h n

योग्यता अवसरों की उपलब्धता से तय होती है

काबिलियत अथवा योग्यता को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। अक्सर योग्यता को मेधाशक्ति का पर्याय मान लिया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि योग्यता अवसरों की उपलब्धता और माहौल से तय होती है। वरिष्ठ पत्रकार राजीव सचान से अशोक चौधरी की बातचीत

दैनिक जागरण में आप एक महत्वपूर्ण पद पर हैं। ओबीसी तबके से होने के कारण यह सफर कितना आसान या कठिन रहा?

दैनिक जागरण में मेरा सफर अपेक्षाकृत आसान रहा, क्योंकि करियर की शुरुआत में ही मेरा संपर्क अपने संपादक नरेंद्र मोहनजी से हो गया था। मेरा मानना है कि जो अपना काम जानता है और उसे अच्छे से करता भी है उसका सफर आसान ही होता है। अपवाद हर जगह हैं और अच्छे-खराब लोग भी सब जगह हैं।

क्या कारण है कि मुख्यधारा के मीडिया में पिछड़े, दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है और आज तक कोई दलित संपादक नहीं बन पाया?

यह एक कटु यथार्थ है लेकिन यह स्थिति अन्य गैर-सरकारी क्षेत्रों में भी है। इन तबकों के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं हो रहे हैं। निजी क्षेत्र इस सिलसिले में अपनी जिम्मेदारी समझने से इनकार करने के साथ ही इस तथ्य की भी अनदेखी कर रहा है कि अमेरिका में एफरमेटिव एक्शन के जरिए सरकार के साथ-साथ किस तरह निजी क्षेत्रों ने भी वंचित तबकों को अवसर प्रदान किए हैं। मीडिया समेत निजी क्षेत्र जब तक समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के बारे में अपने स्तर पर विशेष प्रयास नहीं करता तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। जहां तक दलित वरिष्ठ संपादकों के नहीं होने की बात है तो यह जाहिर है कि जब मीडिया में दलितों की भागीदारी ही कम है तो फिर उनके संपादक बनने की गुंजाइश अपने आप कम हो जाती है। हां, कोई दलित उद्यमी अपना मीडिया संस्थान खड़ा करे तो यह काम आसानी से संभव है। यह अचरज की बात है कि अभी तक इस इस दिशा में किसी ने कोई पहल नहीं की।

योग्यता के बारे में आपका क्या ख्याल है?

काबिलियत अथवा योग्यता को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। अक्सर योग्यता को मेधाशक्ति का पर्याय मान लिया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि योग्यता अवसरों की उपलब्धता और माहौल से तय होती है। समान क्षमता वाले दो छात्रों में से यदि एक ग्रामीण इलाके का हो और अभावों से भी ग्रस्त हो और दूसरा किसी महानगर का हो और तमाम सुविधाओं से लैस हो तो उसका योग्यता की दौड़ में आगे निकलना तय है।

(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अशोक चौधरी

अशोक चौधरी फारवर्ड प्रेस से बतौर संपादकीय सहयोग संबद्ध रहे हैं।

संबंधित आलेख

क्या है ओबीसी साहित्य?
राजेंद्र प्रसाद सिंह बता रहे हैं कि हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में...
बहुजनों के लिए अवसर और वंचना के स्तर
संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता...
पिछड़ा वर्ग आंदोलन और आरएल चंदापुरी
बिहार में पिछड़ों के आरक्षण के लिए वे 1952 से ही प्रयत्नशील थे। 1977 में उनके उग्र आंदोलन के कारण ही बिहार के तत्कालीन...
कुलीन धर्मनिरपेक्षता से सावधान
ज्ञानसत्ता हासिल किए बिना यदि राजसत्ता आती है तो उसके खतरनाक नतीजे आते हैं। एक दूसरा स्वांग धर्मनिरपेक्षता का है, जिससे दलित-पिछड़ों को सुरक्षित...
दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना
आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते...