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एक मनोहारी विज्ञापन के रूप में इतिहास

अनिल चमड़िया के मुताबिक, इतिहास पर गर्व तभी किया जा सकता है कि जब इतिहास को उसके इकहरेपन में नहीं देखा जाए। संपूर्णता में इतिहास को जानना न केवल गर्व का भाव पैदा करता है बल्कि उसके प्रति एक भरोसा भी पैदा करता है। चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता का विकास करता है

मीडिया समीक्षा

हमारे देश में दूध की नदियां बहती थीं। देश को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। इतिहास का ऐसा प्रचार कौन करता है? और कौन उसे जस का तस स्वीकार करता है? यह प्रचार, आस्था का भाव पैदा करना चाहता है यही उसकी सफलता की कसौटी भी है। शायद ही कोई इस प्रचार सामग्री पर गर्व नहीं करता हो। पत्रकारिता के मेरे विद्यार्थी भी इतिहास को ठीक तरीके से समझने के संकट से जूझते हैं। उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि इतिहास को लेकर जब राजनीति होती है, तो इतिहास के सच को कैसे समझा जाए? मुझ जैसे लोग इतिहास की राजनीति पर व्याख्यान देकर उनकी इस शंका को दूर नहीं कर सकते। युवा पीढ़ी को सैद्धांतिक बातें कम अच्छी लगती हैं। वह उदाहरणों से अपने सवालों का जवाब चाहती है।

वह अपने इतिहास पर गर्व करते रहना चाहती है और इतिहास पर गर्व तभी किया जा सकता है कि जब इतिहास को उसके इकहरेपन में नहीं देखा जाए। संपूर्णता में इतिहास को जानना न केवल गर्व का भाव पैदा करता है बल्कि उसके प्रति एक भरोसा भी पैदा करता है। चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता का विकास करता है। मैंने उन्हें बताया कि हां, देश में कभी दूध की नदियां बहती होगीं। लेकिन नदियों का दूध सबके हिस्से में नहीं आता था। सोने की चिडिया, यह देश होगा लेकिन देश की आम आबादी के लिए इसका कोई महत्व न था। केवल संपन्नता काफी नहीं होती। उसका वितरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

इतिहास को जिस तरह से पढाया जाता है, वह कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं है। मैंने अपने विद्यार्थियों से कहा कि आज से सैकड़ों वर्षों बाद, जब इतिहास पढ़ाया जाएगा। तब वर्तमान में जो स्थिति है, उसके विवरण की भाषा क्या होगी? देश की विकास दर नौ-दस प्रतिशत थी। देश में विदेशी मुद्रा कोष में सबसे ज्यादा माल था। परन्तु क्या दस प्रतिशत की विकास दर को हासिल करने के दौर में बेतहाशा गरीबी नहीं है? लाखों किसानों ने आत्म-हत्या नहीं की? भूख से मौतें नहीं हुईं? बेटियां नहीं बिकीं और नहीं मारी गयीं?

सरस्वती नदी धरती के नीचे समा गई और उसके बारे में तरह-तरह की वजहें प्रचारित की जाती है। लेकिन गंगा-यमुना को कौन-सी सामाजिक, आर्थिक शक्तियां बर्बाद कर रही है, यह तो हमारी आंखों के सामने हैं। इसका कोई धार्मिक कारण भी नहीं है।

परन्तु इतिहास तो केवल दस प्रतिशत की विकास दर की बात करेगा। इतिहास में संघर्ष, एक नई व्यवस्था को खड़ी करने के लिए होता है। वह एक भाषा निर्मित करता है। भाषा, संस्कृति की वाहक होती है। और वह व्यवस्था अपना रंग बदलती रहती है लेकिन अपने मूल स्वरुप को नहीं छोड़ती। मैने विद्यार्थियों के सामने यह सवाल रखा कि वे खुद सोचें कि कैसे एक भाषा हजारों-हजार वर्षों से  चल रही है। एक समय में वह दूध की नदियां होती है तो दूसरे काल में सोने की चिडिया। और आज उसने विदेशी मुद्रा भंडार का रूप अख्तियार कर लिया है। यह एक तरह से शासक की भाषा है और  शासक वर्ग अपने इतिहास को कायम रखे हुए है। जब हम दूध की नदियां, सोने की चिडिय़ा कहते हैं तो संघर्ष की धारा को इसके जरिये दबाते हैं। इस नये दौर में विदेशी मुद्रा भंडार और उसके विकास के लिए संघर्ष की धारा को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। इसके साथ, यह भी महसूस किया जा सकता है कि ये संघर्ष किसके होते हैं? दूध की नदियां और सोने की चिडिय़ा का यह समाज हजारों वर्षो से अपनी जगह पर कायम है। क्योंकि मृगमरीचिका की तरह, वह रूप बदलता रहता है। वह एक छल पैदा करता है। यही उसकी बड़ी विशेषता है। इतिहास को बरकरार रखने के साथ, किसी भी काल में बनने वाली संघर्ष की किसी भी नई धारा को रोकने की चुनौती को भी वह स्वीकार करता है। यही इतिहास की राजनीति होती है। दूध की नदियां और सोने की चिडिय़ा का प्रचार, संघर्ष की नई धारा को सबसे ज्यादा कारगर तरीके से बाधित करता है। इससे ज्यादा सुखद और आरामदायक बात और क्या हो सकती है कि इतिहास को बिना किसी जांच पड़ताल के ग्रहण कर लिया जाए। इतिहास को मनोहारी विज्ञापन की तरह ग्रहण करने के खतरे समाज को झेलना पड़ते हैं परन्तु उससे लाभ केवल और केवल शासक को होता है।

हम इतिहास के प्रचार से इतने गहरे तक प्रभावित हैं कि इतिहास को वैसा ही देखना चाहते हैं और यदि उसे वास्तविक कहकर स्थापित किया जाता है तो उसे स्वीकार करने की होड़ खड़ी कर देते हैं। इतिहास के साथ तर्क जुड़ा होता है। इतिहास भक्ति नहीं पैदा करता है। इतिहास को जानने समझने के लिए बड़ी बड़ी पोथियां नहीं पढऩी पढ़तीं। इतिहास के प्रति चेतना विकसित करनी होती है। आज जो व्यवस्था है उसके भीतर जो सवाल खड़े होते है वही इतिहास को समझने के तर्क होते हैं। इतिहास के राजनैतिक संघर्ष में सत्ताधारी बराबर सवालों को दबाता है। और यह वह गर्व, उपलब्धि, गौरव,  रोमांच,  आकर्षण आदि के जरिये करता है। अक्सर यह दावा किया जाता है कि अतीत में हमने कितना वैज्ञानिक विकास किया था। क्या नहीं था अपने पास? हवाई जहाज की जगह उडऩ खटोला था। इतिहास का व्यापार करने वाले चैनलों ने तो यह भी ढूंढ निकाला है कि सत्रह लाख साल पहले रामायाण के खलनायक रावण का श्रीलंका में हवाई अड्डा भी था। टीवी के बक्से की जगह तब अंगूठे के नाखून थे। महाभारत की पूरी लड़ाई उसी पर देखी गई थी। आधुनिकतम हथियारों की तरह की मिसाईलें थी। लेकिन यह सवाल क्यों नहीं किया जा सकता है कि तब का समाज कैसा था? समाज में किसकी क्या स्थिति थी? कम से कम आज के इन विकासों के आलोक में तो यह साफ साफ देखा जा सकता है। निश्चित ही वह टेलीविजन पर नहीं देखा जा सकता है बल्कि अपने अपने अंगूठे के नाखून पर ही देखा जा सकता है कि तमाम तरह के आधुनिकतम विकास के बावजूद किस हद तक समाज में गैर बराबरी है। इतिहास की लड़ाई इतनी सीधी-सपाट नहीं है, जितनी कि उसकी प्रचार सामग्री होती है। इतिहास का कोई एक पहलू ही नहीं होता है। वह सतह पर स्थापित किया जाता है ताकि इतिहास में जो धारा अपनी सत्ता बनाए हुए है वह यथावत बनी रहे।

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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