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अफ्रीकी श्रेष्ठता का परिचायक चिनुवा अचेबे

पिछले छ: दशकों में जिन लोगों ने पश्चिमी सभ्यता की श्रेष्ठता के गढे गए मिथक को ध्वस्त करने में योगदान दिया, उनमें अचेबे का नाम प्रमुख है

अफ्रीकी साहित्य, खासकर गल्प के पितामह कहे जाने वाले चिनुवा अचेबे का 21 मार्च, 2013 को इंतकाल हो गया। दुनियाभर में ब्लैक लिटरेचर को स्थापित करने वालों में चिनुवा अचेबे का नाम उतनी ही प्रमुखता से लिया जाता है जितना कि वोले शोयिंका, नादिन गार्डिमर और न्गूगी वा थ्योंगो का। चिनुवा अचेबे का भारत जैसे देश के लिए इसलिए भी महत्व बढ जाता है, क्योंकि भारतीय भाषाओं में जिस दलित साहित्य की चर्चा आज जोर-शोर से हो रही है, उसका एक प्रेरणास्रोत चिनुवा अचेबे भी है। इस साहित्य का आगमन मराठी के ब्लैक पैंथर आंदोलन के बरास्ते भारतीय भाषाओं के साहित्य में हुआ था।

 

पिछले छ: दशकों में जिन लोगों ने पश्चिमी सभ्यता की श्रेष्ठता के गढे गए मिथक को ध्वस्त करने में योगदान दिया, उनमें अचेबे का नाम प्रमुख है। अचेबे ने न सिर्फ अफ्रीकी लेखन को विश्व मानचित्र पर जगह दिलाई, बल्कि इस दुष्प्रचार का भी मुंहतोड़ जवाब दिया कि अफ्रीकी नस्लीय रूप से हीन हैं। नेल्सन मंडेला ने अचेबे को अफ्रीका को बाकी दुनिया तक लेकर जाने वाला और ऐसा लेखक कहा है जिसके साथ रहते हुए जेल की दीवारें टूट गई थीं। इससे थोड़ा और आगे जाकर यह कहा जा सकता है कि अचेबे उन लेखकों में शामिल रहे, जिन्होंने यह बताया कि तीसरी दुनिया के लोग, खासकर इन देशों के जनजातीय समाज किस तरह साझा इतिहास से बंधे हुए हैं।

थिंग्स फॉल अपार्ट/द सेंटर कैन नोट होल्ड (चीजें बिखर जाती हैं, केंद्र ही स्थिर नहीं रह पाता)। चिनुवा अचेबे ने अपने पहले और बहुचर्चित उपन्यास थिंग्स फॉल अपार्ट का शीर्षक आइरिश कवि डब्ल्यूबी यिट्स की कविता सेकंड कमिंग की इन पंक्तियों से लिया था। अपने इस उपन्यास में, जिसकी अब तक करीब सवा करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं और 50 से अधिक भाषाओं में जिसका अनुवाद हो चुका है, चिनुआ अचेबे ने अफ्रीकी समाज की धुरी के ही चरमरा जाने की ऐतिहासिक त्रासदी का बयान किया है। द गार्जियन ने इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए लिखा था, इस उपन्यास ने अफ्रीका के बारे में पश्चिम के नजरिए को सिर के बल खड़ा कर दिया-वह नजरिया जो अब तक सिर्फ गोरे उपनिवेशवादियों के दृष्टिकोण पर आधारित था।

यह उपनिवेशवादी नजरिया क्या है? यह कि अफ्रीका का उपनिवेशीकरण ‘हीन’ और ‘आदिम’ की संज्ञा से नवाजे गए लोगों को सभ्य बनाने के लिए किया गया था। यह वह वैचारिक आधार था, जिसका सहारा लेकर अपनी तमाम हिंसा और बर्बरता के रक्तरंजित इतिहास के बावजूद यूरोप ने अफ्रीका, एशिया, अमेरिका व आस्ट्रेलिया के उपनिवेशीकरण को औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश की है। ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ सिर्फ नाइजीरिया या अफ्रीका का नहीं, दुनिया के उन तमाम मुल्कों का उपन्यास बन जाता है, जिन्हें अपनी तथाकथित सभ्यता मिशन के अंतर्गत यूरोपीय शक्तियों द्वारा गुलाम बनाया गया था। यह उपन्यास उस पश्चिमी प्रचार को बेहद रचनात्मक तरीके से ध्वस्त करता है, जिसके मुताबिक गोरों के आगमन से पहले अफ्रीकी कबीलाई समाज न्याय और शासन की किसी भी अवधारणा से अपरिचित था। थिंग्स फॉल अपार्ट में चिनुआ अचेबे दुनिया के पाठकों को गोरों के आगमन से ठीक पहले के अफ्रीकी कबीलाई समाज में लाते हैं और यह दिखाते हैं कि भले ही ऊपर से देखने पर यह समाज ‘आधुनिकता’ के सांचे से कहीं बाहर छिटका हुआ और आदिम नजर आता हो, लेकिन अपने आंतरिक रूप में इन समाजों में भी न्याय, शासन, शांति की चाहत कुछ वैसी ही थी, जिस पर ‘आधुनिक यूरोप’ गर्व करता है। अचेबे इस तथाकथित बर्बर अफ्रीकी समाज को यहां ‘सभ्य यूरोपीय समाज के बरक्स रखते हैं और यह दिखाते हैं कि किस तरह गोरों के आगमन के बाद परंपरागत अफ्रीकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाएं तहस-नहस कर दी गईं। यह बेवजह नहीं है कि थिंग्स फॉल अपार्ट पढ़ते हुए आपको अचानक छोटानागपुर पठार पर लड़ते हुए सिद्धो-कानो और बिरसा मुंडा याद आ जाते हैं, जो अपनी आजादी, परंपरागत संस्कृति और धार्मिक विश्वास की रक्षा करने के लिए उठ खड़े हुए थे।

जाहिर है, चिनुआ अचेबे को यह मालूम था कि उन्हें सिर्फ शब्दों की साधना नहीं करनी है, बल्कि शब्दों के सहारे एक खोए और अपमानित किए गए इतिहास को फिर से खड़ा करना है। अफ्रीका पर लिखे गए उनके उपन्यासों की ट्रॉयोलॉजी-थिंग्स फॉल अपार्ट, नो लॉन्गर एट ईज और एैरो ऑफ गॉड में उनकी इस कोशिश को साफ-साफ महसूस किया जा सकता है।

चिनुआ अचेबे के पूरे लेखन में इतिहासकार होने की जद्दोजहद दिखाई देती है। खुद उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘लेखक सिर्फ लेखक नहीं होता, वह एक नागरिक भी होता है।’ उनका मानना था कि गंभीर और अच्छे साहित्य का अस्तित्व हमेशा से मानवता की मदद करने के लिए रहा है। चिनुआ अचेबे के लेखन में अफ्रीकी मानवता के प्रति ही नहीं विश्व की तमाम शोषित मानवताओं के प्रति इस पक्षधरता को आसानी से चिन्हित् किया जा सकता है।

(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अवनिश मिश्र

अवनिश मिश्र युवा पत्रकार हैं

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