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नियुक्ति करने वाले निष्पक्ष नहीं हैं : उर्मिलेश

पत्रकारिता के अंदर जो अपोइंटिंग अथॉरिटीज (नियुक्ति करने वाले लोग) हैं, वे निष्पक्ष नहीं हैं। पूरी प्रक्रिया ही गलत है। उसमें पारदर्शिता नहीं है

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश से अशोक चौधरी की बातचीत

पत्रकारिता के इस मुकाम तक पहुंचना कितना आसान रहा?
इसे मैं कोई मुकाम ही नहीं मानता हूं। यह तो एक प्रक्रिया है जो लगातार चल रही है। समय के साथ परेशानियां तो उठानी पड़ती हैं। मुझे भी तमाम तरह की परेशानियां झेलनी पड़ीं।

क्या कारण है कि ओबीसी, दलित और आदिवासी मुख्यधारा के मीडिया में उच्च पदों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं?
पत्रकारिता के अंदर जो अपोइंटिंग अथॉरिटीज (नियुक्ति करने वाले लोग) हैं, वे निष्पक्ष नहीं हैं। पूरी प्रक्रिया ही गलत है। उसमें पारदर्शिता नहीं है, जैसे, मैं एक सवाल उठाता रहता हूं कि भइया, हर सेवा क्षेत्र में नियुक्ति की कोई न कोई प्रक्रिया होती है। हो सकता है, वह सौ फीसदी सही न हो, लेकिन होते तो हैं। मीडिया में ऐसा कुछ है ही नहीं। हां, कुछ संस्थान हैं जहां टेस्ट, इंटरव्यूज लिए जाते हैं। ये बात अलग है कि कितनी ईमानदारी बरती जाती है टेस्ट, इंटरव्यूज की फाइनल प्रक्रिया में। कई जगह जिसको चाहा उसको रख लिया। पिक एंड चूज।

पिक एंड चूज क्या होता है?
अधिकतर जाति ही इसका आधार होती है। ज्यादातर भारतीय भाषाओं के मीडिया में यही होता है। जान-पहचान, रिश्तेदारी, जाति-बिरादरी जिसको चाहा उसको लिया। तो ये मूल कारण हैं। इस पर ज्यादातर भारतीय पत्रकार चुप रहते हैं। हम लोग तो बोलते ही हैं। मगर जब कोई विदेशी विद्वान या लेखक आता है तो वह बोलता है। रोबिन जैफ्री को यह बात बहुत चुभी कि अब तक भारत में कोई दलित संपादक या बड़ा पत्रकार क्यों नहीं हुआ। लेकिन इस देश के जो बड़े विद्वान या पत्रकार हैं, उन्हें यह नहीं दिखता। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि उनको ये सब क्यों नहीं दिखता। ये सवाल मैं हमेशा उठाता हूं कि विदेशी लेखक या विद्वान को तो पता चल जाता है लेकिन यहां के लोग क्यों कुछ नहीं बोलते। मैं इस मुद्दे को सवाल बनाना चाहता हूं और बना रहा हूं। मुझे जितने भी फोरम मिले हैं उसमें मैंने इस सवाल को उठाया है।

ओबीसी के कुछ लोग बड़े पदों तक पहुंचे हैं, लेकिन उन पर अयोग्य होने का आरोप लगाया जाने लगता है?
नहीं, मैं तो मानता हूं कि बड़े चैनल या मुख्यधारा जो है, उसमें इस पोस्ट तक वे नहीं पहुंचे हैं। आप पत्रकार हैं लेकिन निर्णय लेने की जो कमान है वह आपके पास नहीं है। माफ कीजिएगा, इसलिए ये सवाल इतना फिट नहीं बैठता। जब आप उन्हें पूरी कमान नहीं दे रहे हैं तो योग्यता या अयोग्यता का सवाल ही नहीं उठता।

(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अशोक चौधरी

अशोक चौधरी फारवर्ड प्रेस से बतौर संपादकीय सहयोग संबद्ध रहे हैं।

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