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जातीय पैकेजिंग के टीवी चैनल

मजे की बात यह है कि संसद सदस्य भी लोकसभा टीवी में आरक्षण के नियम लागू नहीं होने की बात करने से घबराते हैं। अनिल चमड़िया का विश्लेषण

बाबू जगजीवनराम की पुत्री मीरा कुमार बिहार के सासाराम सुरक्षित चुनाव क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ती हैं। वे लोकसभा की अध्यक्ष हैं। मैंने उन्हें कई बार पत्र लिखा कि लोकसभा टीवी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के नियम लागू नहीं किए जा रहे हैं। लेकिन उनके दफ्तर से पत्रों की पावती तक नहीं आई। यह सामान्य-सी बात है। सरकारी दफ्तरों से ऐसे पत्रों के जवाब नहीं मिलते हैं। चाहे उस दफ्तर का मुखिया कोई भी हो।

सूचना के अधिकार के तहत मैंने जब लोकसभा टीवी में काम करने वालों की सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी हासिल की तो यह सूचना दी गई कि लोकसभा टीवी के लिए 107 लोग काम कर रहे हैं। उनके नाम और पद भेजे गए। साथ में यह जानकारी भी दी गई कि लोकसभा टेलीविजन चैनल में जो 107 लोग काम कर रहे हैं, उन्हें कंसलटेंट के रूप में रखा गया है और कंसलटेंट रखने में आरक्षण का नियम लागू नहीं होता। मजेदार बात यह है कि इस सूचना के साथ यह भी बताया गया कि उम्मीदवारों की बाकायदा लिखित परीक्षा होती है। टेलीविजन चैनल में काम करने की उनकी योग्यता को मापा जाता है और फिर इंटरव्य़ू के बाद उन्हें लोकसभा टीवी के लिए रखा जाता है।

मैंने पहले भी इस कॉलम में लिखा है कि भारतीय समाज में प्रचलित शब्दों के दो अर्थ होते हैं और जिसे योग्यता की जांच कहा जाता है, दरअसल, उसकी पूरी प्रक्रिया जाति परीक्षा की होती है। उसका जो नतीजा निकलता है, उसमें पिछड़े, दलित, आदिवासी फेल हो जाते हैं। वास्तव में योग्यता भारतीय समाज में जातीय पैकेजिंग हैं। लोकसभा टीवी में भी पिछड़े, दलित और आदिवासी की उपस्थिति नियमानुसार नहीं है। यह वह संसद है जहां देश के पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए विशेष कानून बने हैं। लेकिन उसकी चहारदिवारी में ये कानून लागू नहीं होते। लोकसभा के परिसर में उसके अध्यक्ष के आदेश का पालन होता है। लोकसभा में भर्ती के कई तरीके हैं। आरक्षण का नियम वैसी नौकरियों के लिए बना है जहां सरकार को स्थायी रूप से नियुक्तियां करनी होती हैं। लेकिन जब से आरक्षण लागू हुआ है तब से स्थायी पदों पर नियुक्तियां बंद-सी हो गई हैं या कम से कम तीसरे व चौथे ग्रुप में खत्म ही हो गई हैं। सूचना के अधिकार के तहत यह बताया गया कि लोकसभा टीवी अपने नियमों के तहत लोगों को काम पर रखता है। लेकिन वे कौन से नियम हैं, उनकी प्रति सूचना के अधिकार के तहत पहले नहीं भेजी गई।

सूचना के अधिकार कानून के तहत जब अपील दायर की गई तो दो मजेदार सूचनाएं मिलीं। पहला तो उस आदेश की प्रति मिली, जिसमें यह बताया गया कि कंसलटेंट को रखने में आरक्षण का नियम लागू नहीं होता है। इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि लोकसभा सचिवालय में कंसलटेंट नियुक्त करने का फैसला लिया गया था लेकिन टेलीविजन चैनल को भी लोकसभा सचिवालय का हिस्सा मान लिया गया। दूसरा, कंसलटेंट को छोटी अवधि के लिए और विशिष्ट काम के लिए रखने का फैसला लिया गया था। रोज-ब-रोज और सालों-साल तक काम लेने के लिए कंसलटेंट की नियुक्ति की मनाही है। तीसरे, लोकसभा टीवी में लगभग सभी कंसलटेंट हैं और बाकी दूसरे सरकारी कार्यालयों में स्थायी पद पर नियुक्त हैं और यहां प्रतिनियुक्ति पर काम कर रहे हैं। जब संसद संविधान और कानून की भावनाओं को ही दरकिनार कर रही है तो आरक्षण जैसे नियमों की उसे कितनी परवाह हो सकती है। मजे की बात यह कि संसद सदस्य भी लोकसभा टीवी में आरक्षण का नियम लागू नहीं किए जाने की बात करने से घबराते हैं। लोकसभा का अध्यक्ष संसद परिसर में सर्वशक्तिमान होता है। उसके आचरण और व्यवहार के बारे में संसद के भीतर भी सवाल खड़े नहीं किए जा सकते हैं। इसीलिए जब से लोकसभा टीवी खुला है तब से संसद में भले ही देशभर में आरक्षण मिलने और न मिलने पर बातचीत होती हो लेकिन लोकसभा टीवी में आरक्षण नहीं मिलने पर बात नहीं होती।

चौथी बात यह कि लोकसभा अध्यक्ष को यह अधिकार है कि वह किसी पूर्व आदेश की व्याख्या या उसे जिस रूप में लागू किया जा रहा है, उसमें बदलाव कर सकता है। लोकसभा अध्यक्ष के रूप में मीरा कुमार ने इसकी जरूरत अब तक नहीं महसूस की है। उनके कार्यकाल में जो लोग नियुक्त हुए हैं उनकी सूची भी सूचना के अधिकार के तहत मांगी जा सकती है। बहरहाल, मुझे अपने आवेदन के जवाब में लोकसभा टीवी में कार्यरत पिछड़े, दलित, आदिवासियों की जो जानकारी दी गई वह मजेदार है और मैं उसे आपके साथ साझा करना चाहता हूं। इसमें तेरह लोगों के नाम बताए गए हैं लेकिन उनमें एक को छोड़कर सभी दूसरे विभागों में पहले से ही नियुक्त हैं। यानी लोकसभा टीवी में वे प्रतिनियुक्ति पर हैं। एक बाबूलाल के बारे में जानकारी नहीं मिल रही है कि वे दूसरे विभाग से आए हैं या फिर सीधे लोकसभा टीवी के लिए नियुक्त हुए हैं। बहरहाल, वे अनुसूचित जाति के हैं और चैंबर अटेंडेंट यानी चपरासी हैं। बाकी जो बारह लोग हैं, उनमें से चार पिछड़े वर्ग के हैं और उनमें से दो जूनियर क्लर्क और दो अटेंडेंट हैं। बाकी के चार अनुसूचित जाति के हैं, जिनमें एक सीनियर एक्सीक्यूटिव, एक एक्सीक्यूटिव, एक चैंबर अटेंडेंट और एक ग्रेड थ्री अटेंडेंट शामिल हैं। अनुसूचित जनजाति के एकमात्र कर्मचारी सीनियर एक्सक्यूटिव हैं। मीडिया में संपादकीय विभाग सबसे महत्वपूर्ण होता है। मीडिया की सामाजिक पृष्ठभूमि का जब भी अध्ययन किया जाता है, संपादकीय विभाग को ही आधार माना जाता है। ये आंकड़े इस मायने में गौरतलब हैं कि केवल प्रतिनिधित्व से सामाजिक परिवर्तन नहीं होता। मीरा कुमार के अध्यक्ष बनने का कतई यह अर्थ नहीं है कि आरक्षण के नियमों का पालन होने लगेगा और वे अपने स्तर से कोई नई पहल करेंगीं। लोकसभा टीवी में तो उन्हें सरकार के किसी विभाग से स्वीकृति भी लेने की जरूरत नहीं है।

लोकसभा टीवी में जो हो रहा है वह वहीं तक सीमित नहीं है। राज्यसभा टीवी में भी वही नियम लागू हो गया। राज्यसभा टीवी की स्थापना के समय तो उसे पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों को वंचित करने के लिए अलग से कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। लोकसभा के नियमों को वहां यह कहकर लागू कर दिया गया कि वे पहले से चले आ रहे हैं। राज्यसभा के अध्यक्ष उपराष्ट्रपति होते हैं। राज्यसभा में सभापति और उपसभापति के पदों पर अल्पसंख्यक विराजमान हैं लेकिन इसका कतई यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि सामाजिक गैर-बराबरी के मद्देनजर आरक्षण के जो कानून बने हैं, वे राज्यसभा में भी लागू हो जाएंगे। राज्यसभा टीवी में भी मैंने सूचना के अधिकार के तहत जानकारियां हासिल की हैं, जिनसे पता चलता है कि देश में पिछड़े, दलितों और आदिवासियों में से वे भी अपने लिए योग्य की तलाश नहीं कर पाए हैं। सामाजिक स्तर पर जो अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं, वे इस हद तक आक्रामक हो गए हैं कि आरक्षण के नियमों को लागू देखना भी बेहद मुश्किल हो गया है।

एक और तथ्य से यहां आपको अवगत कराना जरूरी है। हर साल एक अच्छी-खासी संख्या में पिछड़े, दलित, आदिवासी लड़के-लड़कियां भारतीय जनसंचार संस्थान से डिग्री लेकर निकलते हैं। आईआईएमसी, भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रवेश लेने के लिए इस वर्ग के लड़के-लड़कियां परीक्षा देते हैं। फिर कई परीक्षाएं पास करने के बाद वे डिग्री लेते हैं। लेकिन उसके बाद मीडिया संस्थानों में फिर उनकी योग्यता की परीक्षा शुरू होती है। वह मीडिया संस्थान चाहे सरकारी हों या पूंजीपति के। हर जगह इस वर्ग के युवा अयोग्य करार दिए जाते हैं। दरअसल, सामाजिक प्रतिनिधित्व की अपनी एक सीमा है और उस पर पूरा समाज आश्रित नहीं हो सकता।

(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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