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दुर्गासप्तशती का असुर पाठ

पौराणिक युग में देवियों यानी आदि शक्ति के उभार पर डाॅ. अंबेडकर ने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। उनकी मान्यता है कि वैदिक युग में सारे देव युद्ध करते हैं, जो पुरुष हैं, उनकी पत्नियां युद्ध में नहीं जाती

हम सबने मार्कण्डेय पुराण में वर्णित ‘दुर्गासप्तशी’ की कथा पढ़ी है, हिंदू समाज में सुनी है या फिर दुर्गा पूजा अथवा नवरात्रि के धार्मिक आयोजन से थोड़ा बहुत जरूर परिचित हैं। मैं आपको एक मुण्डा आदिवासी कथा सुनाता हूं। कथा इस प्रकार है: जंगल में एक भैंस और भैंसा को एक नवजात बच्ची मिली। दोनों उसे अपने घर ले आए और लड़की को पालपोसकर बड़ा किया। अपूर्व सौंदर्य लिये हुए सोने की काया वाली वह बच्ची जवान हुई। उसके सोने-सी देह और अनुपम सौंदर्य की चर्चा कुछ शिकारियों के द्वारा राजा तक पहुंची। राजा ने छुपकर लड़की को देखा और उसके रूप पर मोहित हो गया। उसने उसका अपहरण करने की कोशिश की। तभी भैंस और भैंसा दोनों वहां आ गए। दोनों को आया देख राजा ने लड़की को बंधक बना लिया और घर का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। भैंस ने दरवाजा खोलने के लिए लड़की को बाहर से आवाज लगायी। लड़की बंधक थी। वह कैसे दरवाजा खोल पाती? उसने बिलखते हुए राजा से आग्रह किया कि वह उसे खोल दे। पर राजा ने लड़की को मुक्त नहीं किया। अंततः भैंस और भैंसा दोनों दरवाजा खोलने की कोशिश करने में सर पटकते-पटकते मर गए। उनके मर जाने के बाद राजा ने बलपूर्वक लड़की को अपनी रानी बना लिया।

आप सोचेंगे ‘दुर्गासप्तशी’ अथवा दुर्गा पूजा की कहानी जिसमें आदि शक्ति दुर्गा महिषासुर का वध करती है से इस आदिवासी कथा का क्या लेना-देना, इस पर बात करने से पहले एक और आदिवासी कथा का पाठ कर लेना उचित है। जिसे गैर-आदिवासी समाज नहीं जानता है। यह कथा संताल आदिवासी समाज में प्रचलित है। संतालों का एक पर्व है ‘दासांय’। जो दुर्गापूजा के समय ही साथ-साथ चलता है। इसमें संताल नवयुवकों की टोली बनती है। जो योद्धाओं की पोशाक में लैश रहते हैं। टोली के आगे-आगे अगुआ के रूप में कोई संताल बुजुर्ग होता है, जो प्रत्येक घर घुसकर गुप्तचरी का स्वांग करता है। दरअसल यह टोली प्रत्येक घर में अपने सरदार को खोजते हैं जो उनसे बिछड़ गया है। इस तरह टोली युद्ध की मुद्रा में नृत्य करते हुए आगे बढ़ती है। इस संताल आदिवासी परंपरा ‘दासांय’ में टोली जिस सरदार को खोजती है उसका नाम दुरगा होता है। जो अपने दिशोम (देश) में दिकुओं (बाहरी लोग) के अत्याचार और प्रभाव के खिलाफ अपने योद्धाओं के साथ युद्ध करता है। उसके बल और वीरता से दिकु पराजित हो भयभीत रहते हैं। अंत में दिकु लोग छल का सहारा लेते हैं। उसे धोखे से बंदी बनाकर उसकी हत्या करने के लिए एक खल-स्‍त्री से सहायता मांगते हैं। वह स्‍त्री सवाल करती है, ‘इसमें उसका क्या लाभ?’ तो फिर पुजारी वर्ग उसे आश्वस्त करते हैं कि अगर अपने जाल में फाँस कर वह दुरगा को बंदी बनाने में साथ देगी तो युगों-युगों तक उसकी पूजा होगी। इस तरह से संतालों का सरदार ‘दुरगा’ बंदी होता है और मार डाला जाता है। आदिवासी सरदार दुरगा को मारने के ही कारण उस स्‍त्री को  दुरगा  की उपाधि मिली। उसे मारने में नौ दिन और नौ रात लगे थे इसीलिए नवरात्रि का चलन शुरू हुआ। इस तरह से दुरगा पूजा की शुरुआत हुई। बंगाल इसका केंद्र बना क्योंकि मूलतः संतालों की आबादी पुराने अंग-बंग से सटे इलाके अर्थात् मानभूम में निवास करती थी। इसी कारण दुर्गा प्रतिमा तभी बनती है जब वेश्यालय की एक मुट्ठी मिट्टी उस मिट्टी में मिलाई जाय, जिससे मूर्ति का निर्माण होना है। इस दूसरी आदिवासी कथा से आप पहली कथा, जिसमें जंगल, भैंस और सोने की काया वाली लड़की का रूपक है, आप समझ गये होंगे दुर्गा सप्तशती के साथ उसका क्या संबंध है। दरअसल ये दोनों कथाएं मनुवादी दुर्गा सप्तशती का आदिवासी पाठ है जिसे लोक कथा कह कर पुरोहित वर्ग ने व्यापक जन समाज के सामने आने नहीं दिया। सांस्कृतिक उपनिवेश बनाये रखने के लिए पुरोहित वर्ग और उसकी शिक्षा व्यवस्था ने लोक विश्वास को विश्वसनीय नहीं माना और असहमतियों एवं विरोध के इतिहास को लिखित वेद-पुराणों के तले दबा दिया।

सांस्कृतिक उपनिवेश की स्थापना सत्ता की प्राथमिकता होती है। दोहन, लूट और दमन का राज इसके बिना स्थायी नहीं किया जा सकता है। वाचिक काल में ही पुरोहितों और राजाओं को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गयी थी। वे समझ चुके थे कि स्मृतियों की सीमा है। व्यक्ति के नहीं रहने के साथ ही उसकी स्मृतियों का धीरे-धीरे या तो लोप हो जाता है या फिर वैसी ही प्रामाणिक नहीं रह जातीं जैसी कि वे वास्तव में थीं। इसीलिए वाचिक परंपरा की इस सीमा को समझते, उस पर अविश्वास करते हुए और उसको ध्वस्त करने के लिए उन्होंने दस्तावेजी परंपरा यानी लेखन की शुरुआत की। गुरु-शिष्य प्रणाली की नींव डाली। औद्योगिक काल में उपनिवेशों को अपने अनुकूल बनाने के लिए ज्ञान के प्रसार को शिक्षा व्यवस्था में जकड़ दिया। भारत जैसे पूर्वी विश्व में यह काम पौराणिक काल में मनुस्मृति के द्वारा संपन्न किया जा चुका था। जहां खास सामाजिक वर्गों में कानूनन ज्ञान के विस्तार और हस्तांतरण की मनाही थी। आधुनिक विश्व में मनुवाद को जस का तस रखकर मुठ्ठी भर लोगों की धनलोलुपता और आर्थिक प्रगति के लिए समूची दुनिया की आबादी को नहीं हांका जा सकता था। इसलिए शिक्षा व्यवस्था को मनुवादी आधार पर कुछ यूं खड़ा किया गया कि चित भी मेरी पट भी मेरी। नतीजा है कि शिक्षा ने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी के लिए श्रमशील सामाजिक वर्ग को उकसाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। परंतु शिक्षा के मनुवादी कलेवर के चलते सांस्कृतिक उपनिवेश लगातार सुदृढ़ होता चला गया। यह सांस्कृतिक दासता का ही उदाहरण है कि देश के आदिवासी और विशेषकर मूलनिवासी मनुवाद के गुलाम हैं और दुर्गा पूजा, रावण वध जैसे धार्मिक परंपराओं से चिपके हुए हैं। इतिहास में हुए अपने ही श्रमशील समुदायों के जनसंहारों के मनुवादी उत्सवों में भागीदार हैं।

‘दासांय नृत्य’

सांस्कृतिक उपनिवेश को कोई चुनौती नहीं मिले इसलिए आधुनिक इतिहास को आर्थिक संघर्षों का इतिहास बनाकर पेश किया गया। स्थापित किया गया कि दुनिया में जो भी इंसानी उपक्रम है वह मूलतः आर्थिक है। निश्चय ही बहुत हद तक यह बात सही है। परंतु सांस्कृतिक उपनिवेश का मामला भी इससे कमतर नहीं है। इतिहास में बुद्ध और उनके बाद नानक सरीखे लोग व सूफी परंपरा सांस्कृतिक उपनिवेशीकरण के खिलाफ हुए सांस्कृतिक संघर्ष के मजबूत अध्याय हैं। इतिहास हमें यह भी सबक देता है कि आर्थिक लड़ाइयों में सभी की दिलचस्पी है क्योंकि इस लड़ाई में ‘असली दुश्मन’ सुरक्षित रहते हैं। आर्थिक लड़ाइयों की चर्चा इसलिए भी सुर्खियां बटोरती रही हैं कि इसमें खून बहता है, लाशें दिखाई देती हैं और चीख-पुकार सुनाई पड़ती है। लेकिन सांस्कृतिक हमले बेआवाज होते हैं। इसमें चीख-पुकार की बजाय मंत्र, अजान और चर्च के घंटे सुनाई पड़ते हैं। आप कब सांस्कृतिक/मानसिक गुलाम हो जाते हैं और एक पूरा समुदाय कैसे खत्म हो जाता है, पता ही नहीं चलता है। इसीलिए वे चाहते हैं कि श्रमशील समाज महज आर्थिक लड़ाइयों तक सिमटे रहे और उनका सांस्कृतिक साम्राज्य बना रहे। बेशक रोटी, कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरत है। लेकिन हम ये आर्थिक लड़ाई क्यों जीत कर भी हारते रहे हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने और मनुवादी ग्रंथों के साथ-साथ शिक्षा प्रणाली के भी पुनर्पाठ की आवश्यकता है। सत्ता के एक पहलु पर ही चोट जब तक होती रहेगी उसका दूसरा पहलु जो विचार का है और जो आर्थिक से ज्यादा घातक है, जिसे वह धर्म के जरिए टिकाये हुए हैं, पर भी उसी दमखम से चोट करने की जरूरत है। वरना हम और सत्ता दोनों एक साथ धर्म (विचार) की आरती उतारते रहेंगे और सदा उनका ‘राज’ बना रहेगा।

पौराणिक युग में देवियों यानी आदि शक्ति के उभार पर डाॅ. अंबेडकर ने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। उनकी मान्यता है कि वैदिक युग में सारे देव युद्ध करते हैं जो पुरुष हैं। उनकी पत्नियां युद्ध में नहीं जाती। लेकिन पौराणिक काल में जब सारे देवों का राज स्थापित हो जाता है और वे ही शासक होते हैं तब अचानक से हम उनकी देवी पत्नियों को युद्ध में वीरांगना के रूप में पाते हैं। डाॅ. आंबेडकर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, ‘ब्राह्मणों ने यह भी नहीं सोचा कि वह दुर्गा को ऐसी वीरांगना बनाकर जो अकेली सभी असुरों का मान मर्दन कर सके, वे अपने-अपने देवताओं को भयानक रूप से कायरता का जामा पहना रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे पौराणिक देवता आत्मरक्षा तक नहीं कर सके और उन्हें अपनी पत्नियों से याचना करनी पड़ी कि वे आएं और उन्हें संरक्षण प्रदान करें। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित एक घटना (महिषासुर वध) यह प्रकट करने के लिए पर्याप्त है कि ब्राह्मणों ने अपने देवताओं को कितना हिजड़ा बना दिया था। (डाॅ. आंबेडकर, हिंदू धर्म की रिडल, पृ. 75)

दुर्गा पूजा के बंगाली विस्तार का एक घृणित इतिहास भी है। अठारहवीं सदी के पहले बंगाल में भी दुर्गा पूजा की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी जैसा कि आज हम पाते हैं। यह जानकर बहुत हिंदुओं को धक्का लगेगा कि दुर्गा पूजा का पहला आयोजन बंगाल में अंग्रेजी राज के विजयोत्सव के उपलक्ष्य में हुआ था। 1757 में। 23 जून 1757 को पलासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को हराकर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर अपना राज कायम कर लिया तो इसकी खुशी में राजा नवकृष्णा देव, जो क्लाइव का मित्र था, ने शोभाबाजार स्थित अपने घर के प्रांगण में दुर्गा पूजा का आयोजन किया। आज भी 36 नबकृष्णा स्ट्रीट में होनेवाले पूजा को बंगाली लोग ‘कंपनी पूजा’ के नाम से ही जानते हैं। इसके बाद ही बंगाल के जमींदारों ने दुर्गा पूजा को अपने ‘ठाकुर दालान’ और अपनी-अपनी जमींदारियों में आयोजित करना शुरू किया। दुर्गा पूजा के इस आयोजन में धार्मिक विद्वेष स्पष्टतः मौजूद था और है, इसे भी नहीं भूलना चाहिए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने पलासी के युद्ध में जिस नवाब को हराया था वह मुसलमान था-नवाब सिराजुद्दौला। ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़नेवाला सिराजुद्दौला देशभक्त नहीं है भारतीय इतिहास में। क्योंकि वह मुस्लिम है। लेकिन जिन बंगाली राजाओं और जमींदारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की आराधना की वे बंगाली पुनर्जागरण के अग्रदूत माने गए। संहार का यह नस्लीय आयोजन हमें बताता है कि हजारों साल पहले असुरों को दुर्गा ने छल से मारा। बंगालियों ने 450 वर्ष पहले मुसलमानों के खिलाफ और ईस्ट इंडिया कंपनी की आराधना में फिर से दुर्गा को जीवित किया। और आजादी के बाद भारत सरकार व हिंदू समाज ने विकास एवं औद्योगिकीकरण की आड़ में आदिवासी इलाकों में दुर्गा पूजा का विस्तार करते हुए आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार आज भी जारी रखा है।

 

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर, 2013 अंक में प्रकाशित)


लेखक के बारे में

अश्विनी कुमार पंकज

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ तथा रंगमंच प्रदशर्नी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंग वार्ता’ के संपादक हैं।

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