h n

तमिल समस्या और राजीव की हत्या की याद दिलाती “मद्रास कैफे”

लेकिन पूरी फिल्म में कहीं भी राजीव गांधी का नाम तक नहीं लिया गया और ना ही उनसे जुड़े किरदारों का हू-ब-हू नाम रखा गया है। यदि निर्देशक को केवल सेंसर बोर्ड से फिल्म को पास करवाने की गरज से ऐसा करना पड़ा, तो यह भारतीय सेंसर बोर्ड का एक घिनौना पहलू है

राजीव गांधी की हत्या और तमिल समस्या पर केन्द्रित यह फिल्म एक ऐसे रॉ अधिकारी की कहानी है, जो भारत के द्वारा श्रीलंका भेजी गई शांति सेना में एक मेजर के रूप में जाता है, परंतु उसका असली काम गुप्तचर का होता है। मुख्य किरदार के रूप में जॉन अब्राहम ने राजीव गांधी की हत्या के कई नए पहलू उजागर किए हैं, मसलन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश की जानकारी गुप्तचरों को पहले से होना, धानु और उसके साथियों द्वारा हत्या का पूर्वाभ्यास करना इत्यादि। लेकिन पूरी फिल्म में कहीं भी राजीव गांधी का नाम तक नहीं लिया गया और ना ही उनसे जुड़े किरदारों का हू-ब-हू नाम रखा गया है। यदि निर्देशक को केवल सेंसर बोर्ड से फिल्म को पास करवाने की गरज से ऐसा करना पड़ा, तो यह भारतीय सेंसर बोर्ड का एक घिनौना पहलू है। यह भारत में तानाशाही होने का एहसास कराता है। यदि वास्तविक किरदारों एवं नामों से यह फिल्म बनती तो और अधिक जीवंत और बेहतरीन हो सकती थी। हालांकि यह फिल्म किसी सच्ची घटना से प्रेरित होने का दावा नहीं करती, किंतु इस फिल्म के पात्र और घटनाएं किसी सच्ची घटना के रूप में आगे बढती हैं। फिल्म बताती है कि राजीव गांधी ने लिट्टे के दमन के लिए शांति स्थापना के नाम पर सेना भेजी थी।

यहां यह बताना जरूरी है कि 1815 में ब्रिटेन ने श्रीलंका पर अपना कब्जा जमा लिया था। उस समय इसे सीलोन के नाम से जाना जाता था। उस दौर में चाय, कॉफी और नारियल उगाने के लिए दक्षिण भारत से काफी संख्या में तमिल श्रमिकों को वहां लाया गया। सिंहली वहां के मूल निवासी और बहुसंख्यक हैं। वे बौद्ध धर्म को मानते हैं। सन् 1948 में सीलोन आजाद हुआ और राष्ट्रपति भंडारनायके ने सिंहला राष्ट्रवाद तथा बौद्ध भावनाएं प्रोत्साहित करने के लिए कई कदम उठाए। वहां के तमिलों के नाराज होने के दो प्रमुख कारण हैं : 1. तमिलों को बागानों पर अधिकार से वंचित कर दिया गया व 2. सन् 1972 में बौद्ध धर्म को देश का राष्ट्रीय धर्म घोषित कर दिया गया।

इसी कारण, तमिल अलगाववादी संगठन लिट्टे अस्तित्व में आया और श्रीलंका में गृहयुद्ध की स्थिति बन गई। हालांकि इन सब बातों को फिल्म में नहीं लिया गया है। फिल्म बताती है कि लिट्टे, श्रीलंका सरकार और भारत सरकार के बीच फंसा आम तमिल नागरिक किस प्रकार मुसीबतों से जूझता है। श्रीलंका की राजनीतिक परिस्थिति उसका जीना मुहाल कर रही थी। दूसरी ओर, भारत में तमिल शरणार्थियों की संख्या तेजी से बढ़ रही थी। ऐसी स्थिति में राजीव गांधी द्वारा वहां शांति सेना भेजने से, लिट्टे उनका जानी-दुश्मन बन गया। श्रीलंकाई तमिल इसे श्रीलंका द्वारा तमिलों के दमन में राजीव का सहयोग करार देते हैं। यहां भारत, दक्षिण एशिया का दारोगा बनने की कोशिश करता दिखाई पड़ता है।

यह दुश्मनी तब खत्म होती है, जब राजीव गांधी चुनाव हार जाते हैं। किंतु अगले लोकसभा चुनाव के दौरान, तमिल समस्या को कांग्रेस के मुख्य एजेंडे में शामिल करने की राजीव की घोषणा लिट्टे को उकसाने के लिए काफी थी। इस बात को बखूबी दिखाया गया है कि किस प्रकार लंदन स्थित ‘मद्रास कैफे’ नाम के रेस्तरां में राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची गई। इसी रेस्त्रां में लिट्टे द्वारा विदेशियों से धन तथा हथियारों का सौदा किया जाता है। यहां यह बात साफ सामने आती है कि किस प्रकार ताकतवर देश, अपने हथियार बेचने के लिए विश्व में युद्ध जारी रखना चाहते हैं। नक्सलियों के पास विदेशी हथियार होना इसी बात का सबूत है।

रॉ एवं अन्य खुफिया एजेंसियों ने प्रभाकरन और उसके साथियों के बीच हुई बातचीत को रिकार्ड कर लिया था, जिसे डिकोड करने की कोशिश की जाती है। अंतिम क्षण में यह डिकोड हो जाता है। लेकिन उच्च अधिकारियों के द्वारा इस मामले में बरती गई उपेक्षा के परिणामस्वरूप, राजीव गांधी की हत्या हो जाती है।

यह एक बेहतरीन फिल्म बन पड़ी है। इसे मैं राजनीतिक एवं ऐतिहासिक फिल्म की श्रेणी में रखूंगा। यह कई अनछुए पहलुओं से दर्शकों को रोचक ढंग से रूबरू कराती है। लिट्टे के ठिकाने एवं राजीव गांधी की सभा के दृश्य का फिल्मांकन जीवंत प्रतीत होता है।

फिल्म : मद्रास कैफे, अवधि : 130 मिनट

निर्देशक : सुजित सरकार, बैनर : वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स

(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

संबंधित आलेख

‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ : एक घिसी-पिटी गांधी की ‘हरिजनवादी’ कहानी
फिल्मों व धारावाहिकाें में दलितों में हमेशा चेतना सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है? जिस गांव...
सामाजिक यथार्थ से जुदा हैं बॉलीवुड फिल्में
दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर...
‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ : एक घिसी-पिटी गांधी की ‘हरिजनवादी’ कहानी
फिल्मों व धारावाहिकाें में दलितों में हमेशा चेतना सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है? जिस गांव...
सामाजिक यथार्थ से जुदा हैं बॉलीवुड फिल्में
दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर...
आंखन-देखी : मूल सवालों से टकराता नजर आया पहला झारखंड विज्ञान फिल्म महोत्सव
इस फिल्म फेस्टिवल में तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। अहम फिल्मों में पानी के लिए काम करने वाले पद्मश्री सिमोन...