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नुक्ता

दीवार पर लटकी हुई गांधी की तस्वीर गर्द के कारण धुंधली हो गई थी और लग रहा था कि गांधी का बदन अब नंगा नहीं रहा है। संदीप मील की कहानी

कहानी

बड़ के पीछे वाले हिस्से की तरफ जो एक पुराना सा राजशाही महल दिख रहा है, उसके सामने बोर्ड पर ‘तहसील कार्यालय’ लिखा हुआ है। 1947 के बाद कहा जाता है कि भारत नाम का एक देश आजाद हुआ था और उसी का प्रशासन चलाने के लिए उस देश में जनता के कई सेवक ऐसे कार्यालयों में जनसेवा का कार्य वर्ण-व्यवस्था के आधार पर करते हैं। कार्यालय के अंदर घुसते ही बांयी ओर एक कमरा था, जिस पर एक काली प्लेट पर ‘तहसीलदार’ लिखकर लटकाई गई थी। इस ‘तहसीलदार’ शब्द का अर्थ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गांव में उन नोटों से लगाया जाता है जिसको भारत सरकार की मान्यता प्राप्त है। कमरे के अंदर एक कुर्सी रखी हुई थी जो रजवाड़ों के राजसिंहासन से तुलनात्मक रूप से किसी भी स्तर पर कम नहीं थी, मगर कुर्सी का एक टूटा हुआ हत्था बता रहा था कि अब राजतंत्र की जगह लोकतंत्र नाम की चिडिय़ा ने ले ली है जो एक टूटे हुए पंख के बावजूद भी उडऩे की कोशिश कर रही है। दीवार पर लटकी हुई गांधी की तस्वीर गर्द के कारण धुंधली हो गई थी और लग रहा था कि गांधी का बदन अब नंगा नहीं रहा है।

पिछले दो-तीन साल से इस इलाके में एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है। जितने भी सरकारी महकमे थे उनमें एक विशेष मौसम आया जिसके कारण तबादलों के द्वारा यहां पर शर्मा, मिश्रा, त्रिपाठी, पांडे आदि लोगों की भरमार हो गई है। इस मौसम का एक खास कारण लोग बताते हैं कि यहां के विधायक जोशी हैं,जिनकी पहुंच मौसम विभाग से लेकर मुख्यमंत्री के घर पूजा-पाठ कराने तक है। इसी मौसमी हलचल के दौरान तहसीलदार मनोहर चोटिया का तबादला इस शहर में हुआ है। इनकी चोटी घोड़ी के पूंछ से भी लम्बी है, जिनके कारण ब्राह्मण इन्हें बुद्धिमान मानते हैं जो किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत के सामने पल भर टिकने की औकात नहीं रखता।

मनोहर जोशी के दैनिक क्रियाकर्म बड़े ही सुव्यवस्थित थे, अगर कोई कुएं के बीच में लटक जाए और रस्सी टूटने वाली हों तो भी वह पूजा-पाठ से नहीं उठेंगे। माथे पर तीन तिलक लगाकर जब जोशी रिश्वत बटोरते हैं तो चेले-चपाटे उनकी मानसरोवर की यात्रा का प्लान और बजट बखानते रहते हैं। वे आजकल बहुत उदास रहते हैं, जिसकी वजह उनका दोस्त घनश्याम है। वैसे तो घनश्याम को हुआ कुछ भी नही है, वह एकदम तंदुरुस्त है। गांव में पूजा-पाठ का धंधा ठीक-ठाक चल रहा है, हर दिन कोई काम धाम मिल जाता, जिससे उनके घर की गाड़ी बिना तेल के गुड़ जाती है।

दरअसल, जोशी की बीमारी यह थी कि घनश्याम का इकलौता लड़का पंकज इस बार तीसरी बार मैट्रिक की परीक्षा दी और उसमें पास हो गया। अब इस वाकयात में न तो पंकज की गलती थी और न ही घनश्याम की। असल समस्या यह थी कि सोनियोग्राफी की मशीन ने उस इलाके में लड़कियों की पैदाइश पर पाबंदी लगा दी थी और इसी कारण लिंग असंतुलन इतना बढ़ गया था कि खुद घनश्याम के गांव में 117 जवान लड़कों का टोला कुत्ते मारता घूमता है। पंकज की शादी करने के लिए भी घनश्याम ने तमाम रिश्तेदारों और घर वालों को खंगाल लिया, लेकिन जब कहीं भी मामला सेट नहीं हुआ तो मनोहर जोशी के सर पर डाल दिया।

घनश्याम- ‘अब आप ही कुछ कर सकते हैं, आपकी भाभी तो इसी चिंता में मरी जा रही है।’

जब सवाल भाभी का आया तो अपनी चोटी की गांठ खोलकर जोशी बोले, ‘जब तक तेरे बेटे के हाथ पीले नहीं करवा देता तब तक इस चोटी को खुली की खुली…।’

एक वह दिन था और एक आज, जोशी का हाजमा इतना खराब हो गया कि हर सुबह पूजा के बाद वे भगवान से एक लड़की मांगते (अपने लिए नहीं पंकज के लिए)। अफसोस की बात है कि 3 महीने तक भगवान ने जोशी की दरख्वास्त पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जोशी को पूरा यकीन था कि एक दिन जरूर कोई लड़की उसकी झोली में आएगी और वे उसे सही-सलामत पंकज के हवाले कर देगा।

मुझे पूरा याद है कि मई का महीना था, शायद सुबह के 7.30 बजे होंगे, जोशी जोश के साथ पूजा से उठे और सीधे घनश्याम के घर गए। किसी को कुछ पता भी नहीं और जोशी को झोली में वजन लगने लगा, हां! आज उन्हें एक नुक्ता मिल गया था।

तहसील कार्यालय में क्लर्क की एक पोस्ट कई दिनों से खाली पड़ी थी और आज पूजा के दौरान जोशी को लगा कि उस पोस्ट पर पंकज को होना चाहिए। ले-देकर एक ही दिक्कत थी कि सरकारी नियमों के अनुसार वह पोस्ट रिजर्वेशन के अंडर आती थी और यहीं पर घनश्याम का ब्राह्मण होना उसे बुरा लगा। उन्हें अपनी चोटी और बुद्धिमता पर इतना भरोसा था कि कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे। फिर अगर पंकज को नौकरी मिल जाए तो वह एक क्या पांच-पांच शादी करवा देगा।

‘कोई तो उपाय निकालना ही पड़ेगा’ इसी बड़बड़ाहट के साथ वह अपने चैम्बर से बरामदे में सात चक्कर लगा चुके थे। एक के बाद एक आइडिया उनके दिमाग में आता और वह उन्हें तुरंत रिजेक्ट कर देता, क्योंकि आज उसे किसी धांसू आइडिया की जरूरत थी जो उस पोस्ट को पंकज को दे सके। जब दिमाग की औजार-पाती काम करना बंद कर दिया तो चैम्बर में कुर्सी पर आकर बैठ गया। चपरासी से पानी का गिलास मंगवाकर पीया और ठंडे दिमाग से सोचने लगा। चपरासी के बाहर जाते ही उसने एक मोटी-सी मां की गाली सरकार को दी, जो सम्भवत: सरकार की आरक्षण नीति पर एक बहुत बड़ा हमला थी।

‘सरकार’ इस शब्द का ख्याल आते ही जोशी ने सोचना शुरू कर दिया कि आखिर सरकार को देखा किसने है? अब उसने दूसरा नुक्ता भी पकड़ लिया था, तुरंत चपरासी को बुलाकर एक खाली जाति प्रमाण पत्र का फार्म मंगवाया, बेचारा चपरासी दौड़ा-दौड़ा गया और 5 रुपये का एक फार्म लेकर आया। जोशी चपरासी से बोले, ‘नाम और पते को छोड़कर सारा फार्म भरवा लो और मेरा नाम लेकर बाबू से रजिस्टर में चढ़वाकर ले आओ।’

अब तहसीलदार का हुक्म हो तो बाबू-साबू की क्या औकात? तीन मिनट में बिना नाम-पते का जाति प्रमाण पत्र बनकर तैयार हो गया, जिसे खुद जोशी कई दिनों तक लटकाए रखता है।

चपरासी प्रमाण पत्र को तहसीलदार की टेबल पर रखकर चला गया, क्योंकि साहब गुस्सलखाने में कसरत कर रहे थे। लाल रूमाल से हाथ पोंछकर जब वह बाहर आया तो गांधी छाप चश्मे की नजर प्रमाण पत्र पर पड़ी, उसे पश्चाताप तो बहुत हुआ मगर पल भर बाद उन्हें अपनी बौद्धिकता का अहसास हुआ और नाम की जगह ‘पंकज पुत्र घनश्याम’ भरकर चोटी पर हाथ फेरा। फिर 5 बजे तक का समय बहुत ही मुश्किल से गुजरा, जिसमें उन्हें कई बार घनश्याम की बीवी की याद आयी।

हल्की-हल्की हवा चल रही थी। रेत की रफ्तार बता रही थी कि वह कभी भी आंधी का रूप ले सकती है। लेकिन आज आंधी तो क्या तूफान भी जोशी को घनश्याम के घर जाने से नहीं रोक सकते थे। वह पंकज की नौकरी की खुशखबरी देकर भाभी के हाथ से लडडू खाना चाहता था, जो उनकी सदियों पुरानी इच्छा थी। जोशी तेज कदमों से घनश्याम के घर पहुंचे तो घर पर केवल तीन ही लोग थे मतलब कोई बाहर वाला नहीं था।

‘नमस्ते, भाभी’। अदांज ही खुशनुमा था ‘नमस्ते।’ देवकी वैसे भी जोशी से ज्यादा बात नहीं करती थी, क्योंकि उसने सुन रखा था कि पत्नी के तलाक देने के बाद वह इधर-उधर हाथ मार लिया करता है।

घनश्याम अंदर से कुर्सी ले आया ‘बैठिए।’

कुर्सी पर बैठकर वह कुछ देर चुप रहा फिर बोला ‘आज भाभी उदास-उदास क्यों हैं?’

देवकी की बजाय जवाब घनश्याम ने दिया ‘अब क्या बताए, पंकज की शादी को लेकर चिंता रहती है, किसी औरत ने कुछ बोल दिया होगा।’

जोशी ने मामले की गंभीरता को समझते हुए कहा कि, ‘बस। इतनी सी बात की खातिर भाभी के गोरे-गोरे गालों पर खिंचवा आ गया। अब भाई! मैं तो नौकरी दिला सकता था सो दिला दी, कल से भेज देना पंकज को ड्यूटी पर।’

इसके बाद घर व गांव में पंकज को लेकर जो प्रशंसा के पुल बांधे गए उनको मैं कहानी में नहीं लिख सकता, क्योंकि उस प्रशंसा में मुझे हमेशा एक बनावट नजर आती है।

अब सब कुछ बदल गया था, पंकज की शादी बड़ी धूमधाम से हुई और जोशी ने भी चोटी बांधना शुरू कर दिया था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दिन अचानक लोगों ने देखा कि जोशी की चोटी उखड़ी हुई है।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

संदीप मील

संदीप मील चर्चित युवा कहानीकार हैं

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