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‘उदार’ भारत में दलित

भारत में परंपरा से बहुजन समाज कारीगरों, श्रमिकों और किसानों का समाज रहा है। राज्याश्रित समाजवादी ढ़ांचे की अर्थव्यवस्था ने इसका अपेक्षित उपयोग नहीं किया। इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। लेकिन अब क्या हो, जब मुक्त अर्थव्यवस्था ने मार्केट सेन्ट्रिक ग्रोथ की आधाारशिला रख दी है और राज्य ने अपने हाथ खींच लिए हैं। बता रहे हैं प्रेमकुमार मणि

दलित समुदाय आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अथवा विकास क्रम को किस तरह देखता है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या वह उदारीकरण का समर्थन करता है या उसका विरोध? प्रश्न यह भी है कि उदारीकरण किसके हित में है? या यह सबके हित में है? सवाल यह भी हो सकता है कि क्या उदारीकरण को रोका जा सकता है, या रोका जाना चाहिए?

सबसे पहले हम इस बुनियादी सवाल को लें कि उदारीकरण से किसका उदारीकरण हुआ? क्या वह व्यवस्था उदार हुई, जिसे समाजवादी अथवा समाजवादी ढांचा कहा गया था? समाजवादी ढांचे की जो अर्थव्यवस्था थी, वह समाजवादी व्यवस्था नहीं थी। समाजवाद के केवल कुछ उसूलों को उसने  अपनाया था। निजी पूंजी पर बहुत चोट नहीं की गयी थी, लेकिन इसके समानांतर सार्वजनिक क्षेत्र के रुप में राज्य ने एक औद्योगिक ढांचा खड़ा किया था। निजी उद्यम पर रोक नहीं थी, लेकिन नियंत्रण जरुर था। इस व्यवस्था का एक झटके में अंत हो गया। तथाकथित समाजवादी ढांचे की छुट्टी कर दी गयी, उद्योग और बाजार पर सरकार ने अपनी पकड़, अपना नियंत्रण छोड़ दिया। अब सरकार और बाजार आमने-सामने थे। या कहें कि बाजार के बीच सरकार थी।

राज्य संपोषित अथवा केन्द्रित अर्थव्यवस्था, अब बाजार केन्द्रित, मार्केट सेन्ट्रिक हो गयी थी। अचानक  हुई इस उलट-पुलट ने दलित-पिछड़ों को भौंचक कर दिया। उन्हें यह लगा कि उनके सामूहिक हितों, कलेक्टिव इंटरेस्ट की धज्जियां उड़ा दी गयी है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एक-एक कर उखड़ऩे लगे और एनडीए राज में जब व्यापक विनिवेश नीति अपनाई गयी तब ऐसा लगा कि बहुजनों का मटिया-मेट हो जायेगा।

यह वह समय था जब बहुजनों की पहली या दूसरी पीढ़ी स्कूल जा रही थी। अंग्रेजी पर इस तबके की पकड़ मजबूत नहीं थी और ज्यादा से ज्यादा एक छोटा वर्नाकुलर लिटरेट तबका बन सका था, जिसके ज्यादातर लोग सरकारी नौकरियों में थे। शायद इसीलिए कांशीराम ने मजदूरों को संगठित करने की बजाय इस तबके को संगठित करना जरुरी समझा और बामसेफ के रास्ते इनका राजनीतिकरण किया। उदारीकरण के बाद इनके बीच निराशा की स्थिति थी क्योंकि सरकारी नौकरियां घटने लगी थीं। दलित-पिछड़ों के बीच यह बात चर्चा में थी कि सत्ता में बैठे ब्राह्मणों ने षडयंत्र किया है। आरक्षण ने सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी को संकुचित किया तो उन्होंने विश्वामित्र की तरह एक अभिनव स्वतंत्र बाजार की संरचना कर डाली। यह बाजार उच्च तबके अर्थात सवर्णों का अभयारण्य है, ऐसा प्रचारित हुआ।

लेकिन क्या यह दृष्टि का केवल एक कोण ही नहीं है? दलितों से जुड़े मुद्दों पर विचार करने वाले चंद्रभान प्रसाद या गेल ऑम्वेट जैसे लोग मुक्त अर्थव्यवस्था अथवा उदारीकरण के पक्षधर क्यों हैं?

गेल ऑम्वेट के एक लेख का स्मरण कर रहा हूं। ‘द हिन्दू’, 1 जून 2000 में छपे इस लेख में उन्होंने बतलाया है कि कारपोरेट सेक्टर में सबसे अधिक ब्राह्मण हैं और ओबीसी के लोग महज 4.5 प्रतिशत हैं। बनिया जाति की संख्या भी ब्राह्मणों के लगभग आधी है। उनके इस आंकड़े पर मैं चौंका था। लेकिन आंकड़े तो आंकड़े होते हैं।

मुक्त अर्थव्यवस्था में ब्राह्मणों के और अधिक मजबूत हो जाने की संभावना के बावजूद, गेल इस व्यवस्था का समर्थन करती हैं तो इसके अर्थ हैं।

इसके उलट, ब्राह्मणवादी सामाजिक-राजनीतिक समूह स्वदेशी के बैनर तले मुक्त अर्थव्यवस्था का विरोध कर रहा है। कम्युनिस्ट भी ऐसा ही कर रहे हैं। यह एक अजीब गुत्थी है।

सवाल उठता है कि कॉरपोरेट सेक्टर में क्या ब्राह्मणों का वर्चस्व आजादी के पहले से है? इसका जवाब थोड़ा मुश्किल है। पहली बात तो यह है कि आजादी के पहले कॉरपोरेट सेक्टर ऐसा था ही नहीं। बनियागिरी थी और उद्योगों के नाम पर कपड़ा उद्योग थे। इसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं था। कपड़ा उद्योग में ब्राह्मण मजदूरों की संख्या अच्छी थी। वस्त्र बनाने और चौके में शुद्रों का प्रवेश  निषिद्ध था, छुआछूत भाव के कारण और इसके बल पर ब्राह्मण नेता बालगंगाधर तिलक को मजदूर नेता बनने का भी अवसर मिला था। लेकिन औद्योगिक घरानों में उनकी संख्या बड़ी नहीं थी। इस क्षेत्र में उनका विस्तार नेहरु युग के बाद हुआ। इनके कारणों पर शोध होना अभी शेष है। लेकिन इतना तय है कि स्टेट सेन्ट्रिक ग्रोथ ने इसे बल दिया। यह सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर हुआ। सरकारी क्षेत्र के उद्योगों में कोई भी ऐसी इकाई नहीं थी जिसके प्रबंधक बहुजन तबके, दलित-ओबीसी से आते हों। निजी क्षेत्र में कोटा-परमिट राज ने सवर्ण वर्चस्व को इसलिए मजबूत किया क्योंकि राजसत्ता पर वे ही काबिज थे। लाइसेंस-परमिट लेना सब के लिए आसान नहीं था। बनियों की संख्या कम होने के कारण भी यही थे। नियंत्रित अर्थव्यवस्था में उद्योग खड़ा करने के लिए पूंजी से ज्यादा पहुंच की जरूरत थी।

सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के उद्यम के बीच एक सीधा अंतर यह भी था कि सरकारी क्षेत्र के उद्यम् अतिरिक्त श्रम, अथवा श्रमिक का भार झेल रहे थे। जबकि निजी क्षेत्र अतिरिक्त पूंजी की बीमारी से ग्रस्त थे। प्रबंधकीय कौशल के अभाव और बेजा सरकारी हस्तक्षेप से मनमानी नियुक्तियां हुईं। नेहरू ने जब उद्योगों को भारत के नये मंदिर की संज्ञा दी तो ब्राह्मणों (अर्थ पूरा द्विज तबका) ने उसे बहुत ही रुढ़ अर्थो में देखा। ब्राह्मण अकुशल श्रमिक थे। इन लोगों ने पब्लिक सेक्टर को भारी घाटे में ला दिया, जिसने अंतत: इसे विनाश की ओर धकेल दिया।

भारत में परंपरा से बहुजन समाज कारीगरों, श्रमिकों और किसानों का समाज रहा है। राज्याश्रित समाजवादी ढ़ांचे की अर्थव्यवस्था ने इसका अपेक्षित उपयोग नहीं किया। इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। लेकिन अब क्या हो, जब मुक्त अर्थव्यवस्था ने मार्केट सेन्ट्रिक ग्रोथ की आधाारशिला रख दी है और राज्य ने अपने हाथ खींच लिए हैं।

कुछ लोग मानते है कि देशी अर्थव्यवस्था को ही मुक्त करने की जरुरत थी। इससे कारीगरों, श्रमिकों और किसानों का हितलाभ होता। कोटा-परमिट राज खत्म होना चाहिए था किन्तु ग्लोबल अर्थव्यवस्था से भारत को बचा कर रखा जाना चाहिए था।

क्या यह वही तबका नहीं है जो पश्चिम और पोप से डरता है, इसे लगता है कि कोई हमें ठग लेगा। हमें आविष्ट कर लेगा और हमारी निजता अथवा पवित्रता नष्ट हो जायेगी। रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ के नायक गौरमोहन की तरह शुचिता बोध से ग्रस्त यह तबका वास्तविक ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिचय देता है। इसके साथ वे वामपंथी ताकतें भी है, जिनके तर्क तो पृथक हैं लेकिन दिशा एक ही है।

दलित-बहुजन मुक्त अर्थव्यवस्था का न ज्यादा अभिनंदन कर रहे हैं और ना ही उससे ज्यादा भयभीत हैं। ग्लोबल अर्थव्यवस्था ने देशी बनिया ब्राह्मणवादी अर्थव्यवस्था को चुनौती दी है और उम्मीद की जाती है कि अंतत:, वह उसे ध्वस्त कर देगी। इसे बहुजन नजरिया सकारात्मक मानता है। लेकिन आखिर क्या है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और नेहरु युग की समाजवादी अर्थनीति दोनों से बहुजन व्यामोह पालते हैं? यह व्यामोह इसलिए है कि दोनों ने ब्राह्मण सामंतवादी अर्थनीति पर चोट नहीं की। नेहरु युग में हुए आर्थिक विकास को सामाजिक विकास से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सका। इसलिए इसका अपेक्षित फायदा दलित-पिछड़े नहीं उठा सके। इसके मुकाबले, उच्च जातियों के लोगों ने इसका भरपूर फायदा उठाया और पब्लिक सेक्टर पर पूरी तरह काबिज हो गये। उन्होंने समाजवादी व्यवस्था को ब्राह्मण-समाजवादी व्यवस्था में तब्दील कर दिया। अब केवल समाजवाद या सार्वजनिक क्षेत्र के नाम पर उनका भार उठाये रखना उसी तरह ठीक होगा जिस तरह सवर्णों के आरक्षण विरोधी संगठन ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ में निहित समानता शब्द को देखकर उनके मंसूबे को नजरअंदाज करना। समानता, सार्वजनिक क्षेत्र और यहां तक कि समाजवाद का अर्थ सवर्ण तबका अपनी तरह से लगाता है। दलित-पिछड़ों का पाठ अलग है।

अभी संक्रमण काल है और इसकी मुश्किलें हैं। बहुजन बाजार के बीच उपभोक्ता के रूप में खड़ा है, लेकिन उपभोक्तावाद की हाय-तौबा वह नहीं मचा रहा है। वह बाजार का अध्ययन कर रहा है। उसमें घुसने की तैयारी कर रहा है। ग्लोबल इकॉनॉमी ने इंडियन इकोनॉमी के ब्राह्मणवादी चरित्र को खारिज कर एक अनुकूल स्थिति का सृजन किया है। बहुजन इस स्थिति का लाभ उठाना चाहता है। उसके पास पूंजी नहीं है। ज्ञान शक्ति की कमी भी है, लेकिन इसकी भरपूर संभावना है। जिस साइंटिफिक टेम्पर की बात नेहरु करते थे वह इनकी जरूरत है। मार्क्स ने अपने ऐतिहासिक कम्युनिस्ट घोषणापत्र में दुनिया के मजदूरों का आह्वान किया था- हमारे पास खोने के लिए केवल बेड़ियां, गुलामी हैं और पाने के लिए सारा जहाँ। बहुजनों के पास आज खोने के लिए केवल अपना अज्ञान है और पाने के लिए सब कुछ। जोतिबा फुले ने उन्नीसवीं सदी में शूद्रों, बहुजनों के लिए एक मंत्र दिया था – ‘विद्या बिना गति गयी, गति बिना मति गयी, मति बिना वित्त गया, वित्त बिना शूद्र गया।’ अंबेडकर ने इसका रुपांतरण ‘एजुकेट, ओर्गनाईज एंड ऐजीटेट’ में किया। बहुजन इस अर्थ में भाग्यशाली हैं कि उनके नायक वैज्ञानिक चेतना से भरे हैं। कुंठित और काहिल नेतृत्व को उन्होंने ज्यादा तरजीह नहीं दी हैं। वे बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर से सीखते हैं। यही उनके सामाजिक दार्शनिक हैं।

बहुजनों के लिए सबसे जरूरी है शिक्षा। आज राज्य को समान शिक्षा के लिए पहल करनी चाहिए। शिक्षा में बहुस्तरीयता सबसे बड़ी चुनौती है। इसकी बिना पर मुक्त अर्थव्यवस्था के अनुकूल बनना बहुजनों के लिए मुश्किल होगा।

इसलिए आवश्यक है कि राज्य अपनी योजनाओं की दिशा बदले। फिलहाल सरकारी धन का बड़ा हिस्सा सड़क, पानी, बिजली पर खर्च होता है। यह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में खर्चे की ही तरह है। सड़क, पानी, बिजली पर होने वाले व्यय में बाजार को भागीदार बनाना चाहिए। राज्य अपना ज्यादा ध्यान अनिवार्य व समान शिक्षा, समुचित स्वास्थ्य और नरेगा जैसी योजनाओं के द्वारा न्यूनतम रोजगार उपलब्ध कराने पर दे। बहुजनों को इसके लिए सरकार पर दबाव बनाना चाहिए।

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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