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आसपास की दूरियां

अखिलेश शर्मा ने प्रमोद बाबू से पूछा, ‘लेवी’ का मतलब रंगदारी! गुंडई! ये सब लालसेना वाले हैं। बेरोजगार हैं। चमरटोली, दुसाधटोली और मुसहरटोली के हैं। पहले रात में वसूलते थे। अब तो दिन-दुपहरिया बस रोककर वसूल रहे हैं। रामधारी सिंह दिवाकर के उपन्यास का अंश

उपन्यास अंश

सरायगंज बस-पड़ाव से जिला मुख्यालय अररिया पहुंचने में दो-ढाई घंटे लगते हैं। रेलगाड़ी भी है, लेकिन लोग प्राय: बस को ही सुविधाजनक मानते हैं। एक तो सरायगंज रेलवे स्टेशन एक किलोमीटर दूर है, फिर रेलगाड़ी भी अक्सर लेट आती है। गाड़ी का समय भी कोर्ट-कचहरी करने वालों के लिए बेतुका है। सरायगंज बस अड्डे से दोपहर से पहले तीन बसें खुलती हैं जो अररिया-पूर्णियां होते कटिहार तक जाती है।

आवागमन की सुविधाओं ने सरायगंज के लोगों को आलसी बना दिया है। यहां का मजदूर भी अब एक दो किलोमीटर पैदल चलना नहीं चाहता। कई ऑटो रिक्शे हैं गांव के टोलों के लिए। मिनी बसें है। आसपास के गांवों के लिए। कोई क्यों चले पैदल जब इतनी सुविधाएं उपलब्ध हैं?

अररिया जाने के लिए रेलगाड़ी और बस के रास्ते भिन्न हैं। बसें बभनटोली के रास्ते से जाती हैं। इसी के पास पहले के समय का मिडिल स्कूल है जिस स्कूल से प्रमोद बाबू ने मिडिल पास किया। पूरे सरायगंज में एकमात्र यही स्कूल था। स्कूल सरायगंज बाजार से लगभग एक किलोमीटर पूरब-दक्षिण कोने में बभनटोली के पास है। प्रमोद बाबू को इस रास्ते से गुजरना पुराने दिनों से गुजरने-जैसा महसूस होता है।

टिन पर खपरैल की छाजन आज भी है। लकडी़ के वही खंभे हैं लंबे से बरामदे पर। टिन की छत को मजबूती से बांधे रहने वाली लोहे की मोटे रोमन लिपि के ‘एल’ आकार की छड़ें भी शायद पहले वाली हैं। बस जब स्कूल के पास से गुजरती है, प्रमोद बाबू बचपन के दिनों को याद करने लगते हैं। ‘एल’ आकार की इन छड़ों से लटककर झूला झूलने में कितना आनंद आता था। उधर हेड पंडित नित्यानंद झा की कड़क आवाज आती-रे कौन लटककर झूल रहा है?

बस दस बजे खुली। प्रमोद बाबू के साथ छोटे भाई विनोदजी और ब्रह्मर्षि टोले के अखिलेश शर्मा। दो से तीन बजे तक डीडीसी आम लोगों से मिलते हैं। इसी समय को ध्यान में रखकर तीनों बस में सवार हुए कि गर्मी के दिन हैं, पहले पहुंचकर थोड़ा आराम भी कर लेंगे। कागजात तो थे नहीं, ले-देकर एक आवेदन पत्र था जिसे प्रमोद बाबू ने हिंदी में पूरी तैयारी के साथ तैयार किया था। मिडिल स्कूल से कुछ पहले शिरीष, इमली, जामुन और सेमल के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के साये में एक बड़ा सा पक्का कुआं था पहले। कुएं के पास का दायरा गांव-गंवई के चौराहे जैसा था।

बगल के कस्बे फारबिसगंज तक दूध ले जाने वाले दुधिये इसी चौक पर आपस मे मिलते थे। यहीं से बस पकड़ते या साइकिल से जाते थे। सीमेंट से बनी चिकनी और साफ–सुथरी कुएं की जगत बैठने या लेटने के काम आती थी। चाय-पान-बीड़ी-सिगरेट की एक छोटी सी दुकान थी यहां। अब तो यह अच्छा-खासा चौक है। आठ-दस छोटी-छोटी दुकानें हैं।

दुधिया चौक से बस आगे बढी ही थी कि निर्जन जैसी जगह में बस अचानक रुक गई। क्या बात है ?…..बस में सवार लोग इधर-उधर देखने लगे। पता चला, चार पांच लड़कों ने बस को रोक रखा है। ड्राइवर की हिम्मत नहीं थी कि बस को आगे ले जाता। लड़के बस ड्राइवर से रुपये मांग रहे थे। पता चला ‘लेवी’ वसूल रहे हैं।

‘लेवी’? प्रमोद बाबू को पांच दिन पहले की घटना याद आ गई। ऐसे ही लड़के थे जो लेवी मांगने आए थे। अखिलेश शर्मा ने प्रमोद बाबू से पूछा, ‘लेवी’ का मतलब रंगदारी! गुंडई! ये सब लालसेना वाले हैं। बेरोजगार हैं। चमरटोली, दुसाधटोली और मुसहरटोली के हैं। पहले रात में वसूलते थे। अब तो दिन-दुपहरिया बस रोककर वसूल रहे हैं।’ विनोदजी ने कहा, ‘भैया, ये ही लफुए-लफंगे आपसे गए होंगे लेवी मांगने। खैर मनाइए कि ये बस के अंदर आकर सवारियों से लेवी नहीं मांग रहे हैं।’

सवारियों से भी वसूलते हैं क्या?’

‘वसूलते हैं नहीं, जबरन वसूलते हैं। नहीं देने पर छीन-झपट करते हैं। ऐसा नहीं है कि सब इसी गांव के हैं। बाहर के भी होंगे।’

एक लड़का बस के भीतरी दरवाजे पर खड़ा था। उसके एक हाथ में गमछा था, जिसमें कोई चीज लिपटी हुई थी। उसने ऐलान-सा किया, ‘आप लोग बस से उतरिए और पैदल जाइए। बस नहीं जाएगी।’ प्रमोद बाबू विनोदजी के साथ बस से नीचे उतरे यह देखने कि माजरा क्या है! क्या सच में बस नहीं जाएगी! विनोदजी एक लड़के को पहचान रहे थे। हट्ठा-कट्ठा, काले रंग का युवक। उन्होंने उस परिचित लड़के को बुलाया। लड़का ड्राइवर को घेरे खड़ा था। लड़के ने धृष्टता से जवाब दिया, ‘क्या बात है? कह दिया न, आपलोग पैदल जाइए? बस नहीं जाएगी।’ विनोदजी खुशामदी मुद्रा में आ गए, अरे सुनो भी।’ लड़का बदतमीजी से मुंह टेढा करके बोला,’ क्या सुनूं …. आपको जानता नहीं हूं क्या! आपलोग सामंती मिजाज के अत्याचारी हैं। जानता नहीं हूं क्या!’ विनोदजी हतप्रभ। परिचित समझकर बुलाया तो ऐसा जवाब! प्रमोद बाबू से रहा नहीं गया। शिक्षक का संस्कार। बोले,’ इस तरह क्यों बोल रहे हो?’ लड़का कुछ ज्यादा ही बदतमीजी पर उतर आया,’ चुप रहिए। आपको भी जानता हूं। बाहर से आकर यहां महंत बनते हैं?’ विनोदजी परिचित लड़के को असहाय-जैसी आंखों से देखने लगे। लाचारी थी। बोले,’ किसी और दिन लेवी वसूलना रासलाल। हम तीन हैं। डीडीसी से मिलना है। अपने ही गांव का सार्वजनिक काम है।’

‘आप चुप रहिएगा या नहीं?’ रासलाल जिस लड़के को कहा गया था, उसी की कर्कश आवाज थी।

प्रमोद बाबू के लिए अपने ही गांव की सीमा में लड़कों की ऐसी उदंडता कल्पनातीत थी। वे बस में अपनी सीट पर आकर बैठ गए। लड़कों ने कोई हल्ला-फसाद नहीं किया। पूरी शांति बनी रही जैसी शांति कभी किसी एकांत में बस के खराब हो जाने पर देखी जाती है। बस कंडक्टर ने अब तक जितना भाड़ा यात्रियों से वसूला था, वह सब कंडक्टर से छीनकर एक लड़के ने पैंट की जेब में रख लिया। ड्राइवर से उसकी घड़ी और मोबाइल फोन मांगे। ड्राइवर ने बिना किसी विरोध के दोनों चीजें लड़के के हाथ में दे दीं।

डेढ़ घंटे बाद बस खुली। प्रमोद बाबू ने घड़ी में समय देखा-ग्यारह चालीस। अखिलेशजी बोले,’ अब डीडीसी से शायद मुलाकात नहीं हो पाएगी।’ बस के सारे यात्री मनहूस बने हुए थे। लोकल बस थी और यात्री यहीं के थे-कुछ इस गांव के, कुछ उस गांव के। इन यात्रियों के लिए यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी, ऐसा प्रमोद बाबू को लगा। कोई अव्यवस्था धीरे-धीरे कैसे व्यवस्था का ही अंग हो जाती है, यह प्रमोद बाबू को आज दिखाई पड़ा। उन्होंने विनोदजी से पूछा,’ तुमने नाम लेकर जिस लड़के को बुलाया, कौन था वह?” जी, रासलाल नाम था उसका। रासलाल पासवान।’ प्रमोद बाबू चलती बस के बाहर तड़बन्ना देख रहे थे। सुरसर नदी कब की पीछे छूट गई थी। कुछ क्षण बाहर के दृश्य में डूबे रहे। याद आया, उन्होंने विनोदजी से कुछ पूछा था,’ हां, रासलाल? जानते हो तुम?’

‘हां भैया, रासलाल को ही क्यों इसकी पिछली तीन पीढियों को जानता हूं। पिछली पीढी को आप भी जानते होंगे। नसीब लाल पासवान का पोता है रासलाल।’

‘नसीब लाल चाचा का पोता? प्रमोद बाबू जो टांगें फैलाकर बैठे थे, अचानक टांगों को सीधा कर लिया,’ आएं! नसीब लाल चाचा का पोता? इतना बदतमीज! उसी ने कहा कि आपलोग सामंती मिजाज के हैं? मुझसे उदंड की तरह बात की! वही? नसीब लाल चाचा का पोता! …………

ऐसा लगा जैसे प्रमोद बाबू सोये हुए थे अब तक, अकस्मात जग गए हों।….’ रासलाल पासवान का पिता सिरकिसुन पासवान! याद है आपको भैया? मेरे साथ बभनटोली के मिडिल स्कूल में पढता था? याद है आपको? याद है वह घटना?’

प्रमोद बाबू को सब कुछ याद आ गया। जिंदगी की कुछ बहुत छोटी-छोटी बातें बड़ी-बड़ी घटनाओं से भी ज्यादा याद रहती हैं। वे साभिप्राय मुस्कराते हुए विनोदजी को देखने लगे। मुस्कराते हुए पूछा, ‘विनोद याद है तुम्हें! इसी रासलाल के पिता सिरकिसुन पासवान को लेकर बाबूजी ने तुम्हारी पिटाई की थी? याद है?’ विनोदजी भेदभरी हंसी हंसने लगे। अखिलेश शर्मा जो बगल में बैठे थे, कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि दोनों भाई क्या बातचीत कर रहे हैं। उनसे नहीं रहा गया तो पूछ बैठे, ‘क्या बात है प्रमोद बाबू?’ प्रमोद बाबू स्थिति की विडम्बना पर सोचकर हंसने लगे। अखिलेश शर्मा की तरफ  देखकर हंसते हुए बोले, ‘अब इस चलती बस में क्या कहूं शर्माजी! बाद में बताऊंगा।’

प्रमोद बाबू बस के बाहर के कुछ परिचित कुछ अपरिचित दृश्यों को देखते हुए याद करने लगे उस घटना को। विनोद इसी बभनटोली के मिडिल स्कूल में पढता था। उस दिन शाम में स्कूल से गुस्से में तमतमाया हुआ घर आया था। प्रमोद बाबू उस समय घर में ही थे।

….दुसाधटोली के नसीब लाल पासवान और बाबूजी में दोस्ती का रिश्ता था। इसी रिश्ते के कारण प्रमोद बाबू नसीब लाल पासवान को चाचा कहते थे। मुश्किल दिनों में नसीब लाल चाचा ने बाबूजी का साथ दिया था। किसी मर्डर केस में दुश्मनी के कारण अपने ही गोतिया-दियाद ने बाबूजी को फंसा दिया था। वारंट निकल गया था बाबूजी की गिरफ्तारी का। नसीब लाल चाचा ने कुछ दिन अपने पड़ोसी के घर में बाबूजी को छिपाकर रखा था। बाद में उन्होंने बाबूजी को रातोंरात अपनी ससुराल भेज दिया था। दो महीने बाबूजी फरार रहे। हाईकोर्ट से जमानत मिली। मुकदमा चला। परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी हो गई थी कि खाने पर भी आफत थी। नसीब लाल चाचा मामूली किसान थे। अपने घर के गहने गिरवी रख उन्होंने कहीं से कर्ज लिया था बाबूजी के लिए।

प्रमोद बाबू याद करते हैं-ये सारी बातें बाबूजी ने बतायी थीं। बबुआन टोले के लोग एक दुसाध से बाबूजी की दोस्ती को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। बाबूजी के एक चचेरे भाई ने तो साफ-साफ कह दिया था, ‘भैया आप ही बताइए! आपलोग मुझे झूठे मुकदमे में फंसाते हैं, मेरा घर-परिवार तबाह करते हैं और एक दुसाध मेरी मदद के लिए जान लगा देता है। तो भैया, बताइए, अपना कौन हुआ?’ चचेरे भाई चुप। क्या जवाब देते!

दुसाधटोली अब रतनपुरा ग्राम पंचायत में है-उत्तर की तरफ,  साइफन पुल के पास। नसीब लाल चाचा के बेटे सिरकिसुन पासवान और विनोद बभनटोली के मिडिल स्कूल में साथ-साथ पढने जाते थे। प्रमोद बाबू उन दिनों फारबिसगंज के ली-एकेडमी हाई स्कूल में पढते थे। किस वर्ग में थे, यह अब याद नहीं है। सरायगंज में तब हाई स्कूल नहीं था। विनोद स्कूल के लिए घर से निकलता। उधर से सिरकिसुन आता। दोनों साथ हो जाते और साथ-साथ स्कूल जाते। विनोद के लिए एक किलोमीटर और सिरकिसुन के लिए डेढ किलोमीटर दूर था बभनटोली का मिडिल स्कूल।

नसीब लाल चाचा खरीद-बिक्री का छोटा-मोटा रोजगार भी करते थे। सरायगंज में माल खरीदते और फारबिसगंज मे अढतिए के पास बेच आते। धान-चावल-गेहूं दलहन-पाट वगैरह ट्रैक्टर से फारबिसगंज पहुंचाए जाते थे। नसीब लाल चाचा साइकिल से फारबिसगंज पहुंचते। रास्ता यही था-बभनटोली, देवीगंज, पलासी फिर फारबिसगंज। इसी रास्ते में बभनटोली के पास मिडिल स्कूल। नसीब लाल चाचा लौटते समय अक्सर स्कूल में गांव के बच्चे की खोज-खबर भी लेते।

इसी खोज-खबर में स्कूल के हेडमास्टर ने बताया कि आपका लड़का सिरकिसुन और सूरजदेव बाबू का लड़का विनोद कई दिनों से स्कूल नहीं आए हैं। नसीब लाल चाचा चकित। दोनों साथ-साथ जाते हैं स्कूल और रोज घर से समय पर ही निकलते हैं। सूरजदेव बाबू से रोज बात होती है और हेडमास्टर साहब कहते हैं कई दिनों से स्कूल नहीं आए हैं।

उन्होंने सिरकिसुन से पूछा तो उसने कहा, ‘कौन कहता है नहीं जाता हूं? मैं और विनोद रोज जाते हैं स्कूल! पूछ लीजिए विनोद से।’

बुधवार और शनिवार नसीब लाल चाचा के फारबिसगंज जाने के दिन होते हैं। उस दिन बुधवार था। अढतिए को ‘हठगोले’ में माल देकर वे साइकिल से लौट रहे थे। बभनटोली का स्कूल आया तो मन हुआ, देख लें सिरकिसुन को। पता चला, आज भी न सिरकिसुन आया है न विनोद। वर्ग-शिक्षक ने शिकायत के लहजे में कहा, ‘आपलोग अपने बच्चे पर ध्यान नहीं देते हैं और कहते हैं टीचर नहीं पढाते।’

नसीब लाल चाचा ने खुद को अपमानित महसूस किया। साइकिल पर चढे और निकले गांव की सड़क पर। आगे दुधिया चौक पर सिरकिसुन और विनोद कौड़ी-कंचा खेल रहे थे। सिरकिसुन ने पिता को देख लिया था। वह पास की झाड़ी में छुप गया। विनोद को नसीब लाल चाचा से क्या डर! ढीठ की तरह खड़ा रहा। नसीब लाल चाचा ने विनोद से पूछा, ‘सिरकिसुन कहां है?’

‘यहीं कहीं था।’

‘तुमलोग स्कूल नहीं गए आज भी?’

‘गए थे, छुटटी हो गई।’

‘मैं स्कूल से आ रहा हूं। तुम दोनों यहां कौड़ी-कंचा खेल रहे हो और कहते हो, छुट्टी हो गई?’

‘आप पूछने वाले कौन हैं?’ विनोद का यह पूछना भर था कि नसीब लाल चाचा ने विनोद को पकड़ा और दो-तीन थप्पड़ लगा दिए, ‘आएं! मैं कौन होता हूं? स्कूल नहीं जाओगे और पूछने पर कहोगे मैं कौन होता हूं पूछने वाला?’

थप्पड़ खाने के बाद विनोद का राजपूती संस्कार आचरण में उभर आया, ‘आप मारिएगा? दुसाध होकर मुझे मारिएगा?’

‘क्या कहा दुसाध?’ नसीब लाल चाचा ने तीन चार थप्पड़ और जड़ दिए गाल पर।

हालांकि उन्होंने हल्के से थप्पड़ मारे थे, लेकिन विनोद के लिए यह अपमान कम नहीं था, वह रोता रहा और बार-बार कहता रहा- दुसाध होकर राजपूत को मारेगा! जाता हूं घर, दिखा दूंगा।

नसीब लाल चाचा ने सिरकिसुन को इधर-उधर ढूंढा, वह मिला नहीं। साइकिल से वे घर की ओर चले। उधर विनोद रोता और नसीब लाल चाचा को गालियां बकता घर आया। बाबूजी दरवाजे पर ही थे। प्रमोद बाबू को याद है, वे चौकी पर बैठे पढ रहे थे। विनोद को तन से ज्यादा मन पर चोट लगी थी। वह बौखलाया हुआ था किताबें-कापी का बस्ता चौकी पर फेंकते हुए बोला, ‘वह जो नसीब लाल है न! ‘कौन नसीब लाल?’

‘वही नसीब लाल पासवान! दुसाधटोली का!….उसने मुझे पीटा है।’

‘क्यों पीटा?’

विनोद कहने लगे, ‘स्कूल से लौट रहा था। रास्ते में खेलने लगा। उसी समय नसीब लाल आ गए। बोले-कौड़ी-कंचा खेलते हो? और मुझे पीट दिया।’

‘पीट दिया? बिना कारण तो वे पीटने वाले नहीं हैं! बिना कारण पीटा? ‘बताइए! दुसाध होकर राजपूत को पीटेगा?’

इतना सुनना भर था कि बाबूजी का क्रोध तलवे से सिर पर आ गया। बगल में बांस की करचियों का बेड़ा था। बेड़े से एक करची खींची बाबूजी ने और लगे धुनने। बीच-बीच में बोलते भी जाते थे-क्या कहा? दुसाध होकर राजपूत को पीटेगा?

नसीब लाल दुसाध हैं इसलिए तुमको पीट नहीं सकते? तुम जानते हो, वे मेरे दोस्त हैं। तुमको पीट नहीं सकते? मां अगर आंगन से न निकल आती तो और धुनाई होती विनोद की।

थोड़ी देर बाद सिरकिसुन डरा-डरा, सहमा-सिकुड़ा पहुंचा। जाना चाहिए था उसे अपने घर, आ गया यहां। हाथ में बस्ता। डरते-डरते बाबूजी से कहा, ‘चाचाजी, बाबूजी आज बहुत मारेंगे, बचा लीजिए।’

‘हुआ क्या है?’

‘मैं और विनोद स्कूल नहीं गए आज भी। दुधिया चौक पर कौड़ी-कंचा खेल रहे थे। उसी समय बाबूजी आ गए। मैं तो झाड़ी में छुप गया। पकड़ा गया विनोद। बकटेंठी करने लगा तो बाबूजी ने दो-चार थप्प्ड़ लगा दिए। अब मेरी पिटाई होगी चाचाजी। डर से घर नहीं जा रहा हूं। कसम खाता हूं। अब से रोज जाया करूंगा स्कूल! आज बचा लीजिए।’

बाबूजी ने साइकिल निकाली। कैरियर पर सिरकिसुन को बिठाया और चले नसीब लाल चाचा के घर।

…प्रमोद बाबू को घटना याद आ रही थी। नसीब लाल पासवान और बाबूजी के रिश्ते पर सोचते-सोचते आ गया जिला शहर अररिया का बस-अडडा।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

रामधारी सिंह दिवाकर

रामधारी सिंह दिवाकर वरिष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार हैं। यह उपन्यास अंश उनके शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास से लिया गया है। लेखक के अब तक 11 कहानी संग्रह और 6 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं

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