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विशेष दर्जे के प्रति आशंकित आदिवासी

विशेष राज्य के सवाल पर प्रमुख दलीलों में से एक यह भी महत्वपूर्ण है कि यह राज्य आदिवासी बहुल है। यहां के आदिवासी विकास के पायदान पर काफी पीछे हैं। लेकिन, सवाल यह है कि जो लोग आदिवासियों के नाम पर विशेष राज्य का दर्जा हासिल करना चाहते हैं, क्या सचमुच वे आदिवासियों के हितैषी हैं या उनके नाम पर मलाई खाना चाहते हैं

राज्यों के पिछड़ेपन के लिए मानदंड निर्धारित करने के लिए गठित रघुराम राजन कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद झारखंड को पिछड़ा राज्य घोषित करवाने का श्रेय लेने के लिए राजनीतिक दलों के बीच होड़ मच गई है। आजसू (ऑल इंडिया झारखंड स्टूडेंट्स युनियन) ने तो ‘पहली लड़ाई अलग राज्य, अगली लड़ाई विशेष राज्य’ का नारा भी दिया था और इसी को आधार बनाकर पार्टी इसका श्रेय लेना चाहती है। यह अलग बात है कि झारखंड आंदोलन के समय यह पार्टी अस्तित्व में ही नहीं थी। वहीं भाजपा कह रही है कि असली लड़ाई तो उसने ही लड़ी है। जेवीएम (झारखंड विकास मोर्चा) ने तो रघुराम राजन कमेटी के गठन के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। जेवीएम के अनुसार, यह विशेष राज्य के लिए चल रही मुहिम पर ब्रेक लगाने की साजिश है। वहीं सत्तारूढ़ दल झामुमो (झारखंड मुक्ति मोर्चा) अलग राज्य के साथ-साथ विशेष राज्य का श्रेय भी पूर्णरूप से खुद लेना चाहती है।

राजनेताओं के बीच खुशी कुछ ऐसी है, मानो उन्होंने सब कुछ हासिल कर लिया हो। कुछ लोग तो यह भी सवाल कर रहे हैं कि पिछड़ा राज्य घोषित होने पर खुश होने जैसी क्या बात है। निश्चित रूप से झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए, लेकिन गंभीर सवाल कई हैं, जिसका जवाब खोजा जाना चाहिए।

विशेष राज्य के दर्जे का संबंध आर्थिक पैकेज से है। क्या सचमुच झारखंड को आर्थिक पैकेज की जरूरत है? राज्य की आर्थिक स्थिति, प्रति व्यक्ति आय और विकास के सूचकांक तो यही कहते हैं, लेकिन फंड का उपयोग कुछ और कहता है। राज्य सरकार प्रति बर्ष बड़े पैमाने पर केन्द्रीय राशि सरेंडर करती है। वर्ष 2002-03 से लेकर वर्ष 2011-12 तक राज्य सरकार कुल 10,961.6 करोड़ रुपये सरेंडर कर चुकी है। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सरकार आर्थिक पैकेज के सही इस्तेमाल की गारंटी दे सकती है ? यह सवाल इसलिए है कि राज्य में सरकारी पैसे की लूट मची हुई है। राज्य के विभिन्न जिलों से 4,400 करोड़ रुपये का हिसाब सरकार को नहीं मिल पाया है। यह पैसा कहां गया? ऐसी स्थिति में सवाल यह भी है कि क्या सरकार के पास विशेष आर्थिक फंड के उपयोग का खाका तैयार है ?

विशेष राज्य के सवाल पर प्रमुख दलीलों में से एक यह भी महत्वपूर्ण है कि यह राज्य आदिवासी बहुल है। यहां के आदिवासी विकास के पायदान पर काफी पीछे हैं। लेकिन, सवाल यह है कि जो लोग आदिवासियों के नाम पर विशेष राज्य का दर्जा हासिल करना चाहते हैं, क्या सचमुच वे आदिवासियों के हितैषी हैं या उनके नाम पर मलाई खाना चाहते हैं ? आंकडे बताते हैं कि यह मलाई खाने की तैयारी है। मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि जो लोग राज्य में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री, अनुसूचित क्षेत्र को खत्म करने, पेसा कानून के खिलाफ, सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को खत्म करने का अभियान चलाते हैं, वे आदिवासियों के हितैषी कैसे हो सकते हैं ?

ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि ट्राईबल सब प्लान को लीजिए, तस्वीर और ज्यादा साफ हो जाएगी। संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत, केन्द्रीय सहायता प्राप्त करना आदिवासियों का संवैधानिक अधिकार है। झारखंड में ट्राईबल सब प्लान के तहत आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के लिए वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2011-12 तक कुल 27,141.83 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जिसमें से 21,494.02 करोड़ रुपये खर्च किए गए एवं 5647.81 करोड़ रुपये केन्द्र सरकार को वापस कर दिए गए। इस पैसे का उपयोग आदिवासी एवं आदिवासी बहुल इलाके के विकास के लिए खर्च करना था, लेकिन ट्राईबल सब प्लान का अधिकांश पैसा दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा है जो आदिवासी हक पर सीधा लूट है। जब आदिवासियों के पैसे की लूट मची है, तो क्या विशेष राज्य का दर्जा मिलने से उन्हें कुछ हासिल होगा?

झारखंड को आर्थिक पैकेज इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि राज्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का फायदा राज्य को नहीं मिल रहा है, केन्द्र सरकार सब कुछ ले जा रही है। सवाल यह भी है कि क्या सचमुच इस पैकेज से जरूरतमंदों का कल्याण और विकास होगा या फिर से राज्य के विकास के नाम पर मलाई कोई और खाएगा? इसके लिए प्रभावशाली नेतृत्व, कर्तव्यनिष्ठ नौकरशाह और रचनात्मक राजनीति की जरूरत ज्यादा है, जिससे प्रदेश का पूर्ण विकास होगा।

 

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

राजीव मणि

राजीव मणि फारवर्ड प्रेस के पटना संवाददाता हैं।

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