h n

अनाज के लिए गिरवी बच्चे

यह सिर्फ मंगल या रामू की कहानी नहीं है। गांव में ऐसे ढेर सारे बच्चे हैं जो अनाज के लिए साहुकारों के यहां गिरवी हैं। इन मजदूरों का सेठ और साहुकार जमकर शोषण करते हैं। लेकिन हद तो यह है कि ये नाबालिग मजदूर या इनके परिवार के लोग, साहुकारों के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करते। वे साहुकारों को अपना अन्नादाता मानते हैं और अपने हालात को अपना भाग्य समझते हैं।

मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की देवेन्द्रनगर तहसील के राजापुर गांव में रहती हैं शुक्कनबाई। शुक्कनबाई के पांच लडके और तीन लड़कियां हैं। भूख और गरीबी के चलते उसके दो लड़के और पति गिरधारी गौड गांव से पलायन कर चुके हैं। परिवार के बाकी बचे लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। गांव में काम न मिलने से घर में फाकाकशी की नौबत आ गई। भूख से बचने के लिए शुक्कनबाई ने अपने 13 वर्षीय बेटे रामू को पड़ोसी जिले सतना के अतरेरा गांव में एक साहुकार के यहां छह बोरी अनाज के लिए साल भर के लिए गिरवी रख दिया। रामू अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए साहूकार के यहां बिना थके, बिना रुके, 24 घंटे काम करता है। साल भर उसे कोई छुट्टी भी नहीं मिलनी है। जब शुक्कन को उसकी याद आती है, वह उससे मिल आती है। इसी गांव के निवासी शक्ति गौड़ ने भी भूख से निपटने के लिए अपने नाबालिग बेटे मंगल को पांच क्विंटल अनाज के लिए गिरवी रखा है।

 

लेकिन ये सिर्फ मंगल या रामू की कहानी नहीं है। गांव में ऐसे ढेर सारे बच्चे हैं जो अनाज के लिए साहुकारों के यहां गिरवी हैं। इन मजदूरों का सेठ और साहुकार जमकर शोषण करते हैं। लेकिन हद तो यह है कि ये नाबालिग मजदूर या इनके परिवार के लोग, साहुकारों के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करते। वे साहुकारों को अपना अन्नादाता मानते हैं और अपने हालात को अपना भाग्य समझते हैं। इनका कहना है कि अगर हम साहुकारों की शिकायत करेंगे तो अगली बार, आवश्यकता पडऩे पर, हमें अनाज कौन देगा?

गांव की कुल ढाई हजार की आबादी में लगभग 500 लोग आदिवासी समुदाय से हैं। इस समुदाय में कोई पढा-लिखा आदमी नहीं है। सब दिहाडी मजदूर हैं। उन्हें सरकार की किसी योजना की सही जानकारी नहीं है। कई परिवारों के पास उनके गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने को प्रमाणित करने वाला राशन कार्ड भी है लेकिन उससे मिले अनाज से उनकी जरूरतें पूरी नहीं होती हैं। इसी गांव का एक निवासी है बेटूलाल चौधरी, जो थोडा पढा-लिखा है। बेटुलाल इन आदिवासियों के हक की बात करता है। उसका कहना है कि पिछले साल गांव के 28 बच्चे अनाज के लिए आस-पड़ोस के इलाकों में रहने वाले साहूकारों के यहां गिरवी रखे गए थे। बेटूलाल ने इसकी शिकायत जिले के तत्कालीन कलक्टर के.सी. जैन से की थी। लेकिन कलेक्टर ने उसकी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की। वर्तमान कलक्टर धनंजय सिंह भदौरिया ऐसी किसी भी जानकारी से अनभिज्ञता जाहिर करते हैं। वे कहते हैं कि अब मामले की जांच कराई जाएगी। गांव में भूख और गरीबी की भयावहता सिर्फ नाबालिगों को अनाज के लिए गिरवी रखने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि स्थिति इससे भी विकट है।

इसी गांव में है कल्पहाई मुहल्ला। यहां हालत यह है कि जिसके घर कोई बच्चा या कमाऊ हाथ नहीं है, वे भूखे मरते हैं। मुहल्ले में रहने वाले 60 वर्षीय नत्थू का कहना है कि वह घर में अनाज समाप्त होने पर घास की रोटी बनाकर उससे अपनी भूख शांत करते हैं। घास की रोटी सिर्फ नत्थू का ही नसीब नहीं है, यहां के कई बुजुर्ग आदिवासी, तंगी और बदहाली में जिंदा रहने के लिए कभी आटा और घास की लुग्दी से बनी रोटी खाकर गुजारा करते हैं तो कभी सिर्फ कंद-मूल से। एक विरोधाभास भी यहां के लोगों में है। स्वभाव से ये बड़े स्वाभिमानी हैं। भूखे रहते हैं लेकिन किसी से खाना मांगकर खाना इन्हें गंवारा नहीं है। गांव के अधिकांश गरीब आदिवासियों की यही कहानी है।

उल्लेखनीय है कि पन्ना, देश के 250 सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। यह मध्य प्रदेश के भी उन 24 पिछडे जिलों में से एक है जिसे सरकार की तरफ से मिलने वाले ‘बैकवर्ड रीजन ग्रांट फण्ड’ से विशेष राहत कोष मिलता है। पांच साल पहले बुंदेलखण्ड का यह इलाका, तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के दौरे को लेकर सुर्खियों में छाया रहा था। राहुल ने इस क्षेत्र का दौरा कर एक गरीब की झोपडी में रात गुजारी थी और उसके घर खाना भी खाया था। राहुल ने क्षेत्र के विकास के बाबत यहां के लोगों को कई आश्वासन भी दिया थे। लेकिन उनके वादे के पांच साल बाद भी यहां की जनता सूखा, भूख और गरीबी से जूझ रही है।

अभी हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने अन्नपूर्णा योजना की शुरुआत की है जिसमें गरीबों को हर महीने एक रुपए प्रति किलो की दर से गेहूं और दो रूपये किलो की दर से चावल दिया जाना है। कुल मिलाकर, एक परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज दिया जाना है। लेकिन इस योजना का लाभ लाभार्थियों तक पहुंचने में अभी वक्त लगेगा। जो योजनाएं पहले से चल रही हैं, उनका लाभ भ्रष्टाचार और अनियमितता के कारण सही लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहा है। क्षेत्र के कांग्रेसी विधायक श्रीकांत दूबे कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है, सरकार की इतनी सारी योजनाओं के होते हुए भी इनका लाभ ग्रामीणों तक नहीं पहुंच रहा है। इसके लिए जिम्मेदार जिला प्रशासन है।

हालांकि इलाके के एक मीडियाकर्मी के माध्यम से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मध्य प्रदेश मानवाधिकार आयोग ने इन स्थितियों का संज्ञान लिया है। आयोग ने सागर संभाग के आयुक्त आरके माथुर और कलक्टर धंनजय सिंह भदौरिया से इस मामले में जांच कर रिपोर्ट पेश करने को कहा है।

(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

हुसैन ताबिश

हुसैन ताबिश बिहार के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं

संबंधित आलेख

नई भूमिका में बिहार तैयार
ढाई हजार वर्ष पहले जब उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा यज्ञ आधारित संस्कृति की गिरफ्त में आ चुका था, यज्ञ के नाम पर निरीह...
अखबारों में ‘सवर्ण आरक्षण’ : रिपोर्टिंग नहीं, सपोर्टिंग
गत 13 सितंबर, 2022 से सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता को लेकर सुनवाई कर रही है। लेकिन अखबारों...
बहस-तलब : सशक्त होती सरकार, कमजोर होता लोकतंत्र
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था कि विचारों के आधार पर आप किसी को अपराधी नहीं बना सकते। आज भी देश की जेलों...
मायावती की ‘माया’ के निहितार्थ
उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद बसपा की हालिया तबाही पर कई मंचों पर विचार हो रहा होगा। आइए सोचें कि बसपा के इस...
यूपी में हार पर दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों ने पूछे अखिलेश और मायावती से सवाल
पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे...