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जमसौत : घोर अंधकार में टिमटिमाता दीपक

वर्ष 2012 में यह मुसहरी अचानक चर्चा में तब आई जब इस मुसहरी का रहने वाला मनोज कुमार 'कौन बनेगा करोड़पति’ की हॉट सीट तक जा पहुंचा

किसी मुसहरी की जब भी चर्चा होती है तो जेहन में गरीबी और गंदगी की तस्वीरें तैरने लगती हैं। सूअर पालने वाले, मजदूरी करने वाले और कचरा से लोहा, प्लास्टिक, कागज आदि चुनते लोग नजर आने लगते हैं। चूहा, मेंढ़क, घोंघा या सूअर मारकर खाते लोग नजर आने लगते हैं। महुआ से दारू चुआते और उसे बेचते लोग नजर आने लगते हैं। गांव के शुरू में या सीमांत में इनकी बस्तियां नजर आने लगती हैं और रोज कमाने-खाने वाले लोगों के अक्स नजर आने लगते हैं।

यह छवि बिहार के लगभग सभी मुसहरियों (मुसहरों की बस्ती) के बारे में लोगों के मन में बैठी हुई है। लेकिन जमसौत मुसहरी की बात ही कुछ और है। यह विकास कर सकी है और आज समाज में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। दानापुर से पश्चिम की ओर है जमसौत मुसहरी। करीब 110 घर हैं यहां और करीब 400 की आबादी होगी इनकी। घोर अंधकार में टिमटिमाते एक दीपक की तरह है जमसौत मुसहरी।

वर्ष 2012 में यह मुसहरी अचानक चर्चा में तब आई जब इस मुसहरी का रहने वाला मनोज कुमार ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की हॉट सीट तक जा पहुंचा। जगदेव पथ स्थित एक संस्था है ‘शोषित समाधान केन्द्र’। यह संस्था मुसहर लड़कों को नि:शुल्क शिक्षा देती है, रहने-खाने की भी यहां व्यवस्था है। इस संस्था में अभी करीब 300 मुसहर बच्चे रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। मनोज संस्था की ओर से केबीसी में प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहां से वह 25 लाख रुपए जीतकर लौटा।

इतना ही नहीं, कई अन्य कारणों से भी यह मुसहरी अन्य मुसहरी से काफी हटकर है। सबसे बड़ा कारण है कि यहां के मुसहर देसी या महुआ दारू का कारोबार नहीं करते। दूसरी बात साफ-सफाई के मामले में यह मुसहरी काफी जागरूक है। यहां जाने पर किसी सामान्य, सुसभ्य गांव में होने जैसा मालूम पड़ता है। कहीं से इसके ‘मुसहरी’ होने का कोई लक्षण नही दिखता। यहीं मुझे बिटेश्वर सौरभ मिलें। पत्राचार से एमए कर रहे हैं। इन्होंने बताया कि यहां के 15 बच्चे मैट्रिक पास कर चुके हैं। आठ बच्चे इंटर और एक बीए हैं। बिटेश्वर सौरभ बिहार शिक्षा परियोजना में सहायक साधनसेवी हैं।

बिटेश्वर बताते हैं कि यहां 110 में से 100 घर इंदिरा आवास योजना के तहत बने हैं। स्वास्थ्य कार्ड 65-70 लोगों के पास है। मनरेगा का यहां बुरा हाल है। सभी को काम नहीं मिल पाता है। वोट बैंक के खेल में इन लोगों को महादलित वर्ग में रखा गया है सिर्फ  नाम के लिए, फायदा कुछ नहीं।

गम भी कम नहीं हैं

ऐसा नहीं कि जमसौत मुसहरी की किस्मत में सिर्फ  खुशियां ही खुशियां हैं। दर्द भी कम नहीं हैं। आर्थिक तंगी है। कई घरों के लोग तो दाने-दाने को भी मोहताज दिखे। बीमार पडऩे पर तो भगवान का ही सहारा होता है। स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना यहां की सबसे बड़ी समस्या है। बीमारी में कई लोगों ने इंदिरा आवास योजना से मिली राशि को खर्च कर दिया। अब उनके मकान अधूरे पड़े हैं।

यहीं रमझडिय़ा से भी मुलाकात हुई। उम्र करीब 70 साल रही होगी। मुझे देखकर कोई सरकार का आदमी समझ बैठी। अपनी जमीन दिखाने लगी। कहने लगी-छह साल पहले यहीं मेरा घर था। पुराना होकर गिर गया। मुखिया घर बनाने को पैसे नहीं देता। एकदम बेकार है वह। मुसहरों की बात कौन सुनेगा। अब आप आए हैं तो मेरा प्रस्ताव पास करवा ही दीजिए।

इस बीच गांव में पूजा की तैयारी होने लगी। पता चला कि आज यहां देवी की पूजा होगी। साल में एक बार की जाती है। खूब ताम-झाम हुआ। बीच गांव में मिट्टी से बनी देवी को एक तख्ती पर बैठाया गया। औरतें ढोलक लेकर आ गईं। पूजा स्थल पर घेरकर बैठ गईं। देवी गीत गाने लगीं। भक्तिन भी पहुंच गई। एक बुजुर्ग-सा आदमी कबूतर की बलि देता है। इस पर भक्तिन ने कहा-देवी प्रसन्न नहीं है। तब बकरे की बलि दी जाती है। देसी दारू भी चढ़ायी जाती है। भक्तिन झूमने लगती है।

अधिकांश सरकारी योजनाओं का लाभ यहां नहीं पहुंचने के बावजूद इस मुसहरी के लोगों ने अपने बलबूते पर बहुत कुछ हासिल किया है। यही कारण है कि अन्य मुसहरी के लिए यह एक आदर्श बन चुकी है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

राजीव मणि

राजीव मणि फारवर्ड प्रेस के पटना संवाददाता हैं।

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