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परिवार के एक होने से बिखर सकती है मांझी सरकार

विधानसभा में 89 सदस्यों वाली भाजपा की नजर राजद व जदयू के बागी विधायकों पर है। भाजपा नेतृत्वर के खिलाफ बगावत करने वाले विधायकों को अगले चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाने का भरोसा भी दिला रही है

जनता दल परिवार के पुन: एक होने की संभावना उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित करने लगी है। अगर ऐसा होता है तो लोकसभा में कुल मिलकर 120 सदस्य भेजने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में नये समीकरण बन सकते हैं। इससे जनता दल के घटक दलों को लाभ होगा या हानि, यह मुख्यत: जातीय समीकरणों पर निर्भर करेगा। जनता दल परिवार के विलय का असर बिहार विधानसभा पर भी पड़ेगा और राज्य सरकार की सेहत पर भी। असर तो उत्तर प्रदेश की सरकार पर भी पड़ेगा, परन्तु निकट भविष्य में नहीं। अपितु बिहार की सरकार तत्काल प्रभावित हो सकती है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की बहुमत वाली सरकार है। वहां पार्टी विधायकदल में असंतोष नहीं है और ना ही मुलायम सिंह यादव को चुनौती देने वाला कोई है। इतना ही नहीं भाजपा की आक्रमक रणनीति के चलते सपा का कोई विधायक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से अलग होने की सोच भी नहीं सकता। जहां तक लोकसभा का सवाल है, पार्टी के सभी सदस्य मुलायम सिंह परिवार के ही हैं।

लेकिन बिहार में स्थिति ठीक इसके विपरीत है। सत्ता रुढ़ जदयू और हाल ही में जदयू की सहयोगी बनी राजद। दोनों के ही विधायकों में असंतोष है। जदयू की राजनीतिक सलाहकार परिषद और प्रदेश कार्यकारिणी ने विलय के लिए सहमति दे दी है। जदयू नेता नीतीश कुमार ने कहा है कि विलय के बाद नये दल का गठन होगा, जिसका नया नाम, नया झंडा और नया निशान होगा। इसका सीधा मतलब यह है कि दोनों दलों के विलय से एक नया दल बनेगा। संवैधानिक दृष्टि से यह दलबदल होगा और दलबदल कानून इस तथाकथित विलय पर लागू होगा।

सवाल यह है कि क्या जदयू के सभी 111 विधायक नयी पार्टी में जाने के लिए तैयार हैं, अगर नए दल में कम से कम दो-तिहाई यानी 74 विधायक शामिल नहीं हुए तो दलबदल कानून के प्रावधानों के अनुसार वे विधानसभा की सदस्यता खो देगें अगर दल छोडऩे वाले विधायकों की संख्या दो-तिहाई या उससे अधिक रहती है तो इसे दल का विभाजन माना जायेगा और विधायकों की सदस्यता बरकऱार रहेगी। समस्या यह है कि अनेक विधायक नीतीश कुमार के विरोध में खुल कर सामने आते रहे हैं। राज्यसभा की तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में विरोधियों ने नीतीश कुमार की नाक में दम कर दिया था। आज भी असंतोष कम नहीं हुआ है। दलबदल कानून के तहत जदयू के आठ विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी निलंबित या बर्खास्त कर चुके हैं, जिनमें से चार निलंबित विधायकों की कोर्ट से बहाली हो गई है। चार बर्खास्त विधायकों का मामला कोर्ट में विचाराधीन है। असंतोष राजद में भी कम नहीं है। उसके 24 विधायकों में से सबके सब नये दल में जाने को तैयार हों ऐसा नहीं है। यदि राजद के 9 और जदयू के 38 विधायकों ने नये दल में जाने से मना कर दिया तो विलय खटाई में पड़ जाएगा।

243 सदस्यीमय विधानसभा में नौ सीटें खाली हैं। यानी सरकार को बहुमत के लिए 118 सदस्यों के समर्थन की जरूरत है। मांझी सरकार को अभी जदयू के 111 राजद के 24, कांग्रेस के चार, सीपीआई के एक और दो निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त है। यानी कुल 142 सदस्यों का समर्थन सरकार को प्राप्त है, जो कि बहुमत के लिए आवश्यक संख्या से मात्र 24 अधिक है। यदि विलय में दोनों दलों के 24 विधायकों ने भी नये दल में जाने से मना कर दिया और पुराने दल यानी राजद या जदयू में बने रहने का फैसला किया तो सरकार का क्या होगा, पुराने दल में बने रहने वालों पर दलबदल कानून का असर नहीं होगा। उस स्थिति में मांझी सरकार का गिर जाना अनापेक्षित नहीं है।

भाजपा की निगाहें बागी विधायकों पर

विधानसभा में 89 सदस्यों वाली भाजपा की नजर राजद व जदयू के बागी विधायकों पर है। भाजपा नेतृत्वर के खिलाफ बगावत करने वाले विधायकों को अगले चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाने का भरोसा भी दिला रही है। विभिन्न राज्यों में भाजपा की बढ़ती ताकत से गैर-भाजपा विधायकों का मन भी डोलने लगा है। राजद व जदयू के कम से कम 30-35 विधायकों पर भाजपा की निगाहें है, जो टिकट के वायदे पर लालू यादव या नीतीश कुमार के खिलाफ बगावत कर सकते हैं। इन विधायकों में से अधिकांश सवर्ण और कुछ अतिपिछड़ी जातियों के हैं। यदि माहौल अनुकूल रहा तो राजद व जदयू के बागी विधायकों के भरोसे भाजपा सरकार बना सकती है। लेकिन भाजपा की रुचि सरकार बनाने में नहीं है और वह मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती। हालांकि राष्ट्रपति शासन से उसे परहेज नहीं है।

भाजपा की रणनीतिकारों की मानें तो पार्टी सरकार गिराने या बनाने की बजाय सरकार को अस्थिर बनाये रखना ज्यादा लाभदायक मान रही है क्योंकि इससे सरकार के अनिश्चिय व अंतरविरोधों का सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा जनता को यह भरोसा दिलाना चाहती है कि अगर वो सत्ता में आयी तो बिहार में लंबित और अधूरी पड़ी केंद्रीय योजनाओं को आगे बढ़ाकर राज्य का विकास करेगी। कुल मिलाकर बिहार चुनाव के मूड में आ गया है। सभी पार्टियां चुनाव की तैयारी में जुट गयी हैं। लंगड़ी मारने और बचाने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। इस खेल में सब कुछ अनिश्चित है, लेकिन इतना तय है कि जनता दल परिवार का विलय मांझी सरकार को विलीन होने की कगार पर ले जा सकता है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

वीरेंद्र यादव

फारवर्ड प्रेस, हिंदुस्‍तान, प्रभात खबर समेत कई दैनिक पत्रों में जिम्मेवार पदों पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव इन दिनों अपना एक साप्ताहिक अखबार 'वीरेंद्र यादव न्यूज़' प्रकाशित करते हैं, जो पटना के राजनीतिक गलियारों में खासा चर्चित है

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