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मीडिया की चुप्पी और बस्तर का खूनी सच

टेलीविजन चैनलों की रुचि गंभीर चर्चा में नहीं होती-उन्हें तो केवल सूली पर चढ़ाने के लिए कोई चाहिए होता है। ‘टाइम्स नाऊ’ में अर्णब गोस्वामी को प्रो. हरगोपाल (हैदराबाद विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साईसिंस स्थित सेंटर फॉर ह्यूमन राईट्स) की ‘अकादमिक व्याख्या’ करने के लिए खिल्ली उड़ाते देख मुझे उबकाई-सी आ रही थी। अर्णब द्वारा ऐमिल दुर्खिम के बारे में अपनी जानकारी का प्रदर्शन बहुत दंभपूर्ण मालूम दे रहा था।

मैं ऐसी टेलीविजन परिचर्चाओं से बुरी तरह आजिज आ गई हूं, जिनमें यह प्रश्न उछाला जाता है कि क्या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का माओवादियों के प्रति नरम रुख है, क्या माओवादियों के आसपास रूमानी आभा निर्मित की जा रही है आदि। कोई यह क्यों नही पूछता कि हमारे माननीय राजनेता और सुरक्षा विशेषज्ञ, पुलिस प्रताड़ना और हिरासत में मृत्यु के मामलों में नरम क्यों है?

टेलीविजन चैनलों की रुचि गंभीर चर्चा में नहीं होती-उन्हें तो केवल सूली पर चढ़ाने के लिए कोई चाहिए होता है। ‘टाइम्स नाऊ’ में अर्णब गोस्वामी को प्रो. हरगोपाल (हैदराबाद विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साईसिंस स्थित सेंटर फॉर ह्यूमन राईट्स) की ‘अकादमिक व्याख्या’ करने के लिए खिल्ली उड़ाते देख मुझे उबकाई-सी आ रही थी। अर्णब द्वारा ऐमिल दुर्खिम के बारे में अपनी जानकारी का प्रदर्शन बहुत दंभपूर्ण मालूम दे रहा था। चर्चा के लिए किसी पैनल की आवश्यकता ही क्या है, यदि माओवादियों का सफाया करने के लिए सेना के इस्तेमाल की जुनूनी वकालत को ‘विश्लेषण’ कहा जाएगा और इससे भिन्न राय रखने वाले सभी लोगों पर पूर्वाग्रहग्रस्त होने की तोहमत लगाई जाएगी।

मीडिया का शब्द ज्ञान भी बहुत सीमित है। मुझे बिनायक सेन के एक साक्षात्कार की याद आती है, जिसमें वे लगातार कहते रहे कि वे हिंसा को ‘डिक्राय’ करते हैं और एंकर उनसे लगातार पूछता रहा कि क्या वे हिंसा को ‘कन्डेम’ करते हैं। स्पष्टत: एंकर का अंग्रेजी ज्ञान इतना कम था कि उसे नहीं मालूम था कि ‘डिक्राय’ और ‘कन्डेम’ शब्दों का एक ही अर्थ ‘निंदा करना’ है और ये शब्द एक दूसरे के लगभग पर्यायवाची हैं। आजकल, मीडिया मुझसे कुछ पूछे उससे पहले ही मैं चीखना शुरू कर देती हूं ‘आई कन्डेम’, ‘आई कन्डेम’, (मैं निंदा करती हूं, मैं निंदा करती हूं)। कभी-कभी तो मैं ‘आई कन्डेम’ चिल्लाते हुए नींद से उठ बैठती हूं। मैं जटिल भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किसी भी अन्य शब्द का इस्तेमाल करने से डरती हूं, क्योंकि मीडिया इसके अतिरिक्त और कुछ समझता ही नहीं है।

इसके बाद भी मैं टेलीविजन चर्चाओं में इसलिए भाग लेती हूं और प्रेस को इन्टरव्यू इसलिए देती हूं, क्योंकि मुझे मेरी राय व्यक्त करने के बहुत सीमित मौके मिल पाते हैं। अधिकांश समय तो मीडिया को इस बात से कोई लेना-देना ही नहीं होता कि बस्तर जैसे दूरदराज के स्थानों में क्या हो रहा है और जब वहां बड़ी संख्या में नागरिक मारे जाते हैं, तब भी समाचारों और समूह चर्चाओं का अनवरत दौर शुरू नहीं होता। मजबूरन ‘मानवधिकार कार्यकर्ताओं’ को विपरीत परिस्थितियों में अपनी बात कहनी पड़ती है, क्योंकि एक वही समय होता है जब मीडिया को हमारे विचारों में रुचि होती है-वह भी इसलिए नहीं क्योंकि मीडिया हमारे विचार जानना चाहता है बल्कि इसलिए क्योंकि उसे अपनी ‘रेटिंग’ बढ़ाने के लिए ‘बिग फाइट’ की जरूरत होती है। इसे वे ‘संतुलन’ बनाना कहते हैं। मैंने देखा है कि जब चर्चा के प्रतिभागी एक दूसरे पर गुर्राने की बजाय कई मुद्दों पर एक राय हो जाते हैं तो एंकर का चेहरा बुझ जाता है।

इस साल, 25 मई के बाद से मुझे पत्रकारों के ढेरों फोन आ रहे हैं। वे सब मेरे विचार जानना चाहते हैं। परन्तु यदि मैं उनसे अनुरोध करती हूं कि मेरा एक छोटा-सा लेख वे अपने अखबार में छाप दें तो लगभग हमेशा उनके पास जगह नहीं होती। एक जाने-माने अखबार ने महेन्द्र कर्मा की हत्या के बारे में मेरे एक लेख को तब तक प्रकाशित नहीं किया जब तक कि उसके पास माओवादियों से निपटने के लिए सैन्यबलों के उपयोग की वकालत करने वाले लेख पर्याप्त संख्या में नहीं आ गए। जब मेरे किसी लेख का प्रकाशन किया भी जाता है तब भी मुझे बहुत सीमित शब्दों में अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है। राष्ट्रीय मीडिया में सलवा जुडुम के बारे में सर्वप्रथम राय संभवत: मैंने ही व्यक्त की थी। यह लेख सन् 2006 में छपा था। परन्तु मुझे केवल 800 शब्दों में अपनी पूरी बात कहने के लिए कहा गया था। सलवा जुडुम के पहले साल में, उसके बारे में छपे लेखों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। मैं व्यक्तिगत तौर पर कई बड़े अखबारों के सम्पादकों से मिली और उन्हें बस्तर में हो रहे जुल्मों की फोटो दिखाए। मैं कई जाने-माने टीवी चैनलों के सम्पादकों से मिली और मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए उनसे यह अनुरोध किया कि वे इस विषय पर अपने चैनल में चर्चा रखें। परन्तु इसमें किसी की कोई रुचि नहीं थी। अगर मीडिया उस समय सलवा जुडुम में रुचि लेता तो आज हालात वैसे नहीं होते जैसे हैं।

मैं अदालतों में चल रहे मामलों के कारण सलवा जुडुम के बारे में अपनी पुस्तक नहीं लिख पा रही हूं। सन् 2005 से मेरी इच्छा यह पुस्तक लिखने की है, क्योंकि मूलत: मैं मानवविज्ञानी हूं। वैसे भी, मेरा दिमाग मीडिया के शोर से भन्नाया हुआ है और लगातार, केवल बहुत सीमित शब्दों में, ‘ओपीनियन पीसिस’ (राय व्यक्त करने वाले चंद अनुच्छेदों के लेख) में अपना मत व्यक्त कर-करके मैं परेशान हूं। इनमें घुमा-फिराकर मैं वही बात बार-बार कहती हूं, क्योंकि कोई सुन नहीं रहा है और इसलिए भी कि मैं कुछ लिख नहीं पा रही हूं। मुझे खुशी है कि आईपीएल का मुद्दा उछलने से हम अब अगले बड़े हमले तक, बस्तर और माओवादियों को भुला सकते हैं।

मैं अप्रैल 2010 में सीआरपीएफ के 76 जवानों के मारे जाने पर जनप्रतिक्रिया पर आधारित मेरे लेख ‘इमोशनल वार्स’ (भावनात्मक युद्ध) का एक हिस्सा उद्धृत कर रही हूं। यह लेख ‘थर्ड वर्ल्ड क्वार्टली’ के वर्ष 33, अंक 4, 2012, पृष्ठ 1-17 पर प्रकाशित हुआ था।

“सरकार का गुस्सा माओवादियों पर ही नहीं, बल्कि उनसे कथित रूप से ‘सहानुभूति’ रखने वालों पर भी केन्द्रित था-उन लोगों पर, जो मौखिक और लिखित रूप में सरकार द्वारा संवैधानिक और मूल अधिकारों के उल्लंघन की निंदा कर रहे थे और जिनकी उस निंदा को सरकारी नीतियों के प्रति विरोध व्यक्त करने के लिए माओवादियों द्वारा की गई हत्याओं से जोड़ा जा रहा था। चूंकि सरकार क्या करती और कहती है, वह समाचारों का मुख्य अंग होता है इसलिए समाचार जगत में हमले की खबर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह बन गया कि कथित सहानुभूति रखने वालों ने हमले की पर्याप्त निंदा की या नहीं।

“सरकार और मीडिया का एकतरफा रोष-साधारण आदिवासियों के साथ हुए बलात्कार या उनकी हत्याओं के बाद शायद ही कभी केन्द्रीय गृहमंत्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हर ऐसी घटना की निंदा करें-चौमस्की के ‘योग्य’ और अयोग्य पीडि़तों’ की याद दिलाता है, जो कि मीडिया के ‘प्रचार मॉडल’ का हिस्सा है। जहां ‘योग्य पीडि़त’ के बारे में समाचार बहुत विस्तार से दिए जाते हैं, उन्हें पढ़कर धक्का लगता है व आक्रोश उत्पन्न होता है और इन समाचारों का ‘फालोअप’ किया जाता है, वहीं ‘अयोग्य पीडि़तों को समाचार माध्यमों में सीमित स्थान मिलता है’, उनकी कोई विशिष्ट पहचान नहीं बताई जाती है और सत्ता के शीर्ष स्तर पर बैठे लोगों को जिम्मेदार ठहराने या दोषी बताने की कोशिश नहीं होती है।

“…गृहयुद्ध के दौरान सरकार एक ओर लोगों को आतंकित करने की कोशिश करती है तो दूसरी ओर उनके दर्द के प्रति जानते-बूझते उपेक्षा का भाव दिखाती है, मानो राज्य ने नहीं वरन् नागरिकों ने सामाजिक संविदा का उल्लंघन किया हो और मानो सामाजिक संविदा, राज्य को मनमानी करने की इजाजत देती हो।”

उदाहरणार्थ, माओवादियों के हमले में केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के चार जवानों के मारे जाने के बाद, गृह मंत्रालय ने एक वक्तव्य जारी किया, जिसमें यह पूछा गया कि “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) आखिर क्या संदेश देना चाहती है? यह प्रश्न हम केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से ही नहीं पूछना चाहते बल्कि उनसे भी पूछना चाहते हैं जो उसकी ओर से बोलते हैं और सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं…हमारा मानना है कि अब वह समय आ गया है जब प्रजातंत्र और विकास में विश्वास रखने वाले और सही दिशा में सोचने वाले नागरिकों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा की जा रही हिंसा की निंदा करनी चाहिए।” चिदम्बरम स्लेम्स माओइस्ट सिम्पेथाइजर्स (चिदम्बरम ने माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों पर हल्ला बोला), टाइम्स नाऊ, 26 अक्टूबर 2009।

तालमेतला हमले की जांच के आदेश फौरन जारी हो गए और इसकी जिम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक पीएन राममोहन की अध्यक्षता वाली एक समिति को सौंपी गई। उन्होंने सीआरपीएफ  के नेतृत्व और कार्यप्रणाली में कई कमियां पाईं। उन्होंने यह भी पाया कि सीआरपीएफ ने निर्धारित मानक प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया। परन्तु इस खून-खराबे के लिए जिम्मेदार कमांडर डीआईजी नलिन प्रभात का तबादला तो किया गया परन्तु एक साल बाद, सन् 2011 में, उन्हें वीरता पदक से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त, सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ अकारण युद्ध करने के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेती।


पुरानी कहानी, वही शिकायत

…यद्यपि सलवा जुडुम के नाम पर फैलाया जा रहा आतंक, नंदीग्राम की घटना से कहीं बड़ा और भयावह है परन्तु इसके बारे में मीडिया में बहुत कम खबरें प्रकाशित हुई हैं। उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत एक जनहित याचिका के अनुसार, जून 2005 से लेकर अब तक (नवंबर 2007) सलवा जुडुम और सुरक्षा बलों द्वारा कम से कम 540 नागरिकों को मौत के घाट उतारा गया है, जिनमें 33 बच्चे (इनमें से कुछ दो से पांच वर्ष के थे) और पैंतालीस महिलाएं शामिल हैं। यह संख्या सलवा जुडुम द्वारा असल में मारे गए लोगों का एक छोटा हिस्सा है, क्योंकि अधिकांश मौतों का कोई अभिलेख ही नहीं है। इनमें लगभग 550 वे नागरिक और पुलिसकर्मी शामिल नहीं हैं जिन्हें नक्सलियों ने सलवा जुडुम के खिलाफ तेज हो रही बदले की कार्यवाही में मारा है। सलवा जुडुम द्वारा कम से कम 2,825 घरों को जला दिया गया है और कम से कम 99 महिलाओं के साथ बलात्कार हुए हैं। लगभग 1 लाख लोग या जिले की आबादी का आठवां हिस्सा अपने घरों को छोडऩे पर मजबूर हो गए हैं। इनमें से आधे सरकार द्वारा नियंत्रित शिविरों में रह रहे हैं, जहां उन्हें जबरन पहुंचाया गया है और शेष आधे, पड़ोसी राज्यों में शरणार्थी हैं।

जनहित याचिका के साथ दाखिल सैकड़ों याचिकाओं में से एक, सलवा जुडुम द्वारा की गई हत्याओं और लोगों को दी गई यंत्रणाओं का वर्णन करने के बाद, मायूसी के भाव से पूछती है, “यह सब हमारे देश में क्यों हो रहा है? यह सब छत्तीसगढ़ में क्यों हो रहा है? छत्तीसगढ़ की सरकार ऐसा क्यों कर रही है? क्या हमने मुख्यमंत्री को इसके लिए चुना था?” इसके बाद भी सलवा जुडुम द्वारा किए गए अत्याचारों की खबर किसी राष्ट्रीय अखबार के पहले पन्ने पर जगह नहीं पा सकी, ना ही सांसदों का कोई दल प्रभावित लोगों से मिलने पहुंचा और ना ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्यों ने वहां जाने की जहमत उठाई।

इस साल 5 नवम्बर को जब जगदलपुर में सलवा जुडुम के खिलाफ और टाटा व एस्सार द्वारा अपने स्टील कारखानों के लिए जमीन के अधिग्रहण का विरोध करते हुए दो लाख लोगों ने रैली निकाली, तब राष्ट्रीय अखबारों ने इस पर एक शब्द नहीं लिखा। अगर जमीन के अधिग्रहण या सलवा जुडूम के समर्थन में, 10 हजार लोगों ने भी रैली निकाली होती तो यह कल्पना करना मुश्किल है कि मीडिया में उस पर कोई रिपोर्ट नहीं छपती।

मीडिया की इस चुप्पी का एक कारण उसका स्वभावगत वामपंथ-विरोध है। इसके अलावा, मीडिया की ‘संतुलन’ की अपनी अजीब-सी परिभाषा है…परन्तु मीडिया सब कुछ नहीं है…छत्तीसगढ़ में आदिवासी मध्यम वर्ग नहीं हैं और आदिवासियों के सामाजिक/राजनीतिक संगठनों की संख्या बहुत कम है। कई राष्ट्रीय अखबारों के छत्तीसगढ़ में संवाददाता ही नहीं हैं, क्योंकि यह एक नया राज्य है। एकता के एक अभूतपूर्व प्रदर्शन में, कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने संयुक्त रूप से उग्रवाद का कड़ाई से मुकाबला करने की मांग उठाई। सबसे बड़ी बात यह है कि छत्तीसगढ़ में ‘पब्लिक सिक्युरिटी एक्ट’ लागू है जिसके सेन्सरशिप-संबंधी प्रावधान, पोटा से भी कड़े हैं और जिसका इस्तेमाल सरकारी जुल्म का विरोध करने वाले पीयूसीएल के महासचिव बिनायक सेन जैसे लोगों को प्रताडि़त करने के लिए किया जाता रहा है।

नंदिनी सुंदर, आउटलुक, 27 नवम्बर 2007


सरकार किस तरह अपने ‘कमतर नागरिकों’ की हत्याओं, उनके साथ बलात्कार, उनके घरों और खलिहानों को आग के हवाले किए जाने की घटनाओं को नजरअंदाज कर रही है और इस बात की कोई फिक्र नहीं कर रही कि उनके पास भोजन का अभाव है और वे भूख से मर रहे हैं-यह खबर राष्ट्रीय चैनलों पर कभी प्रसारित नहीं की जाती। वैसे भी, जल्दी ही यह सब भुला दिया जाएगा, तब तक के लिए जब तक माओवादी एक बार फिर हमला नहीं करते और फिर हम देखेंगे कि एक के बाद एक सब चैनल ‘ब्रेकिंग न्यूज’ प्रसारित कर रहे होंगे, जिनमें गरीब आदिवासियों को आतंकवादी, दानव और हत्यारे बताया जाएगा और चैनलों के एंकर चिल्ला-चिल्लाकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर कटु हमले करेंगे।

– कविता श्रीवास्तव, द हिन्दू, 10 अप्रैल 2011
(कविता श्रीवास्तव पीयूसीएल, राजस्थान की राष्ट्रीय सचिव हैं)


मैंने दरबाघाटी के बारे में सभी रिर्पोटों को नहीं पढ़ा है परन्तु जो कुछ भी मैंने पढ़ा और देखा, उसमें शामिल था कत्लेआम (27 मई 2013) की विस्तार से जानकारी, उसकी राजनीतिज्ञों (आश्चर्यजनक रूप से नरेन्द्र मोदी द्वारा भी) द्वारा निंदा और ‘महेन्द्र कर्मा के सलवा जुडुम की खूनी विरासत’।

इसमें कहीं भी इस घटना की पृष्ठभूमि पर चर्चा नहीं थी। इसके एक सप्ताह पहले, छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के ईहादसमेता गांव में सुरक्षाबलों ने आठ नागरिकों को मार डाला था। तीन मृतक नाबालिग थे। गांव वाले वार्षिक बीज त्योहार मनाने इकट्ठा हुए थे। (मुझे याद नहीं पड़ता कि सोनिया गांधी या उनके सुपुत्र संबंधित परिवारों को सांत्वना देने गांव पहुंचे हो या प्रधानमंत्री ने वहां की यात्रा की हो)। एक साल पहले इसी जिले में सुरक्षाबलों ने 17 ग्रामवासियों को मार डाला था। ऐसा कहा जाता है कि कर्मा को निशाना बनाने के अतिरिक्त, यह हमला ‘उनके’ गांव वालों की पिछले सप्ताह हुई हत्याओं का बदला लेने के उद्देश्य से भी किया गया था। एक उद्देश्य यह भी था कि सरकार द्वारा मानसून के पहले बस्तर में चलाए जाने वाले नक्सली विरोधी अभियान को पटरी से उतार दिया जाए। घटना के मीडिया कवरेज में इन पक्षों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

– मिसिंग द माओइस्ट मार्क, किशलव भट्टाचार्जी, न्यूजलाण्ड्री डाट कॉम, 27 मई 2013

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

नंदिनी सुन्दर

नंदिनी सुंदर दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं। उन्होंने छतीसगढ़ के आदिवासी समाज का वर्षों तक नजदीकी से अध्ययन किया है और वे इस राज्य में मानवाधिकारों के उल्लंघनों की आलोचना करती रही हैं। उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर राज्य पोषित निगरानी समूह, सलवा जुडुम, पर प्रतिबंध लगाने के लिए जनहित याचिका दायर किया, जिसके चलते सलवा जुडुम पर प्रतिबंध लगा। नंदिनी सुंदर 2007 से लेकर 2011 तक ‘कॉन्ट्रिब्यूशन टू इंडियन सोशियोलॉजी की संपादक थीं और बहुत सारे जर्नलों के बोर्ड की सदस्य रही हैं। उनकी हाल की किताब ‘दी बर्निंग फारेस्ट : इंडियाज वार इन बस्तर’ (जुग्गरनाउट, 2016) है

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