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उदारीकरण ने दलितों को फायदा पहुंचाया : मिलिंद काम्बले

सबसे ज्यादा हमारे पास छोटे और मंझोले कारोबारी हैं, जो आने वाले समय में भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने में अहम भूमिका अदा करने वाले हैं

डॉक्टर आम्बेडकर का एक सपना यह भी था कि दलित हमेशा नौकरी मांगने वालों की कतार में ही न दिखें बल्कि नौकरी देने वालों में भी दिखें। आज वह सपना साकार होता दिख रहा है। महाराष्ट्र में इन दिनों दलित उद्यमशीलता की नई इबारत लिखी जा रही है। आज दलित समाज से निकलकर व्यवसाय में पांव जमाने वाले उद्यमियों की संख्या पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। दलित व्यवसायियों को एक मंच पर लाकर खड़ा करने के लिए दलित इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) जैसा मंच भी तैयार हो चुका है, साथ ही डिक्की की शाखाएं पूरे देश में खोलने की तैयारी भी हो रही है। प्रस्तुत है डिक्की के बारे में संस्था के अध्यक्ष पद्मश्री मिलिंद काम्बले से अशोक चौधरी की बातचीत के चुनिंदा अंश…

डिक्की की स्थापना की प्रमुख वजह क्या है?
देश में काम कर रहे ज्यादातर कारोबारी चैंबर काफी पुराने हैं। उनके लगभग सभी सदस्यों को कारोबार में महारत हासिल है, जबकि दलित समाज के कारोबारी पहली पीढ़ी के हैं। ऐसे में जरूरी था कि इन कारोबारियों को एक ऐसा मंच मुहैया कराया जाए, जिस पर खड़े सभी कारोबारियों की समस्याएं लगभग एक जैसी हों। इसलिए इस मकसद से 14 अप्रैल, 2005 को डिक्की की स्थापना की गई, जिसकी आज एक अलग पहचान बन गई है।

जहां डिक्की की शाखा नहीं है वहां के कारोबारी आपसे कैसे संपर्क करेंगे?
आप सही कह रहे हैं। जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि अभी तक हमने सिर्फ तैयारी और कारोबारियों से संपर्क करने का काम किया है। अब पूरे देश में शाखाएं खोलने का काम शुरू किया जा रहा है। शाखाएं खुलने के बाद सदस्यों की सख्या भी बढ़ाई जाएगी। डिक्की का उद्देश्य दलित कारोबारियों को एक मंच पर लाकर उनके कारोबार का विस्तार करना है। कारोबार में आने वाली हर समस्या का समाधान यह चैंबर कारोबारियों को मुहैया कराएगा।

चैंबर की अभी तक की खास उपलब्धियां?
पहली अहम् बात यह है कि हमने पूरे देश में दलित समाज के कारोबारियों की पहचान कर ली है और वे सभी इस मंच से जुड़ रहे हैं। दूसरी बात यह है कि देश के बाहर और अंदर भी हमें फिक्की और सीआईआई की तरह मान्यता मिलने लगी है। इसी का परिणाम है कि बीएसई, एमएसएमई सेक्टर के लिए जो अलग से ट्रेडिंग प्लेटफार्म शुरू कर रहा है, उसने उसमें हमारे सदस्यों को विशेष सुविधा देने की बात कही है। सबसे ज्यादा हमारे पास छोटे और मंझोले कारोबारी हैं, जो आने वाले समय में भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने में अहम् भूमिका अदा करने वाले हैं।

दलितों के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग लंबे समय से चल रही है, उसमें डिक्की की क्या भूमिका होगी?
आरक्षण का मुद्दा काफी पुराना है। इस मुद्दे को दलित समाज के साथ-साथ दूसरे समाज के राजनेता भी समय-समय पर उठाते रहे हैं। कई निजी कंपनियों ने अपने यहां आरक्षण सुविधा लागू भी की है। लेकिन डिक्की का मकसद राजनीतिक मुद्दों पर बोलना नहीं है। हमारा उद्देश्य दलित समाज के कारोबारियों को एक मंच पर लाकर उनके कारोबार का विकास करना है। आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक है, इसलिए मैं मानता हूं कि इस पर बोलना-सोचना राजनेताओं का काम है, कारोबारियों का नहीं।

डिक्की से जुडऩे वाले कारोबारियों को कौन-कौन सी सुविधाएं दी जा रही हैं?
दलित समाज के वे कारोबारी, जिनका वार्षिक कारोबार कम से कम 10 लाख रुपये का है डिक्की के सदस्य बन सकते हैं। चैंबर अपने सदस्यों के कारोबार को बढ़ाने के लिए सभी तरह की जानकारियां देगा। वित्तीय प्रबंधन सेवा, कानूनी सलाह, गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रशिक्षण, कर अदा करने की जानकारी, मार्केटिंग गुर और उनके उत्पादों को सही दिशा देने के लिए ट्रेड फेयर एवं सेमिनार का आयोजन किया जाएगा जिसकी शुरुआत की जा चुकी है।

खुदरा व्यवसाय में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से दलितों को फायदा होगा या नुकसान?
हमारी मौजूदा अर्थव्यवस्था गुरुकुल की तरह है, जिसमें दलितों को जगह नहीं मिलती। मंडियों में किसान अपनी फसल आढ़तियों के जरिए ही थोक कारोबारी तक पहुंचाते हैं। विदेशी किराना कंपनियां आने से आढ़तिए व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। आढ़तियों की मर्जी के बगैर मंडी में कारोबार नहीं हो सकता। हर सब्जी, फल या अनाज आढ़तियों से होकर ही आम आदमी तक पहुंचता है। मंडियों के नियम ही कुछ ऐसे हैं कि किसानों को अपनी फसल आढ़तियों तक लानी होती है, जो कमीशन लेने के बाद उसे थोक व्यापारी को बेच देते हैं और ये आढ़तिये ऊंची जाति के होते हैं। ऊंची जातियों के आढ़तियों का ही पूरे देश की मंडियों पर कब्जा है। हालांकि दिल्ली में दलित ट्रांसपोर्टर, निर्यातक और ठेकेदार के तौर पर कामयाब हुए हैं, लेकिन अब भी कोई दलित आढ़तिया नहीं बन सका है और इस मंडी व्यवस्था को विदेशी किराना से डर है। उदारीकरण से दलितों को फायदा पहुंचा है, क्योंकि जितने भी दलित कारोबारी हैं, वे 1991 के बाद ही पनपे हैं। वे मशीनें बना रहे हैं, टनल बना रहे हैं, लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि एक भी दलित पारंपरिक कारोबारी नहीं है। यानी दलित पारंपरिक और स्थानीय व्यवस्थाओं में नहीं पनप पाते, जैसी कि मौजूदा मंडी व्यवस्था है। यही वजह है कि विदेशी किराना आने से दलित कारोबारियों को नए मौके मिलेंगे और उन्हें फायदा होगा। पारंपरिक अर्थव्यवस्था में जो कारोबारी हैं वे ही साहूकार की भूमिका भी निभाते हैं और कर्ज देते हैं जिससे बाजार में नए लोग नहीं आ पाते। विदेशी किराना से नए मौके पैदा होंगे, जिससे दलितों को भी फायदा मिलेगा।

चैम्बर को सरकार व उद्योगपतियों की तरफ से क्या सहायता मिलती है?
जब हमने 2010 में डिक्की के ट्रेड फेयर का आयोजन किया था उसमें सभी बड़े कारोबारी आए थे, जैसे रतन टाटा, आदि गोदरेज और मुकेश अंबानी। सरकार की तरफ से सुशील कुमार शिंदे और कई बड़े नेता आए थे। सभी ने हमारे इस कार्य की जमकर सराहना की। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा था कि सरकार के साथ-साथ उद्योगपतियों को डिक्की की सहायता करनी चाहिए।

(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अशोक चौधरी

अशोक चौधरी फारवर्ड प्रेस से बतौर संपादकीय सहयोग संबद्ध रहे हैं।

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