हिंदी फिल्मों में दलित-बहुजन हमेशा से बेचारे ही दिखाए जाते हैं, फिर चाहे वह पुरानी फिल्में -अछूत कन्या, सुजाता, बूटपालिश, सदगति हों या नई दौर की लगान, वेलकम टू सज्जनपुर, राजनीति या आरक्षण। पुरानी फिल्मों में से ‘सुजाता’ फिल्म की अछूत-दलित कन्या पात्र ‘सुजाता’ का उदाहरण काफी है। इस पूरी फिल्म में ब्राह्मण-दलित संवाद स्थापित ही नहीं हो पाता। बस ब्राह्मण-ब्राह्मण का ही द्वंद्व है, जिससें एक दयालु-दाता आधुनिक ब्राह्मण और एक कट्टर ब्राह्मण का विमर्श उभरता है। दलित कन्या में कोई गुण नहीं खोज पाता, बस सामाजिक जिम्मेदारी के तहत ही वह स्वीकार्य होती है। आज की भी हर फिल्म में दलित चरित्र को समाज के दबावों के चलते हारना ही पड़ता है जबकि समाज में आज इस तबके की सफलता किसी से छिपी नहीं है। समाज को आईना दिखाने का दावा करना वाले भारतीय सिनेमा, में संविधान निर्माण के इतने वर्षों बाद भी न तो दलित की छवि बदली है और ना ही उसे वह सम्मान मिल पाया है, जो दूसरे वर्गों को प्राप्त है।
अगर बॉलीवुड की फिल्मों का अवलोकन करें तो यह साफ पता चलता है कि किस तरह से फिल्मों में जातीय वर्चस्व गहराई से पैठा हुआ है। हमारी फिल्में, मीडिया की ‘कल्टीवेशन थ्योरी’ के अनुरूप, कैसे बार-बार एक ही विचारधारा का संदेश हमारे मस्तिष्क में ठूंस रही हैं। फिल्मों के नाम से ही पता चलता है कि हिंदी सिनेमा, सवर्ण मानसिकता से बाहर नहीं निकला है। मि. सिंह वर्सेज मिसेज मित्तल (2010), मित्तल वर्सेस मित्तल (2010), रोकेट सिंह सेल्स मैन ऑफ द इयर (2009), सिंह इज किंग (2008), मंगल पांडे (2005 ), भाई ठाकुर (2000 ), अर्जुन पंडित (1976, 1999), क्षत्रिय (1993), राजपूत (1982), जस्टिस चौधरी (1983), पंडित और पठान (1977) – ये चंद उदाहरण हैं, जिन्हें फिल्मकारों के दिमाग की कथित ‘सृजनात्मक’ अभिव्यक्ति कहा जा सकता है! किसी निर्माता-निर्देशक को यह कभी नहीं सूझा कि वह दगड़ू, घीसा, चमारिन, देवार, दलित, दुसाध, मंडल, पासवान जैसी दलित-बहुजन जातियों के नाम पर फिल्म बनाएं। अगर दलित-बहुजन हमारे समाज का हिस्सा हैं, तो वे फिल्मों में क्यों नहीं दिखते और अगर दिखते भी हैं तो हमेशा पीडित-सताए हुए ही क्यों? दलित पात्रों में आत्मबोध, आत्मसम्मान, मनुष्यगत अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण क्यों नहीं दिखाए जाते?, वह अपने तिरस्कार पर विद्रोह करता नहीं दिखता? जबकि आज दलित इतना निरीह नहीं है। वह राजनीतिक रूप से संगठित होकर, अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए, सामान्य जन-जीवन में अपने तिरस्कार का प्रतिरोध करता देखा जा सकता है। पिछले तीन-चार दशक, भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं। फिर भी दलित, ‘लगान’ में कचरा ही कहलाया। ‘दिल्ली-6’ में जमादारिन से बच्चे कहते हैं कि ‘तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो’। यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता था।
फिल्म ‘राजनीति’ में दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है। लेकिन आखिर में वह सवर्ण माता, और शायद पिता भी, की संतान साबित होता है। अंतत: फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी प्रमुखता पा सका क्योंकि उसकी नसों में उसी सवर्ण राजनीतिक खानदान का खून था।
भले ही फिल्म ‘आरक्षण’ में आरक्षण को लेकर प्रकाश झा ने एक नया नजरिया प्रस्तुत करने की कोशिश की हो, फिर भी इस फिल्म से दलित और दलितों से जुड़े मुद्दे लगभग गायब हैं। इसी तरह, आमिर खान की फिल्म ‘पीपली लाइव’ ने एक साथ कई सवाल खड़े किए पर जो सवाल सबसे महत्वपूर्ण था, जिसको नजरअंदाज किया गया, वह था नत्था की जाति का सवाल। जरा गौर करें, नत्था जब सबसे पहली बार गांव के नेता से आर्थिक मदद मांगने जाता है तो उस नेता का नाम ‘भाई ठाकुर’ होता है। यह नाम कुछ और भी हो सकता था। पर यह तो एक बानगी मात्र है कि फिल्मों से लेकर समाज तक जातीय वर्चस्व कितने गहरे तक पैठा हुआ है। देखा जाए तो जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म ‘बेंडिट क्वीन’ ही दिखाई देती है, जो साधारण बहुजन स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी। इसके अलावा, शायद ही कोई ऐसी फिल्म है जिसने दलित-बहुजन प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा, जातिप्रथा पर प्रहार करता कभी नजर नहीं आया। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला हमारा फिल्म उद्योग देश की सबसे बड़ी आबादी को कैसे नजरंदाज कर सकता है, यह सवाल विचारणीय है। सिर्फ तकनीक के बेहतर हो जाने से फिल्म उद्योग का भला नहीं होने वाला है दलित कथानक के साथ होने वाले प्रयोगों के लिहाज से हिंदी फिल्म जगत को अभी एक लंबा रास्ता तय करना है।
(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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