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दीक्षाभूमि पर एक दिन

दीक्षाभूमि पर इकट्ठा हुई भीड़ का चरित्र दतिया की भीड़ से एकदम अलग था...दीक्षाभूमि पर इकट्ठे लोग धर्म के साथ सामाजिक चेतना और उत्तरदायित्व के भाव से भी भरे थे

जिस दिन मध्यप्रदेश के दतिया जिले में श्रद्धालुओं की एक भीड़ अपने ही पैरों तले कुचलकर मारी गई, आहत हुई, उसी दिन मैं दतिया से कुछ सौ किलोमीटर दूर, नागपुर में दीक्षाभूमि पर हजारों की अनुशासित भीड़ के बीच था, जो दो दिन में 5 से 7 लाख की संख्या में दीक्षाभूमि पर इकट्ठी हुई थी, बाबासाहब आम्बेडकर के ‘धम्म चक्र प्रवर्तन’ दिवस की 57वीं वर्षगांठ मनाने। दीक्षाभूमि पर इकट्ठी हुई भीड़ का चरित्र दतिया की भीड़ से एकदम अलग था। यह दो प्रकार के धार्मिक भीड़ के बीच का फर्क था। दीक्षाभूमि पर इकट्ठी भीड़ को अचानक तेज बरसात का सामना करना पड़ा, ‘फेलिन’ तूफान के आने की खबर उन्हें जरूर होगी। यानी घबड़ाहट और आपाधापी के पर्याप्त कारण उनके पास लेकिन कोई भगदड़ नहीं हुई, सब कुछ शांतिपूर्वक चलता रहा। दीक्षाभूमि पर इकट्ठा लोग धर्म के साथ सामाजिक चेतना और उत्तरदायित्व के भाव से भी भरे थे।

लगभग 700 कमरों वाला आमदार निवास (विधायक विश्रामगृह), जहां मैं ठहरा हुआ था, दक्षिण भारत से आए बाबासाहब आम्बेडकर के अनुयायियों से भरा था-लगभग चार से पांच हजार की संख्या में। पूरा माहौल नीले रंग से रंग गया था, आम्बेडकरी बौद्धों के शांत उत्सव के वातावरण से। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक से आए लोग अपने-अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ आए थे। कुछ लोग झूम व गा भी रहे थे।

नागपुर में सुबह से बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। बरसात भी हुई, लेकिन लोग थे कि कतारबद्ध चले आ रहे थे दीक्षाभूमि में। पूरे नागपुर में और खासकर दीक्षाभूमि के इलाके में सामूहिक नाश्ता-भोजन के कई पंडाल लगे थे। लोगों को भोजन दान कर रहे इन पंडालों पर भी एक व्यवस्था थी। दीक्षाभूमि के एक बड़े भाग में सैकड़ों की संख्या में किताबों की दुकानें सजी थीं, जहां आम्बेडकरी किताबें खरीदने की शांतिपूर्ण होड़ लगी थी। यह देश की संभवत: पहली धार्मिक भीड़ होगी, जो लाखों रुपये की किताबें भी खरीदती है, दो दिनों में। वैसे बंगाल में भी सुना है कि पूजा पंडालों के साथ किताबों की दुकानें सजती हैं। भीम गीत के कैसेट, सीडी की दुकानें भी गुलजार थीं। बेहतरीन ऐतिहासिक महानाट्य के नाटककार और निदेशक अशोक जाम्भुलकर ने मुझे भी एक किताब भेंट की-बाबा साहब की ‘क्रांति-प्रतिक्रांति’।

इस धार्मिक भीड़ में कई तरह के चेहरे थे। ठेठ ग्रामीण मराठी ‘मानुस’ के चेहरे, तो अभी-अभी मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग में दाखिल हुई बौद्ध-दलित जमात के चेहरे। मेरे साथ अशोक काम्बले थे। वे कहते हैं, ‘इस भीड़ का वर्गीय स्वरुप हमेशा से ऐसा नहीं रहा है। कल्पना करिए कि सन् 1956 के तुरंत बाद कैसे-कैसे लोग अपनी फटेहाली के बावजूद, दो दिनों का अपना राशन-पानी लेकर उमड़ते होंगे यहां, खुले आसमान में सोना-खाना, आराधना और किताबों की खरीद। यही उत्सव थे उनके।’

धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस, 14 अक्टूबर, 1956 के दिन, 26 या 27 साल के रहे कविश्वर बहादुरे, जो अब 84 साल के हैं, ने उस दिन के रोमांच को साझा किया। ‘बाबा साहब ने कहा कि दीक्षा के लिए सफेद कपड़े में आना है। हड़कंप मंच गया। स्त्रियां सफेद कपड़े को अपशगुन मानती थीं, लेकिन बाबा साहब के कहने पर वे कुछ भी करने को तैयार थीं। लेकिन उतने कपडे कहां से आते? नागपुर के आस-पास की सारी मिलों के सफेद कपड़े खत्म हो गए, तब भी उतनी बड़ी संख्या के लिए वे कम पड़ गए। स्त्रियां तब 9 हाथ की साडिय़ां पहनती थीं। उपाय निकाला गया। बाबा साहब को समझाया गया, तो थोड़ी ढील दी उन्होंने और लोग दूसरे कपड़ों में भी आ सके।’ तब टेलर का काम करने वाले कविश्वर बहादुरे ने दिन-रात एक करके लोगों के कपड़े सिले।

इतना आसान भी नहीं था पुराने धर्म से अचानक से छुटकारा। बहादुरे जैसे अनेक लोगों ने जब अपने-अपने देवी-देवताओं को कुएं में फेंक दिया, तो उनकी माएं शाप की आशंका से भर गईं थीं। कविश्वर के बेटे राजू बहादुरे, जो नागपुर में पार्षद हैं, कहते हैं कि ‘यही स्त्रियां थीं, जिन्होंने बाबा साहब के कहे का अक्षरश: पालन भी किया। उन्होंने बाबा की शिक्षा के संदेश को गांठ की तरह बांध लिया और अपने बच्चों को पेट काटकर भी पढाया।’ बाबा साहब के प्रति लगाव को याद करते हुए कविश्वर बहादुरे कहते हैं कि ‘जब उनका निर्वाण हुआ तब मुंबई में चैत्य भूमि पर लाखों की संख्या में लोगों के विलाप हृदयविदारक थे।’

14 अक्टूबर, 1956 को धार्मिक क्रांति के बाद हासिल नई आस्था की जमीन, सामाजिक सरोकारों से लैस थी। लोगों को हिन्दू धर्म की जड़ता, छुआछूत से एक झटके में छुटकारा मिल गया। लोग मुक्त थे। मुक्ति यद्यपि एक क्रमिक प्रक्रिया है, अभी भी कुछ दलित-बौद्ध, जिनकी संख्या नगण्य है, पुरानी आस्था से मुक्ति की जद्दोजहद में लगे हैं। आमदार निवास के ठीक नीचे, चाय बेचने वाली बौद्ध महिला की दुकान पर डॉ. आम्बेडकर, भगवान बुद्ध और देवी लक्ष्मी के चित्र एक साथ देखना आपको चौंका सकता है। लेकिन यह मुट्ठीभर लोगों की आस्था से मुक्ति की जद्दोजहद का एक नमूना है।

हर साल की भांति, इस बार भी दीक्षाभूमि के मंच से नेताओं के भाषण हुए-सुशील कुमार शिंदे, शरद पवार, दादा साहब आरएस गवई आदि के। शिंदे ने दलितों के ‘स्वाभिमान’ की बात कही। जिसके बाद श्रोताओं के बीच धीमी प्रतिक्रिया थी, ‘कौन से स्वाभिमान की बात कर रहे हैं शिंदे साहब? उस स्वाभिमान की, जिसे उन्होंने कांग्रेस के पास गिरवी रख दिया है।’ महाराष्ट्र के दलित-बौद्धों का एक बड़ा तबका 1932 के पुणा पैक्ट से कांग्रेस से खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। महात्मा गांधी की शब्दावली ‘हरिजन’ के प्रति उनमें जबरदस्त गुस्से का भाव रहा है, जिसमें उन्हें दया, उपेक्षा और अपमान एक साथ दिखता है। 1940 के आस-पास जब महात्मा गांधी नागपुर आए थे तब उन्हें तब के किशोर, कविश्वर बहादुरे ने दलितों को हरिजन कहने के खिलाफ अपने साथियों के साथ मिलकर काले झंडे दिखाए थे। कविश्वर बहादुरे की कमर, महाराष्ट्र में नामांतर आंदोलन (मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम डॉ. आम्बेडकर के नाम पर रखने के लिए चलाया गया आंदोलन) के दौरान पुलिस की मार से टूट गई थी। तब से उन्होंने लाठी पकड़ ली है।

दीक्षाभूमि पर सामुदायिक अहसास से भरे, सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से लैस, धार्मिक समूह के बीच इतिहास और वर्तमान को एक साथ जीना एक सुखद अनुभूति थी।

(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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