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ध्यानचंद को ‘भारत रत्न’ के मायने

भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी को दुनिया में पहचान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले इस महान खिलाड़ी को अपने जीवनकाल में समाज और सरकार दोनों की बेरूखी का सामना करना पडा। एक बार अहमदाबाद के हॉकी मैच में लोगों ने उन्हें पहचाना तक नहीं। उनका अंतिम समय आर्थिक तंगी में गुजरा लेकिन सरकार ने उनकी कोई सुध न ली

‘हॉकी के जादूगर’ मेजर ध्यानचंद की याद भारत सरकार को इतने वर्षों बाद आई है। बहरहाल, कहते हैं कि ‘देर आए, दुरूस्त आए’! आखिरकार, गत 5 अगस्त, 2013 को भारत सरकार के खेल एवं युवा मामलों के मंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा सरकार से मेजर ध्यानचंद को भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ देने की सिफारिश करना स्वागतयोग्य है।

21 दिसंबर, 2011 को तत्कालीन राज्य मंत्री प्रदीप जैन ‘आदित्य’ ने 81 अन्य सांसदों, जिनमें बेनी प्रसाद वर्मा, सीपी जोशी, श्रीकांत जेना, शशि थरूर, लालचंद कटारिया, मोहम्मद अजहरूद्दीन, राजबब्बर, संजय निरूपम, मीनाक्षी नटराजन और अनु टंडन आदि प्रमुख थे, द्वारा हस्ताक्षरित पत्र प्रधानमंत्री को भेजा था, जिसमें ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग की गयी थी। लेकिन भारत सरकार ने उस समय यह मांग नहीं मानी थी।

मेजर ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद में 29 अगस्त 1905 को ओबीसी (कुशवाहा) परिवार में हुआ था। उनके पिता समेश्वर दत्त सिंह अंग्रेजी सेना में थे और हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे। ध्यानचंद 16 वर्ष की उम्र में सेना में शामिल हुए। बाद में वे भी सेना की तरफ से हॉकी खेलने लगे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर भारत की राष्ट्रीय हॉकी टीम में अपनी जगह बनाई। मेजर ध्यानचंद की अगुवाई में भारत ने तीन ओलंपिक गोल्ड मेडल -1928,1932 और 1936 में जीते। सन 1926 से 1948 तक के अपने खेल कैरियर में उन्होंने एक हजार से ज्यादा गोल किये जिनमें एक ही ओलंपिक मैच में चार गोल शामिल थे। गेंद पर उनका गजब का नियंत्रण था। उसे वे जैसे चाहते घुमा देते। उनकी इस कला के कारण उन्हें हॉकी का जादूगर कहा जाता है। क्रिकेट के बादशाह डॉन ब्रेडमैन ने उनके खेल को देखा था। ब्रैडमैन ने टिप्पणी की थी कि ‘क्रिकेट में जिस तरह से रन बनता है, वे उसी तरह से गोल करते हैं।’ 1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके खेल कौशल से हिटलर बहुत प्रभावित हुआ था और उन्हें जर्मन नागरिकता सहित कई अन्य सुविधाओं का प्रस्ताव किया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।

वे 1956 में 51 वर्ष की उम्र में मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए। उसी वर्ष उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया। ध्यानचंद के जन्मदिवस 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष 29 अगस्त के दिन ही खेलों के क्षेत्र में योगदान के लिए राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार, अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य पुरस्कार राष्ट्रपति द्वारा दिया जाता है। भारत में खेलों के क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण ‘लाइफ टाईम एचीवमेंट’ पुरस्कार का नाम ध्यानचंद पुरस्कार है, जो 2002 से शुरू किया गया है। उसी वर्ष उनके सम्मान में दिल्ली स्थित नेशनल स्टेडियम का नाम मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम रखा गया। भारतीय जिमखाना क्लब लंदन के एस्ट्रो-टर्फ हॅाकी पिच का नाम भी ध्यानचंद के नाम पर ही रखा गया है।

भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी को दुनिया में पहचान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले इस महान खिलाड़ी को अपने जीवनकाल में समाज और सरकार दोनों की बेरूखी का सामना करना पडा। एक बार अहमदाबाद के हॉकी मैच में लोगों ने उन्हें पहचाना तक नहीं। उनका अंतिम समय आर्थिक तंगी में गुजरा लेकिन सरकार ने उनकी कोई सुध न ली। लीवर कैंसर से पीडि़त मेजर ध्यानचंद जब इलाज के लिए एम्स पहुंचे तब उन्हें सामान्य वार्ड में भेज दिया गया, जहां 4 दिसंबर 1979 को उनकी मृत्यु हो गई।

भारत सरकार द्वारा दिये जाने वाले ‘रत्नों’, पद्मविभूषणों, जैसी विभिन्न पदवियों की सूची में दलित और पिछडे समुदाय के लोगों की संख्या नगण्य है। इस कारण पुरस्कारों की सवर्णों के बीच जाति आधारित बंटरबांट किये जाने के आरोप भी लगते रहे हैं। यदि भारत सरकार ने मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न पुरस्कार से नवाजा तो न सिर्फ यह एक महान खिलाडी का सम्मान होगा बल्कि इससे यह संदेश भी जाएगा कि हमारा देश अब विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक न्याय की आवश्यकता को महसूस करने लगा है।

(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अरुण कुमार

अरूण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से 'हिन्दी उपन्यासों में ग्रामीण यथार्थ' विषय पर पीएचडी की है तथा इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साईंस एंड रिसर्च (आईसीएसएसआर), नई दिल्‍ली में सीनियर फेलो रहे हैं। संपर्क (मोबाइल) : +918178055172

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