h n

“परिवर्तन के लिए स्वाभिमान की राजनीति की ओर बढ़ें”

कांग्रेस और बीजेपी के दलित नेताओं की यही दशा है। उनका केवल वोटरूपी दूध निकालने के लिए उपयोग किया जाता है। जहां दलितों के मुद्दों पर बोलने की बात आती है वहां वे चुप्पी साध लेते हैं

पी बैरवा राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के प्रभारी हैं और पार्टी के संस्थापक कांशीराम के साथ 1989 से काम करते रहे हैं। राजस्थान जैसे राजे-रजवाड़ों और सामंती प्रदेश में दलित राजनीति को आगे बढाने के लिए वे प्रयासरत हैं और उनका मानना है कि नब्बे के बाद, राज्य के दलित आंदोलन में बुनियादी परिवर्तन आया है। पेश है फारवर्ड प्रेस के उदयपुर संवाददाता कालूलाल कुलमी की उनसे बातचीत के अंश

राजस्थान में दलित राजनीति की क्या स्थिति है?

राजस्थान में इस समय अनेक ऐसे तथाकथित दलित नेता हैं जो खाते तो हैं दलितों के नाम पर लेकिन पुंगी किसी और की बजाते हैं। कांशीराम साहब ऐसे नेताओं को कटरा नेता कहते थे। जब भैंस का बछड़ा मर जाता है और भैंस का दूध निकालने के लिए मरे हुए बछड़े की चमड़ी उधेड़कर, उसमें भूसा भरकर उसको लकड़ी के पैर लगाकर भैंस के सामने खड़ा कर दिया जाता है और फिर आसानी से दूध निकाल लिया जाता है, तो पंजाबी में इसे कटरा कहते हैं। कांग्रेस और बीजेपी के दलित नेताओं की यही दशा है। उनका केवल वोटरूपी दूध निकालने के लिए उपयोग किया जाता है। जहां दलितों के मुद्दों पर बोलने की बात आती है वहां वे चुप्पी साध लेते हैं। राजस्थान में कितने सारे मुद्दे हैं जिन पर बहुत गंभीरता से विमर्श होना चाहिए लेकिन दलित नेता केवल मोहरे हैं, जिनका ये पार्टियां अपने लिए इस्तेमाल करती हैं। हमें न तो कटरा नेता चाहिए और ना ही कटरा समाज चाहिए। हमारा आंदोलन इस तरह के लोगों की दरकार नहीं रखता। बाबा साहब के विचारों के प्रति निष्ठा रखनेवाले, ईमानदार और स्वाभिमानी कार्यकर्ता इस आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं और यह कारवां बढ़ता ही जा रहा है।

राजस्थान देश का एक ऐसा प्रांत है जहां कभी कोई दलित आंदोलन नहीं हुआ। ऐसे में यहां के समाज के परम्परागत विचारों में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दलित आंदोलन इस दिशा में क्या कर रहा है?

असल में महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की शुरुआत हुई महात्मा फुले और छत्रपति शाहू महाराज के प्रयासों से। दक्षिण में रामास्वामी पेरियार से हुई। राजस्थान आबादी की दृष्टि से बहुत छितराया हुआ प्रदेश है। बाबासाहब का यहां कभी आगमन नहीं हो पाया। लेकिन नब्बे के बाद यहां दलित आंदोलन में बुनियादी परिवर्तन आया है। इसमें सबसे बड़ा योगदान कांशीराम साहब का है। कांशीराम साहब ने तपती हुई गर्मी में यहां काम किया। आज स्थिति यह है कि बहुत शांतिपूर्ण तरीके से हमारे लोगों को मानसिक रूप से तैयार करते हुए यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है। गरीब, पिछड़े समाज को उसके वोट की महत्ता से अवगत कराया जा रहा है और यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है। पिछली बार, बसपा के छह विधायक चुनकर आए थे। हमें अगर लोगों के दिमाग को परिवर्तित करना है, व्यवस्था में परिवर्तन लाना है, समाज में सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिवर्तन करने हैं तो राजनीति की और बढऩा होगा। और राजनीति कौन सी? गुलामी भरी राजनीति नहीं, बल्कि स्वाभिमानी किस्म की राजनीति।

यह आंदोलन आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को एक साथ कैसे ला रहा है?

यह आंदोलन ही बहुजन का है, सबको एक साथ लाने का है। बाबा साहब आम्बेडकर ने एक जगह कहा है कि गुलाम को यह अहसास करा दो कि वह गुलाम है, और उसको जब यह अहसास हो जाएगा तो वह खुद ही अपनी गुलामी की जंजीरों को तोडऩे के लिए खड़ा हो जाएगा। हमने यही किया है। हम सब लोग कमोबेश एक ही व्यवस्था के शिकार हैं।

बौद्धिक वर्ग से आपकी क्या उम्मीदें हैं?

यह आंदोलन बौद्धिक वर्ग का ही है। हमारा समाज तो भोला है, वह यह सब बातें नहीं समझता। आंदोलन तो बौद्धिक वर्ग ही चलाता है और अगर बाबा साहब आम्बेडकर पढ़े-लिखे नहीं होते तो क्या आंदोलन कभी आगे बढता? कांशीराम ने कर्मचारियों और बुद्धिजीवी वर्ग से ही बामसेफ नाम का संगठन तैयार किया। आज बामसेफ की बदौलत ही पूरे देश में यह आंदोलन चल रहा है। बीएसपी पूरे देश में काम कर रही है। आज बुद्धिजीवी निश्चित तौर पर बड़े पैमाने पर इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं और काम कर रहे हैं।

आरक्षण आज भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पा रहा है। आपका इस पर क्या कहना है?

देखिए, आरक्षण को लागू करने का कार्य सरकार करती है और सरकार बनती है वोटों से। निचले तबके का जो पढ़ा-लिखा वर्ग है, वह इस बात को समझ भर जाए। हमें इस बात का विश्वास है कि हमारा बुद्धिजीवी वर्ग इस बात को समझेगा और वह मास्टर की को अपने हाथ में लेने का प्रयास करेगा। फिर देखिए परिवर्तन कैसे होता है!

(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कालूलाल कुलमी

कालूलाल कुलमी फारवर्ड प्रेस के उदयपुर संवाददाता हैं।

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
उत्तर भारत की महिलाओं के नजरिए से पेरियार का महत्व
ई.वी. रामासामी के विचारों ने जिस गतिशील आंदोलन को जन्म दिया उसके उद्देश्य के मूल मे था – हिंदू सामाजिक व्यवस्था को जाति, धर्म...
यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...