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‘एशियन कालेज ऑफ जर्नलिज्म’ को नहीं मिल रहे दलित विद्यार्थी!

लेकिन शशि कुमार की चिंता दलितों और आदिवासियों को पत्रकार बनाने की है। इसीलिए उन्होंने एक कदम और आगे बढऩे का फैसला किया और फुल स्कॉलरशिप देने की घोषणा की है। लेकिन इन सबके बावजूद उन्हें दलित और आदिवासी विद्यार्थी नहीं मिल रहे हैं। आखिर क्या कारण हो सकता है?

‘द हिन्दू’ में 19 अगस्त, 2013 को एएस पन्नीरसेल्वन का मीडिया विषयों पर आधारित स्तंभ ‘फ्रॉम द रीडर्स एडीटर’ पढऩे के बाद इच्छा हुई कि शशि कुमार की कोशिशों और पन्नीरसेल्वन की उम्मीदों को लेकर बातचीत की जाए। एएस पन्नीरसेल्वन ने ‘भारतीय जनसंचार संस्थान’ (आईआईएमसी) से पत्रकारिता में प्रशिक्षित दलित समुदाय के सदस्यों की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त करने के बाद, ‘एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म’, चेन्नई के निदेशक शशि कुमार से उनकी बातचीत का हवाला दिया है। शशि कुमार ने उन्हें बताया कि 2004 से वे अपने इस शानदार संस्थान में चार सीटें दलितों के लिए सुरक्षित रखते हैं। दलित बच्चों के लिए खाना-पीना और यहां तक की रहने की व्यवस्था भी मुफ्त में हो सकती है। साथ ही, उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि ये सीटें नहीं भर पाती हैं। सीटें न भर पाने के कारण का उल्लेख किए बिना शशि कुमार बताते हैं कि दलितों के लिए इस मुफ्त कोर्स में दाखिले के लिए एक परीक्षा देनी होती है और उसमें कोई रियायत नहीं दी जाती। जाहिर-सी बात है कि एक भले आदमी की तरह, शशि कुमार ये नहीं कहते कि दलित बच्चे दाखिले की परीक्षा में भी नहीं आ पाते या फिर वे आते हैं तो दाखिले की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर पाते हैं। जबकि शशि कुमार मीडिया में दलितों की जगह बनाना चाहते हैं और इसके लिए एक नई योजना भी उन्होंने तैयार की है जिसके अंतर्गत दाखिले के लिए परीक्षा की तैयारी करवाने की भी व्यवस्था वे करेंगे और दलितों को इस काबिल बनाने की कोशिश करेंगे कि वे परीक्षा की लक्ष्मण रेखा को पार कर लें। इसी योजना को लेकर ‘द हिन्दू’ के ‘रीडर्स एडीटर’ ने उम्मीद जाहिर की है कि तब भारतीय मीडिया के समाचारकक्ष में दलितों के लिए बड़े पैमाने पर जगह बन सकेगी।

पत्रकारिता और टेलीविजन की दुनिया में शशि कुमार जाना-पहचाना नाम है। वे मीडिया डेवेलपमेंट फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं, जिसकी संस्था ‘एशियन कॉलेज ऑफ जनर्लिज्म’ है। पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए सैकड़ों की तादाद में संस्थान हैं। माना जाता है कि केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसे दो सौ से ज्यादा संस्थान हैं और वे सभी मीडिया में काम करने लायक बनाने के एवज में विद्यार्थियों से मोटी रकम वसूल रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे संस्थानों में इस तरह की सामाजिक जिम्मेदारी का बोध नहीं होता कि समाज का कोई ऐसा हिस्सा है, जिसके लड़के-लड़कियों को पत्रकारिता में लाना चाहिए। लेकिन शशि कुमार की पृष्ठभूमि न केवल एक पत्रकार की है बल्कि एक कार्यकर्ता की भी है। कार्यकर्ता की इस रूप में कि वे पत्रकारिता के पेशे को सामाजिक सरोकारों से जोड़कर देखते हैं।

मेरे पास भी दो-एक वर्ष पहले ‘द हिन्दू’ के दिल्ली स्थित ब्यूरो के प्रमुख सिद्धार्थ वरदराजन का फोन आया था। उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका मेल देखा? लेकिन उस मेल को पढ़कर मैं क्या प्रतिक्रिया देता, क्योंकि मुझे याद था कि पिछली बार भी शशि कुमार ने एक विज्ञापन निकाला था। उनका संस्थान पत्रकारिता में प्रशिक्षण के लिए देश के महत्वपूर्ण संस्थानों में से एक माना जाता है। लेकिन उनके विज्ञापन में एक बात बहुत खटकने वाली थी। उन्होंने अपने संस्थान में नामांकन के लिए काबिल और अच्छे दलित की ख्वाहिश जाहिर की थी। तब उस विज्ञापन ने एक सवाल खड़ा किया था कि जब ‘काबिल’ और ‘अच्छे’ जैसा विशेषण लगे हैं तो फिर साथ में दलित लगाने की क्या जरूरत है? क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि अब वे अपने संस्थान में दलितों का प्रवेश सुनिश्चित कर रहे हैं, जो पहले नहीं था। जैसे हिन्दुओं के मंदिर के दरवाजे दलितों के लिए खोलने की मेहरबानी की जाती है। लेकिन शशि कुमार की चिंता दलितों और आदिवासियों को पत्रकार बनाने की है। इसीलिए उन्होंने एक कदम और आगे बढऩे का फैसला किया और फुल स्कॉलरशिप देने की घोषणा की है। लेकिन इन सबके बावजूद उन्हें दलित और आदिवासी विद्यार्थी नहीं मिल रहे हैं। आखिर क्या कारण हो सकता है?

मैंने सिद्धार्थ से जानना चाहा कि दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध शहर में होने और इतनी सुविधाओं के बावजूद ‘एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म’ को दलित और आदिवासी विद्यार्थी क्यों नहीं मिल रहे हैं? मैंने सिद्धार्थ से कहा कि इस इलाके से दलित और आदिवासी विद्यार्थी अंग्रेजी की वजह से इस तरह के संस्थान में जाने की नहीं सोच पाते हैं। सिद्धार्थ ने तब बताया था कि उस संस्थान ने अंग्रेजी के भी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की है। यानी अंग्रेजी में काबिल बनाकर पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाएगा। लेकिन इन सब सुविधाओं के बावजूद अब तक उनके यहां उन समुदायों के विद्यार्थियों का एक भी आवेदन नहीं आया है जबकि उन्हें बीस सीटें दी जा सकती हैं।

एक तो अजीब बात है कि भारतीय समाज में दलितों की चिंता भारतीय भाषाओं में जीनेवाला समाज क्यों नहीं करता है? आज भी दलितों के बीच एक छोटा सा समूह है जो कि मैकाले की पूजा करता है। इस वर्ग का मानना है कि मैकाले की वजह से ही उनके बीच के लोगों ने अंग्रेजी सीखी और अंग्रेजी सीखने की वजह से ऊंचे पदों पर नौकरियां पाईं। बंगाल की पत्रकारिता के इतिहास को पढ़ते हुए भी मुझे कई संदर्भ मिले। उस दौर के समाचारपत्र ‘संवाद प्रभाकर’ को प्रगतिशील कहा जाता है लेकिन यह अखबार लिखता है कि नीची जाति के लोगों में अंग्रेजी सीखने की ललक बढऩे से एक नई तरह की सामाजिक समस्या खड़ी हो गई है। घोबी, नाई, बढ़ई और सफाईकर्मियों के परिवारों के लड़के काम चलाने भर अंग्रेजी सीखकर क्लर्क,  एजेंट और दूसरे पदों को हथिया रहे हैं। वे अपने परिवार का पेशा छोड़ रहे हैं। इससे नई तरह की सामाजिक समस्याएं खड़ी हो रही हैं।

अंग्रेजी भाषा के पत्रकारों ने ही भारतीय पत्रकारिता के ढांचे में दलित पत्रकारों की कमी की बहस को खड़ा करने में भूमिका अदा की। अंग्रेजी में चलने वाला ‘एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म’ ही दलित और आदिवासी विद्यार्थियों के लिए जगह बनाने के बारे में चिंता जाहिर कर रहा है। सरकारी संस्थानों में भारतीय जनसंचार संस्थान संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण की सुविधा के अनुसार दलित और आदिवासी विद्यार्थियों को कोटे की संख्या में प्रशिक्षित करता है। लेकिन उन्हें नौकरी कहां मिलती है? मेरा अपना अनुभव रहा है कि दलित व आदिवासी समाज से आने वाले विद्यार्थी प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद शायद ही अपनी दलित पहचान के साथ किसी भाषायी मीडिया संस्थान में नौकरी पाते हैं। नौकरी पाकर बड़े पदों तक पहुंचने का तो एक भी उदाहरण नहीं है। इस समुदाय के बहुत सारे विद्यार्थियों को सरकारी नौकरियों की तरफ ही जाने को बाध्य होना पड़ता है। अंग्रेजी में भी कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं कहीं जा सकती है। उत्तर पूर्व में दलित और आदिवासी मीडिया संस्थानों में जगह प्राप्त कर लेते हैं।

पहला सवाल तो भाषा और दलित के बीच संबंध का है। अंग्रेजी भाषा दलितों का एक हिस्सा ही सीख पाया है। अंग्रेजी यहां भाषा की तरह नहीं बल्कि शिक्षा और ज्ञान की तरह थोपी गई है। यहां अंग्रेजी आभिजात्य वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित रही है। दलित वर्ग का ऐसा हिस्सा सरकारी नौकरियों में ही जाना चाहता है। दूसरी बात भरोसे की भी है। जो समाज की स्थितियां रही हैं उनमें दलित और आदिवासी के लिए यह भरोसा करना बेहद मुश्किल है कि किसी तरह का कोर्स करने के बाद उसे नौकरी मिल सकती है। ये भरोसा केवल सरकारी संस्थान ही दिलाते हैं। ‘द हिन्दू’ का ‘एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म’ के साथ गहरा रिश्ता है। ‘द हिन्दू’ के एन राम, संस्थान के संचालकों में एक हैं। लेकिन उनके अखबार के बारे में रवि कुमार ने लिखा है कि 125 वर्षों के इतिहास में उनके संस्थान में संपादकीय में एक भी दलित को नौकरी नहीं मिली है। रवि कुमार इस समय तमिलनाडु में ‘दलित पैंथर’ के एकमात्र विधायक हैं और दलित लेखक के रूप में स्थापित हैं।

विद्यार्थियों की तलाश हो या फिर इस समुदाय से पत्रकारों की तलाश, उन्हें पत्रकारिता का पूरा ढांचा अभी ये भरोसा नहीं दिला सका है कि यहां उनकी जगह है। ‘एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म’ की दलित खोज वाकई एक दिलचस्प समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है। खबरें पत्रकारिता के जरिए मिलती हैं लेकिन यह खोज पत्रकारिता के बीच की एक खबर है। दरअसल भारतीय मीडिया ने ही नहीं हिन्दुत्ववादी व्यवस्था में रचे-बसे सभी तरह के संस्थानों ने दलितों का भरोसा खोया है। शशि कुमार दाखिले की परीक्षा की तैयारी करने में लगे हैं, परंतु दरअसल यह परीक्षा के पैमाने पर खरा उतरने से जुड़ा सवाल ही नहीं है। परीक्षा दर परीक्षा, मुफ्त दर मुफ्त आदि कई तरह की प्रक्रियाएं शशि कुमार तैयार कर लें लेकिन उन्हें तो दलितों के बीच अपना भरोसा बनाना है। भारतीय समाज में शशि कुमार और अंग्रेजी दोनों की ही संरचना वर्चस्ववादी मानी जाती है।

(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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