h n

डायन कहकर क्या साबित करना चाहते हैं आप?

फिल्म बताती है कि डायन के घने बाल होते हैं, उसकी शक्ति उसकी चोटी में होती है एवं उसके पांव उलटे होते हैं ! इन सभी दकियानूसी बातों को फिल्म में दिखलाने से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है

बीते 9 अप्रैल, 2013 को रीलिज हुई एकता कपूर की फिल्म ‘एक थी डायन’ का विरोध झारखंड में शुरू हो गया है। जमशेदपुर की फ्री लीगल एड कमेटी के अध्यक्ष प्रेमचंद ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से गुजारिश की है कि इस फिल्म को सिनेमा हॉलों में दिखाए जाने पर रोक लगाई जाए, क्योंकि फिल्म अंधविश्वास को बढ़ावा देती है जिससे न सिर्फ झारखंड में बल्कि पूरे देश में डायन प्रथा के खिलाफ चलाए जा रहे जागरुकता अभियान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

फ्री लीगल एड कमेटी पिछले दो दशकों से डायन प्रथा के खिलाफ आंदोलनरत है। संगठन के ग्रामीण प्रभारी चुटनी महतो को कभी डायन बताकर प्रताडि़त किया जाता रहा था। हाल ही में उन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस अभियान के लिए पुरस्कृत भी किया है। एकता कपूर और विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘एक थी डायन’ में डायना नाम की एक डायन को शक्तिशाली और बदले की भावना से पीडि़त दिखाया गया है जो बदला लेने के लिए बीस साल तक इंतजार करती है। फिल्म बताती है कि डायन के घने बाल होते हैं, उसकी शक्ति उसकी चोटी में होती है एवं उसके पांव उलटे होते हैं ! इन सभी दकियानूसी बातों को फिल्म में दिखलाने से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। कोंकणा सेन शर्मा की काली गहरी आंखें, सांवला रंग और लंबी चोटी यद्यपि अत्यंत आकर्षक है परंतु कोंकणा का यह चरित्र समाज में अंधविश्वास को बढाएगा ही।

झारखंड में डायन प्रथा के कहर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां दो दशकों में लगभग 1200 महिलाओं को डायन कहकर मौत के घाट उतार दिया गया है। डायन प्रथा की गंभीरता को देखते हुए केंद्र सरकार ने जुलाई, 2001 में ही डायन प्रतिशोध अधिनियम 1999 को अंगीकृत किया जिसके तहत किसी महिला को डायन करार देकर उसका शारीरिक या मानसिक शोषण करने वाले को छह माह की जेल या 2000 रुपये का जुर्माना देने का प्रावधान है। इसके अलावा डायन का दुष्प्रचार करने या इस कार्य के लिए लोगों को प्रेरित करने वाले व्यक्ति को तीन माह का सश्रम कारावास व 1000 रुपये के जुर्माने का भी प्रावधान है। क्या फिल्म ‘एक थी डायन’ इस कानून के खिलाफ बनाई गई फिल्म नहीं है?

(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

राजीव

संबंधित आलेख

‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ : एक घिसी-पिटी गांधी की ‘हरिजनवादी’ कहानी
फिल्मों व धारावाहिकाें में दलितों में हमेशा चेतना सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है? जिस गांव...
सामाजिक यथार्थ से जुदा हैं बॉलीवुड फिल्में
दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर...
‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ : एक घिसी-पिटी गांधी की ‘हरिजनवादी’ कहानी
फिल्मों व धारावाहिकाें में दलितों में हमेशा चेतना सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है? जिस गांव...
सामाजिक यथार्थ से जुदा हैं बॉलीवुड फिल्में
दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर...
आंखन-देखी : मूल सवालों से टकराता नजर आया पहला झारखंड विज्ञान फिल्म महोत्सव
इस फिल्म फेस्टिवल में तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। अहम फिल्मों में पानी के लिए काम करने वाले पद्मश्री सिमोन...