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खेल में जाति का खेल

महिला विश्वकप कबड्डी में भारतीय महिला टीम ने धमाकेदार खेल दिखाते हुए न्यूजीलैंड को 49-21 से हराकर विश्वकप अपने नाम किया

महिला विश्वकप कबड्डी में भारतीय महिला टीम ने धमाकेदार खेल दिखाते हुए न्यूजीलैंड को 49-21 से हराकर विश्वकप अपने नाम किया। जालंधर के गुरुगोविंद सिंह स्टेडियम में 13-14 दिसंबर, 2013 को खेले गए फाइनल मुकाबले में भारतीय महिला टीम ने न्यूजीलैंड पर एकतरफा जीत हासिल की। अनुरानी, प्रियंका व खुशबू ने शानदार प्रदर्शन किया। पूरी श्रृंखला में अनुरानी को बेस्ट स्टापर और राम बरेटी को बेस्ट रेडर घोषित किया गया। दोनों को एक-एक मारुती अल्टो कार मिली।

वहीं पुरुष वर्ग के फाइनल में भारत ने पाकिस्तान को 48-39 से हराकर शानदार जीत हासिल करते हुए चौथी बार विश्व कप अपने नाम किया। लेकिन इसके बावजूद मीडिया में इसको समुचित कवरेज नहीं मिला। आखिर कबड्डी दलित-बहुजन का खेल जो ठहरा।

इस ऐतिहासिक जीत को अखबारों में कोई स्थान नहीं मिला। मुखपृष्ठ से लेकर अंतिम पेज और खेल पेज तक कहीं नहीं। टीवी चैनलों के बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है। पुरुष टीम को इनाम के तौर पर 2 करोड़ की धनराशि मिली, वहीं महिला टीम को मात्र 1 करोड़ रुपए दिए गए। खेल के मैदान में भी लैंगिक भेदभाव। भारत में व्याप्त जातिवादी सोच किस तरह हर क्षेत्र को प्रभावित कर रही है कबड्डी इसका उदाहरण है। कबड्डी आज भी दलित-बहुजन ही ज्यादा खेलते हैं। साथ ही इसे ग्रामीण खेल माना जाता है। सवर्ण वर्ग इस देसी खेल में रुचि नहीं दिखाता। इस खेल को दलित-बहुजन ढंग से खेलते व समझते हैं। उनकी शारीरिक बनावट भी इस खेल के उपयुक्त है।

भले ही राजनीति करने के लिए ब्राहमणवादी इसे ओलंपिक में शामिल करने की मांग करते रहे हों, लेकिन वास्तव में उनकी कबड्डी में कोई रुचि नहीं है। यह शूद्र-अतिशूद्रों का खेल जो है। मीडिया केवल आम आदमी पार्टी, भाजपा, कांग्रेस और क्रिकेट में फंसा रहता है। कहां गई खेल पत्रकारिता। क्या खेल पत्रकारों को धोनी और  सचिन से फु रसत मिलेगी ताकि वे कबड्डी पर भी अपनी नजरें इनायत कर सकें।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

नरेश कुमार साहू

रायपुर निवासी लेखक डॉ. नरेश कुमार साहू पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं तथा सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर नियमित रूप से लेखन करते हैं

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