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बच्चे को सामाजिक दृष्टि से जिम्मेदार बनाना

शोध बताते हैं कि जिन बच्चों के मां-बाप समाज सेवा के कार्य करते हैं, बड़े होने पर समाज सेवा के कार्यों में हिस्सेदारी करने की उनकी संभावना, अन्य लोगों की तुलना में दोगुनी होती है

उस दरवाजे को तोड़ो मत, मां ने अपने छोटे-से बच्चे से कहा, जो स्कूल का गेट खुलने का अत्यंत व्याकुलता से इंतजार कर रहा था। छुट्टी के लिए बेताब लड़का दरवाजे को पीट रहा था। मां ने अपने दांत निपोरते हुए कहा ‘कम से कम अभी तो दरवाजा मत तोड़ो। तुम्हें यहां दो साल और पढऩा है।’ मतलब साफ था, जानबूझकर न सही, परंतु मां अपने बच्चे को यही सिखा रही थी कि सार्वजनिक संपत्ति की देखभाल करना या उसे संरक्षित रखना उसका काम नहीं है जब तक कि वह संपत्ति उसके लिए उपयोगी न हो। मां के कथन में छिपे स्वार्थपूर्ण रवैये से हमारे देश में सामाजिक जिम्मेदारी और सामुदायिक भावना की दुर्भाग्यपूर्ण कमी परिलक्षित होती है।

लेखक और शिक्षक शैल्डन बर्मेन, सामाजिक जिम्मेदारी को इस प्रकार परिभाषित करते हैं : ‘यह दूसरों और हमारे ग्रह की भलाई और बेहतरी के लिए किया जाने वाला व्यक्तिगत निवेश है।’ उनकी मान्यता है कि यह निवेश अपने आप नहीं होता। इसके लिए हमें ‘अपना मन बनाना पड़ता है और समय व ध्यान देना होता है।’ अभिभावक के तौर पर हमें अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे अपने आसपास के वातावरण और लोगों के प्रति संवेदनशील और फिक्रमंद हों। अगर हम ऐसा करेंगे तो हम उन्हें ‘मैं, मेरा, मेरे लिए’ की उस दुनिया से बाहर निकाल सकेंगे, जिसमें हम वयस्कों ने ही उन्हें दाखिल किया है। मेरी बेटी जब दो साल की थी तब वह बच्चों के एक गाने को अपने ढंग से गाती थी, और वह इस प्रकार था : ‘आई लव मी, यू लव मी, एण्ड व्ही आर वन बिग फैमिली’ (मैं खुद को चाहती हूं, तुम मुझको चाहती हो और हम एक बड़ा परिवार हैं)। अभिभावकों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे बच्चों के दिलों में घर की हुई स्वार्थपरता को निकाल फेंके और जो स्थान खाली हो, उसमें ऐसे मूल्य और सोच बिठा दें कि बच्चे स्वयं के स्वार्थ के आगे भी कुछ सोचें और दुनिया की ढेर सारी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ करें।

यह दिलचस्प है कि हर बच्चे के दिल के एक कोने में अपने से बाहर की दुनिया का हिस्सा बनने की इच्छा छिपी होती है। यही कारण है कि जब बच्चों को कोई उपयोगी काम करने को दिया जाता है तो वे स्वयं को पूर्ण महसूस करते हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे कुछ अर्थपूर्ण कर रहे हैं। बच्चों से उपयोगी काम करवाने की शुरुआत बहुत छोटी उम्र से की जा सकती है और इसे घर से ही शुरू किया जाना चाहिए। बच्चों से यदि प्लेटें धुलवाने या खाना पकाने या घर के अन्य छोटे-मोटे काम करवाए जाएं तो उनमें एक प्रकार का आत्मविश्वास जागता है और उन्हें लगता है कि यदि वे अपने घर में कोई उपयोगी काम कर सकते हैं, तो वे बाहर की दुनिया में भी ऐसा कर सकते हैं।

बच्चों को सामाजिक जिम्मेदारी सिखाने का एक लाभ यह होता है कि उन्हें किसी भी स्थान और समय पर समस्याओं को सुलझाना आ जाता है। अधिकांश भारतीय अभिभावक, निर्णय लेने की प्रक्रिया में बच्चों को हिस्सेदार नहीं बनाते और उनकी ओर से निर्णय लेते रहते हैं। और फिर, हमें तब आश्चर्य होता है जब हम यह पाते हैं कि यही बच्चे बड़े होने पर निर्णय लेने से घबराते हैं और समस्याओं को सुलझाने की क्षमता उनमें नहीं होती। यह भारतीय संस्कृति का एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सोच-समझकर निर्णय कैसे लें।

इस संदर्भ में किताबों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। बच्चों को अपने नायक अच्छे लगते हैं और उन्हें सामाजिक जिम्मेदारी सिखाने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है कि हम उनका परिचय ऐसी किताबों से करवाएं, जो उन्हें उनकी सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास कराएं।

मैं सन् 1980 और 90 के दशक में ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ पत्रिका पढ़ते हुए बड़ी हुई। इस रंगीन पत्रिका में अक्सर ऐसे साधारण लोगों की सच्ची कहानियां प्रकाशित होती थीं जो अपने से कम भाग्यशाली लोगों के साथ असाधारण नेकी करते थे। इन कहानियों ने मेरे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे दूसरों की भलाई के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने की प्रेरणा दी। नर्मदा बचाव आंदोलन के बारे में मुझे अखबारों से पता चला। मैंने यह पढ़ा कि मेधा पाटकर किस तरह स्वर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण नर्मदा घाटी के गरीब किसानों की लड़ाई लड़ रही हैं। जब मेधा एक रैली के सिलसिले में बेंगलुरु आईं तो मैं और स्कूल के मेरे साथी रैली में गए और हम लोगों ने पूरे जोशोखरोश से ‘ओ फ्रीडम, ओ फ्रीडम’ गाया-उन किसानों की ओर से जिन्हें विकास के नाम पर उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा था।

शेल्डन बर्मेन के अनुसार बच्चों में न्याय की गहरी समझ होती है और जब उन्हें लगता है कि किसी के साथ अन्याय हो रहा है, तो वे बुरा महसूस करते हैं। आप किस तरह के स्कूल में पढ़ते हैं, इससे भी बहुत अंतर पड़ता है। मैं एक ऐसे कान्वेन्ट में पढ़ी हूं, जहां सेवा हमारा मूल मंत्र था। हमारे स्कूल में एक ‘ऑपरच्यूनिटी सेक्शन’ (अवसर खण्ड) था, जहां शारीरिक कमी से ग्रस्त बच्चे पढ़ते थे। किंडरगार्टन के समय से ही ननों ने हमारे दिमागों में यह भर दिया था कि उस खण्ड के बच्चे हमारे स्कूल के प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं। हमसे यह अपेक्षा की जाती थी कि हम अपनी ओर से पहल कर हमेशा उनकी मदद करें। वार्षिक उत्सव और खेलों के समय हम लोग खूब चिल्ला-चिल्ला कर उनका उत्साह बढ़ाते थे। हमें यह सिखाया गया था कि वे लोग विशेष हैं। और आज भी जब मैं शारीरिक विकलांगता के शिकार किसी बच्चे को देखती हूं तो मेरे मन में उसके प्रति प्रेम उमड़ पड़ता है। इसका कारण है उन परोपकारी ननों का प्रभाव। आप अपने बच्चे को किस स्कूल में भेजते हैं, इससे काफी हद तक यह तय होता है कि वह दुनिया को कैसे देखेगा।

अभिभावक अपने बच्चों को सही राह दिखाने के लिए सामाजिक कार्यों में हिस्सा भी ले सकते हैं। शोध बताते हैं कि जिन बच्चों के मां-बाप समाज सेवा के कार्य करते हैं, बड़े होने पर समाज सेवा के कार्यों में हिस्सेदारी करने की उनकी संभावना, अन्य लोगों की तुलना में दोगुनी होती है। यदि हम स्वयं को अपने स्वार्थों से ऊपर उठा सकें और हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के काम में जुट सकें तो इससे अच्छा कुछ नहीं होगा। हमारे बच्चों पर हमारे शब्दों से ज्यादा हमारे कार्यों का प्रभाव पड़ता है।

तो आईए, आज से ही शुरू करें।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

दिव्या जकारिया

डॉ. दिव्या जकारिया लेखक और जीवन जीने की कला की प्रशिक्षक हैं। वे अपने पति और दो बच्चों के साथ बेंगलुरु में रहती हैं।

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