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फारवर्ड विचार,अप्रैल 2013

अपनी चार वर्षीय परिपक्वता के साथ हम इन दो महानतम आधुनिक बहुजन प्रतिपालकों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर रहे हैं। अगर हमारे दलित भाई और बहिनें यह जानना चाहते हैं कि इस बार भी हमारे मुखपृष्ठ पर केवल फूले क्यों है तो मेरे पास उनके लिए उत्तर है। जैसा कि मैंने प्रथम वार्षिकी में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा था, फूले आधुनिक बहुजन साहित्य के पितामह हैं

पिछले वर्ष फारवर्ड प्रेस की तीसरी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में पहली बहुजन साहित्य वार्षिकी (अप्रैल 2012) को अपने हाथों में लेकर, बामसेफ के अध्यक्ष वामन मेश्राम ने हमें चुनौती दी थी कि अगली बार हम इससे कहीं मोटी वार्षिकी प्रकाशित करके दिखाएं, चाहे उसकी कीमत हमें कुछ ज्यादा ही क्यों न रखनी पड़े। अच्छी खबर यह है कि फारवर्ड प्रेस की चौथी वर्षगांठ हम पिछली बार से मोटी (50 प्रतिशत) बहुजन साहित्य वार्षिकी के प्रकाशन के साथ मना रहे हैं और हमने इसकी कीमत भी अपरिवर्तित रखी है!

पिछली वार्षिकी के पीछे प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन की मेहनत थी। इस बार, उनके निर्देशन में सहायक संपादक (हिन्दी) पंकज चौधरी ने अधिकांश संपादकीय कार्य किया है। वे पहले एक कवि हैं और बाद में एक पत्रकार। इस विशेषांक को तैयार करने में उनकी मदद की साहित्यिक तबियत के पत्रकार व संपादक इम्तियाज अहमद आजाद ने। वार्षिकी में जिन जाने-माने और अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध लेखकों ने बहुजन साहित्य की अवधारणा के विरुद्ध और उसके समर्थन में अपने विचार व्यक्त किए हैं, उनकी संख्या इतनी अधिक है कि उन सभी के प्रति आभार प्रदर्शन करना यहां संभव नहीं है। हां, मैं एक आश्वासन आपको अवश्य दे सकता हूं और वह यह कि वार्षिकी के सभी लेख पठनीय व पुन: पठनीय हैं। इसलिए, इस वार्षिकी को पिछली वार्षिकी-अगर उसकी प्रति आपके पास उपलब्ध हों तो-के साथ जोड़कर एक जिल्द बना लें। अगर आपके पास पिछली वार्षिकी उपलब्ध नहीं है तो हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे पास भी इसकी प्रतियां नहीं बची हैं। और हमें उम्मीद है कि यह वार्षिकी, पिछली से दोगुनी बिकेगी।

जो सुधिजन बहुजन साहित्य की अवधारणा पर पूरे विमर्श को एक किताब के रूप में संकलित करना चाहते हैं, उन्हें हम यह खुशखबरी सुनाना चाहेंगे कि हम इसे अगले साल के पहले तक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करेंगे-पहले हिन्दी में व फिर अंग्रेजी में। जहां तक फारवर्ड प्रेस के अंग्रेजी पाठकों का प्रश्न है, हम उनसे क्षमा चाहेंगे। इस वार्षिकी की 80 प्रतिशत सामग्री केवल हिन्दी में है, क्योंकि पहले तो हमारे अधिकांश पाठक हिन्दी भाषी हैं और दूसरे, साहित्यिक विषयों पर लेखन का अनुवाद अपेक्षाकृत दुरूह होता है।

अपनी चार वर्षीय परिपक्वता के साथ हम इन दो महानतम आधुनिक बहुजन प्रतिपालकों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर रहे हैं। अगर हमारे दलित भाई और बहिनें यह जानना चाहते हैं कि इस बार भी हमारे मुखपृष्ठ पर केवल फूले क्यों है तो मेरे पास उनके लिए उत्तर है। जैसा कि मैंने प्रथम वार्षिकी में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा था, फूले आधुनिक बहुजन साहित्य के पितामह हैं। वे स्वयं साहित्य रचियता थे। मैं गलत हो सकता हूं परंतु मेरा यह मानना है कि यद्यपि बाबासाहब दलित लेखकों की कई पीढिय़ों के प्रेरणास्त्रोत थे तथापि वे स्वयं साहित्यिक लेखक नहीं थे। नि:संदेह, चिंतक के तौर पर वे फूले से कहीं महान थे, यद्यपि वे फूले के प्रति अपने ऋण को स्वीकार करने में तनिक भी गुरेज नहीं करते।

कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य कलाओं की तरह, साहित्य, मूलत:, अस्मिता (सवर्ण, दलित, ओबीसी / शूद्र, आदिवासी या बहुजन) से संबंधित नहीं है और ना ही वह विचारधारा (माक्र्सवादी, ब्राह्मणवादी, गैर-ब्राह्मणवादी, आम्बेडकरवादी) आदि के बारे में है। साहित्य का संबंध सत्य और सौन्दर्य से है। साहित्य, सुरुचिपूर्ण ढंग़ से अपनी बात कहने की कला है। इसलिए, सभी छंद कविता नहीं होते और सभी गद्य, साहित्य-जिस तरह यह लेखन साहित्य नहीं है !

मुखपृष्ठ पर प्रकाशित फूले के चित्र के बारे में कुछ बताना आवश्यक है। यह चित्र फूले की पहली साहित्यिक रचना, जो कि ‘तृतीय रत्न’ या ‘तृतीय नेत्र’ नाम का मराठी नाटक था, से प्रेरित है। व्यक्तिगत तौर पर मैं इस नाटक के शीर्षक बतौर ”तृतीय नयन” को तरजीह देना चाहूंगा। इससे शिव के तेजस्वी तीसरे नेत्र की छवि उभरती है जो अज्ञानता का नाश करती है और जो उस ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है जो शिक्षा के साथ आता है। और यही इस नाटक की मूलात्मा है। शिव की मूर्ति से लिए गए इस बिम्ब से फूले की छवि एक ऐसे शैव की बनती है, जो बहुजन साहित्य और संस्कृति के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है और, जो रूद्र की तरह ब्राह्मणवादी अतीत को नष्ट कर एक नए बहुजन-बलिजन साहित्य और संस्कृति के जन्म के लिए जगह बनाएगा।

अगले महीने तक… सत्य से आपका

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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