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हिंदी विवि में सामंतवाद बनाम आदिवासियों के अधिकार

क्या यह आवश्यक है कि किसी आदिवासी का तब ही दमन हो सकता है जब वह दूरदराज के किसी जंगल में रहता हो? या क्या उसे एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय की शैक्षणिक टीम का सदस्य होने के बाद भी प्रताडि़त किया जा सकता है? ऐसा लगता है कि वर्धा के महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय यह समझते हैं कि वे जागीरदार हैं और विश्वविद्यालय, उनकी जागीर है

क्या किसी विश्वविद्यालय का कुलपति, जागीरदार की तरह व्यवहार करता है? क्या यह आवश्यक है कि किसी आदिवासी का तब ही दमन हो सकता है जब वह दूरदराज के किसी जंगल में रहता हो? या क्या उसे एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय की शैक्षणिक टीम का सदस्य होने के बाद भी प्रताडि़त किया जा सकता है? ऐसा लगता है कि वर्धा के महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय यह समझते हैं कि वे जागीरदार हैं और विश्वविद्यालय, उनकी जागीर है। राय, जो अपने सामन्तवादी व महिला-विरोधी वक्तव्यों के लिए चर्चा में रहे हैं, ने पिछले साढ़े चार सालों में विश्वविद्यालय में कार्यरत कई दलितों, ओबीसी व अल्पसंख्यकों के लिए परेशानियां खड़ी की हैं। हाल में उन्होंने विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी शिक्षक को निलंबित कर दिया।

शासकीय नियमों का मखौल : वी.एन. राय 28 अक्टूबर को कुलपति के पद से सेवानिवृत्त हो रहे हैं और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नियमों के अनुसार, अपनी सेवानिवृत्ति के तीन महीने पूर्व से वे न तो विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव कांउसिल की बैठकों की अध्यक्षता कर सकते हैं और ना ही नियुक्तियों, पदोन्नतियों व निलंबन जैसे सेवा-संबंधी मामलों में कोई निर्णय ले सकते हैं। परंतु राय को शायद नियमों से कोई खास लेना-देना नहीं है। उन्होंने 31 जुलाई को विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल की बैठक की अध्यक्षता की और एक अगस्त को उन्होंने आदिवासी प्राध्यापक को निलंबित कर दिया। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत, प्राध्यापक को पहले निलंबित किया गया और बाद में कारण बताओं नोटिस दिया गया। सूत्रों के अनुसार, अगस्त के आखिर में वे एक्जीक्यूटिव काउंसिल की एक और बैठक की अध्यक्षता करेंगे, जिसमें आदिवासी अध्यापक को विश्वविद्यालय की सेवा से बर्खास्त किए जाने का निर्णय लिया जायेगा।

क्या है मामला : डा. सुनील कुमार ‘सुमन’ एक युवा आदिवासी, अंबेडकरवादी हिन्दी अध्येता हैं। मूलत: बिहार के रहने वाले डा. सुनील कुमार ने जेएनयू से पढ़ाई की है और वर्तमान में वर्धा स्थित विश्वविद्यालय के हिन्दी साहित्य विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। वे देश में एससी/एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यक-विरोधी शक्तियों के खिलाफ समय-समय पर आवाज उठाते रहे हैं। वे खुलकर प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का साथ देते हैं और यह कुलपति को स्वीकार्य नहीं है।

मामले की शुरूआत हुई सुनील कुमार के निर्देशन में पीएचडी कर रही एक महिला छात्रा द्वारा अपना गाइड बदलने के अनुरोध के साथ। छात्रा ने आरोप लगाया कि गाइड द्वारा उसे मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है। गाइड ने अपने जवाब में कहा कि छात्रा, अनुसंधान के अपने काम में बहुत अनियमित थी और उनकी कोशिश यही रहती थी कि वे उसे और मेहनत करने के लिए प्रेरित कर सकें। अगर किसी विद्यार्थी-चाहे वह महिला हो या पुरूष-को ऐसा लगता है कि उसका अध्यापक या गाइड उससे जरूरत से ज्यादा मेहनत करवाकर उसे मानसिक रूप से प्रताडि़त कर रहा है तो बेहतर यही होगा कि विद्यार्थी अपना अध्यापक बदल ले। उक्त छात्रा ने ठीक यही करने का प्रयास किया। अपनी ‘शिकायत’ में उसने केवल अपने गाइड को बदलने का अनुरोध किया। यह अनुसंधान गाइड को बदलने के अनुरोध का एक साधारण मामला भर था। परन्तु इसके बाद जो कुछ हुआ, उससे ऐसा लगता है कि वीएन राय, प्रोफेसर सुनील कुमार पर झपटने के लिए मौके का इंतजार कर रहे थे। उन्होंने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया और पूरे मामले को यौन प्रताडऩा का रंग दे दिया। सवाल यह है कि यदि यह यौन प्रताडऩा का मामला था तो कुलपति को उसे विश्वविद्यालय की यौन प्रताडऩा समिति को सौंप देना चाहिए था। सही फोरम को मामले की जांच सौंपने की बजाए, कुलपति ने जानबूझ कर हिन्दी साहित्य विभाग के अध्यापकों की एक जांच समिति नियुक्त कर दी। समिति के सदस्यों में डीन व हिन्दी साहित्य विभाग के सबसे वरिष्ठ प्राध्यापक डा. सूरज पालीवाल शामिल थे। कुमार ने दो वर्ष पहले कुलपति से प्रो. पालीवाल की शिकायत की थी। उस शिकायत पर कुलपति द्वारा आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है। चूँकि जांच समिति के सभी सदस्य उसी विभाग से हैं अत: अपने साथी के खिलाफ आरोपों की जांच में उन सब के पूर्वाग्रहों ने भूमिका निभाई।

समिति की एकतरफा रिपोर्ट :

समिति की रपट अत्यंत एकतरफा है और आत्मनिष्ठ भी।

  1. यह रपट संतुलित नहीं हैं क्योंकि उसमें केवल शिकायतकर्ता के बयान दर्ज हैं। कुमार के जवाबी बयानों को उसमें शामिल नहीं किया गया है।
    2. बिना किसी आधार के समिति इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि कुमार के बयान, विश्वसनीय नहीं है। इस निष्कर्ष का कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया गया। समिति का यह निष्कर्ष उसके सदस्यों की व्यक्तिगत राय भर है।
    3. अपनी शिकायत और जांच समिति के समक्ष अपने बयान-दोनों में छात्रा ने केवल और केवल अपना गाइड बदले जाने की मांग की। उसने डा. कुमार के खिलाफ कोई शिकायत नहीं की। परन्तु इसके बावजूद उनके खिलाफ कार्यवाही की सिफारिश कर दी गई।
    4. छात्रा ने न तो ऐसा दावा किया और ना ही अनुरोध कि उसके साथ हुई मानसिक प्रताडऩा को यौन प्रताडऩा से जोड़ा जाए। अपनी शिकायत में उसने कहीं नहीं कहा कि उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कभी ऐसा लगा हो कि उसे दी जा रही ‘मानसिक प्रताड़ऩा’ का सम्बंध सेक्स से है। उसने कहीं नहीं कहा कि उसके साथ शारीरिक रूप से, शब्दों या इशारों में कोई सेक्स संबंधी गलत व्यवहार किया गया हो।
    5. जब यौन प्रताड़ऩा की शिकायत ही नहीं की गई तब समिति इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकती है कि यह यौन प्रताड़ऩा का मामला है?

अत: स्पष्ट है कि यह विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी शिक्षक को व्यक्तिगत बदले की भावना और जातिगत पूर्वाग्रहों के चलते प्रताडि़त किए जाने का मामला है।

(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

बलविंदर कुमार

बलविंदर कुमार मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और अल्टरनेटिव मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं। फिलहाल वे भारत जनसंदेश साप्ताहिक में कार्यरत है

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