h n

फारवर्ड विचार, जून 2013

परंतु हमारी इस बार की आवरण कथा के लेखक ने गुमनाम रहने का निर्णय लिया है। हमने उन्हें पाटलिपुत्र के शिव गुप्ता का काल्पनिक नाम दिया है। आप कह सकते हैं कि वे बहुजन चाणक्य हैं।

अपने पिछले संपादकीय में मैंने लिखा था कि इन दिनों यह चर्चा आम है कि देश चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में फारवर्ड प्रेस की आवरणकथा राजनीति पर केन्द्रित होनी चाहिए थी। उचित समय आने पर फारवर्ड प्रेस राजनीतिक विश्लेषणों का सिलसिला शुरू करेगा।

वह उपयुक्त समय अब आ पहुंचा है। कर्नाटक की जनता ने स्पष्ट जनादेश दे दिया है। यूपीए-2 सरकार लडख़ड़ाती-सी लग रही है। रायशुमारी करने वाली एजेंसियां बार-बार प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम उछाल रही हैं, इसके बावजूद कि हमारे देश में राष्ट्रपति नहीं बल्कि संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली है और अगला आम चुनाव कब होगा, इस बारे में कयासों का दौर जारी है। अब हम उतने विश्वास से आने वाले चुनाव को आम चुनाव 2014 नहीं कह सकते।

इसी समय हमें एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विश्लेषण प्राप्त हुआ जो पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को एक नए परंतु गहन व सूक्ष्म बहुजन दृष्टिकोण से देखता है। पत्रकार बतौर मेरा हमेशा यह सिद्धांत रहा है कि जिसके बारे में आप लिख रहे हैं उसका नाम लिखो, अपना नाम दो, छापो और भूल जाओ। मैंने हमेशा ऐसा करने की कोशिश भी की है। परंतु हमारी इस बार की आवरण कथा के लेखक ने गुमनाम रहने का निर्णय लिया है। हमने उन्हें पाटलिपुत्र के शिव गुप्ता का काल्पनिक नाम दिया है। आप कह सकते हैं कि वे बहुजन चाणक्य हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणामों के इस मौलिक व अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण का आनंद लीजिए और अंत में, आवरण कथा को 80 प्रतिशत पढऩे के बाद अगर आपको उबकाई-सी आने लगे तो चौंकिएगा नहीं। फारवर्ड प्रेस के संपादकीय टीम में भी लेख के उस अंतिम 20 प्रतिशत हिस्से पर गर्मागर्म बहस हुई थी, जिसमें मोदी को एक नए बहुजन दृष्टिकोण से देखा गया है।

परंतु अगर आप सोच रहे हैं कि फारवर्ड प्रेस का झुकाव मोदी की तरफ हो रहा है तो हमारे गुजरात संवाददाता अर्नोल्ड क्रिस्टी की गंभीर सूखे की स्थिति के बीच मोदी के गुजरात में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव पर तथ्यात्मक रपट पढिए। हम आपको याद दिलाना चाहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के समय हमने मुलायम सिंह यादव को पहले संभावित ओबीसी राष्ट्रपति के बतौर प्रस्तुत किया था। परंतु जब हमने उनकी समाजवादी पार्टी की उत्तरप्रदेश सरकार की कार्यशैली और कार्यकलापों को देखा तो हमें वर्धा के प्रोफेसर एल करुणायकर का सपा के नेताजी की जातिवादी धर्मनिरपेक्षता का पर्दाफाश करने वाला लेख प्रकाशित करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ। इसी अंक में हम फारवर्ड प्रेस के सहायक संपादक पंकज चौधरी का उत्तरप्रदेश सरकार के सिलसिलेवार दलित-विरोधी कदमों का विश्लेषण भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

इससे भी एक कदम आगे बढकर हमारे नियमित स्तंभकार प्रेमकुमार मणि बहुजनों को भारत की कुलीन धर्मनिरपेक्षता के जाल में न फंसने की सलाह दे रहे हैं। यह धर्मनिरपेक्षता का वह ब्रांड है, जिसके विमर्श में धर्म या आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह नहीं है। यह फुले से लेकर श्रीनारायण गुरु और उनसे लेकर आम्बेडकर तक, (तथाकथित नास्तिक पेरियार को छोड़कर) के हमारे सभी आधुनिक बहुजन समाज-सुधारकों के दृष्टिकोण के विपरीत है।

एक बात और। जैसा की प्रोफेसर विवेक कुमार ने फारवर्ड प्रेस की चौथी वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में कहा, फारवर्ड प्रेस बहुजन मीडिया से इस मामले में अलग है कि वह इन महानुभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने से कभी पीछे नहीं हटी। इस संबंध में उन्होंने फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2013 के कांशीराम विशेषांक का उदाहरण दिया, जिसमें हमने कांशीराम के बारे में उनकी प्रशंसात्मक आवरणकथा के साथ-साथ फारवर्ड प्रेस के योगदानी संपादक विशाल मंगलवादी का क्या कांशीराम असफल मसीहा थे प्रश्न उठाते हुए लेख भी प्रकाशित किया था।

अब तक यह साफ हो ही चुका होगा की फारवर्ड प्रेस किसी की अंधभक्त नहीं है, महान बहुजन व्यक्तित्वों की भी नहीं। अंधभक्ति करने का काम हमने ब्राह्मणवाद पर छोड़ दिया है। फारवर्ड सोच में शामिल है आध्यात्मिक सत्यों और मूल्यों की नींव पर खड़ी आलोचनात्मक तर्कसंगतता। इसके मानदंड आधुनिकतावादी पर आधुनिकतावादी मानदंडों से भी कड़े हैं।

(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

संबंधित आलेख

क्या है ओबीसी साहित्य?
राजेंद्र प्रसाद सिंह बता रहे हैं कि हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में...
बहुजनों के लिए अवसर और वंचना के स्तर
संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता...
पिछड़ा वर्ग आंदोलन और आरएल चंदापुरी
बिहार में पिछड़ों के आरक्षण के लिए वे 1952 से ही प्रयत्नशील थे। 1977 में उनके उग्र आंदोलन के कारण ही बिहार के तत्कालीन...
कुलीन धर्मनिरपेक्षता से सावधान
ज्ञानसत्ता हासिल किए बिना यदि राजसत्ता आती है तो उसके खतरनाक नतीजे आते हैं। एक दूसरा स्वांग धर्मनिरपेक्षता का है, जिससे दलित-पिछड़ों को सुरक्षित...
दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना
आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते...