर्णोद्धार करने जा रही है बिहार सरकार। साधारण मैले कपड़े में थैला लटकाए आधुनिक बालदेव यानी नाथो ने किले की जमीन को कब्जामुक्त किया, वह भी अपनी ही जाति के किसी दबंग परिवार के कब्जे से। रेणुजी के गांव तक जाते-जाते कुछ तो रास्ता जानने के लिए और कुछ उत्सुकता से रेणुजी के नाम से गांव को जानना चाहा तो निराशा हाथ लगी लेकिन उनके विधायक बेटे वेणुजी के गांव से लोग रास्ता सहज बता दे रहे थे। घर पर रेणुजी के विधायक बेटे पद्मपराग राय वेणु, अपराजित वेणु और दक्षिणेश्वर प्रसाद राय, पप्पू ने हमारा स्वागत किया। घर में रेणुजी के समय के अभाव नहीं थे, लेकिन पूरा घर, गांव के परिवेश में ग्रामीण जीवन से सराबोर है। रेणुजी की दो बहुएं आम ग्रामीण बहुओं-सी। विधायक वेणु की पत्नी भी। छोटी बहू घर पर नहीं थी। रेणुजी जिस औराही हिंगना के आबो-हवा, कण-कण से प्रेम करते थे, जिस जीवन-शैली के दीवाने थे उनके घर में सब कुछ अक्षुण्ण है, बहुओं ने उन्हें हिफाजत से रखा है। 2012 में मिट्टी के चूल्हे पर पकता खाना और पारंपरिक छीके पर दूध-मक्खन की हाड़ी। रेणुजी फूस से छाये मिट्टी के जिस घर में रहते थे, उसे परिवार ने अपरिवर्तित बनाए रखा है। दीवाल से टंगी है रेणुजी की सुपरिचित तस्वीर। उनकी यादें कमरे में बसी हैं। महसूस सकते हैं पद्मा जी, दूसरी पत्नी का प्रेम, जो मैला आंचल की कमली हैं, आंखें मंूदकर महसूस सकते हैं प्रशांत और कमली का प्रथम चुम्बन। रेणुजी ने भागलपुर जेल में सुनाई थी कविता आगा खां के राजमहल में। पंक्ति थी-प्रथम चुम्बन का वह आस्वाद, गांधी-कस्तूरबा का चुम्बन, कमली-प्रशांत का चुम्बन, रेणु-पद्मा का चुम्बन।

रेणुजी के गांव की आबादी का शत-प्रतिशत हिस्सा धानुक मंडल जाति का है, जिससे खुद रेणुजी आते थे। पंचायत की 11 हजार आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा धानुक मंडल का है जो अति पिछड़ी जाति है। शेष 20-20 प्रतिशत आबादी मुस्लिम और महादलित है। रेणुजी की खुद की पुश्तैनी खेती 22 सौ बीघे की थी, जो अब सीलिंग के बाद कुछ सैकड़ों में सिमट गई है। इस विशाल भूखंड के मालिकाना के बावजूद रेणुजी के आर्थिक संघर्ष छिपे नहीं हैं। कारण परती परीकथा, कोशी की बंजर भूमि, पटसन की खेती, वह भी अनिश्चित। हालांकि खेत के कुछ भाग में रेणुजी के रहते यानी 70 के दशक में धान की खेती संभव होने लगी थी। मैला आंचल का समाजशास्त्री-लेखक इलाके सहित पूरे बिहार की भविष्य की पटकथा लिखता है। कालीचरण अपनी नियति वामपंथी आंदोलनों के कमजोर पडऩे के साथ प्राप्त करता गया। बालदेव की जाति, जो तब उभर रही थी क्षेत्र-प्रदेश की राजनीति में वर्चस्व के साथ सामने आई पास के मधेपुरा से लेकर पटने तक।

जातियां उपन्यास के कथा-काल की हकीकत थीं और आज की भी जातीय अस्मिता बनने की अंतर्कथाओं से पटा पड़ा है। मैला आंचल की जातीय अस्मिता आज की राजनीतिक हकीकत है। आलोचक वीरेन्द्र यादव अपनी दृष्टि में सही हैं, रेणुजी को राज्य सरकार से मिलता सम्मान सिर्फ महान रचनाकार को मिलता सम्मान नहीं है, धानुक मंडल की जनसांख्यिकी को साधने की कोशिश भी है।

कुछ घंटे (जो हमने बिताये औराही हिंगना में) से अधिक लगेंगे मैला आंचल की भूमि के वर्तमान को समझने में और एक मुक्कमल शोध का विषय हो सकता है यह। लेकिन इस छोटी सी अवधि में दर्ज संदर्भों के साथ दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज भी जाति और जेंडर के सवालों को हल किए बिना वर्ग चेतना नामुमकिन है। रेणु के समय में तो थी ही। चौथीरामजी की स्थापनाओं के साथ ही प्रलेस को एजेंडे तय करने चाहिए लेखकों के लिए, संगठन के लिए।

हां, पूर्णिया से पटना तक रेणुजी के परिवार से मिलकर ख़ुशी इस बात की हुई कि परिवार रेणुजी की विरासत को समझ रहा है और उसे संजोने में लगा है। राज्य सरकार भी परिवार की भावनाओं के आदर, बिहारी अस्मिता के निर्माण, महान रचनाकार के सम्मान और धानुक मंडल जाति के वोट वैंक की हिफाजत के मिश्रित भाव में उदार दिख रही है। औराही हिंगना में रेणु स्मृति भवन के लिए एक करोड़ रुपये की व्यवस्था हो चुकी है। रेणु स्मृति भवन का खांचा रेणुजी के छोटे बेटे ने खींच रखा है, जिसमें लाइब्रेरी होगी, सेमिनार हॉल होगा, गेस्ट रूम होंगे और डिजिटल संग्रहालय होगा।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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