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मुजफ्फरनगर हिंसा : कितने सुरक्षित हैं मुसलमान?

इसमें कोई शक नहीं कि सांप्रदायिक हिंसा इसलिए कराई जाती है ताकि मुसलमानों को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक तौर से पीछे धकेला जाए। इसके पीछे चाल यह है कि मुसलमानों के अंदर असुरक्षा का भाव इतना भर दो कि वे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार के बारे में कभी सोच भी नहीं पाएं

मुजफ्फरनगर हिंसा की आग अभी भी ठंडी नहीं हुई है। आज, लगभग पांच महीने बाद भी, हजारों लोग मुजफ्फरनगर और शामली जिलों के दर्जनों राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। सर्द लहर की वजह से जहां हमारे लिए शिविरों में कुछ समय के लिए ठहरना दुश्वार था वहीं हजारों शरणार्थी खुले आसमान में रहने को मजबूर हैं। अखबारों के मुताबिक, राहत कैम्पों में लोगों के ठंड और अन्य बीमारियों से मरने की खबरें अभी भी आ रही हैं। मरने वालों में बच्चों की संख्या ज्यादा बताई जाती है।

कुछ सप्ताह पहले, हम लोगों ने शामली जिले के कैराना के पास लगे कई शिविरों में तीन दिन गुजारे। अकबरपुर, सोनाटी, रोटन ब्रिज और मंसूरा गांव से सटे कैम्पों में जो हमने देखा, उसे शब्दों में बयान करना काफी मुश्किल और दर्दनाक है। शिविरों में रह रहे ये मुसलमान दोहरी मार के शिकार हैं-जहां एक तरफ सांप्रदायिक शक्तियों आरएसएस और भाजपा ने जाटों को मुसलमानों के खिलाफ किया वहीं दूसरी तरफ, उनके शुभचिंतक होने का दावा करने वाली तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने उनकी  सुध तक नहीं ली। सांप्रदायिकता की आग में घी डालने का काम स्थानीय मीडिया ने किया जिसने यह अफवाह फैलाई कि इन शिविरों में रहने वाले शरणार्थियों के बीच आईएसआई के घुसपैठिए भी अपनी पहुंच बना चुके हैं।

इन अफवाहों और सरकार की नाकामी के बावजूद, देश-विदेश की मुस्लिम और गैर मुस्लिम संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्ता मदद के लिए आगे आए हैं। जिस दिन हम लोग शिविरों में थे उसी दिन हैदराबाद, अलीगढ़, मऊ और लंदन से आए हुए लोग शरणार्थियों के बीच राहत सामग्री का वितरण कर रहे थे। इन सकारात्मक पहलुओं के पीछे एक कड़वी सच्चाई भी छिपी हुई है। हम लोगों ने पाया कि कुछ ऐसे भी मुस्लिम तत्व थे जो अपने आप को शिविरों का प्रधान, जिम्मेदार और मुहाफिज कहते थे मगर इन मुसलमानों ने अपनी कारगुजारियों से अपने मजहब को शर्मसार कर दिया। रोटन ब्रिज के एक जिम्मेदार स्थानीय मुस्लिम नेता ने शरणार्थियों से बदसलूकी की। यह आरोप भी है कि इस नेता ने कैम्प की कुछ औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने की भी कोशिश की।

शरणर्थियों ने इन बातों का जिक्र डर और खौफ के साये में किया। हम सब वहां बच्चों के लिए एक स्कूल खोलने गए थे। हमारी सोच यह थी कि मुसलमानों के शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए, शिविरों में स्कूल खोलना बहुत जरूरी है। इस स्कूल को खोलने के लिए सामाजिक संस्था ‘खुदाई खिदमतगार’ ने अहम् भूमिका निभाई। हम लोग शिविरों में घूम-घूम कर शिक्षा की अहमियत पर रोशनी डाल रहे थे और लोगों से अपील कर रहे थे कि वे अपने बच्चों को इस स्कूल में भेजें जहां शिक्षा, किताब और अन्य सहूलियत मुफ्त में मिलेंगी। इन बातों को सुनकर हमें शरणार्थियों ने पलटकर जवाब दिया कि एक स्थानीय तथाकथित मुस्लिम नेता ने पिछली रात ही उनसे स्कूल के नाम पर 50-50 रुपये ऐंठ लिए। लोगों ने हमसे पूछा कि जब हम मुफ्त शिक्षा की बात कर रहे हैं तो फिर उनसे रुपये क्यों लिए गए? कुछ घंटों के अंदर ही हमें यह लगने लगा कि दाल में जरूर कुछ काला है।

शरणार्थियों ने आगे यह भी बताया कि उपरोक्त मुस्लिम नेता राहत सामग्री और नकद का भी घोटाला करता है। इसी दौरान उस मुस्लिम नेता का एक रिश्तेदार वहां आया और लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर डांटने लगा। उसकी झल्लाहट की वजह यह थी कि शरणार्थी, मायावती के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में लखनऊ की रैली में जाने से कतरा रहे थे। लोगों ने काफी बहाने बनाये मगर आखिरकार दर्जनों पकड़े गए और इन लोगों को जानवरों की तरह ट्रैक्टर-ट्राली में लाद दिया गया। उनके जाने के बाद औरतों ने गुस्से में कहा कि ये लोग हमारे मर्दों को रैली के लिए ले गए मगर अब उनकी हिफाजत कौन करेगा ?

इस बेबस आवाज ने हमें कैम्प को एक दूसरे तरीके से देखने पर मजबूर किया। हम मर्द होने की वजह से, औरतों के बारे में बहुत सारी बातें आसानी से नहीं समझ पाते हैं। औरतें कैम्प में भी सुरक्षित नहीं हैं। कैम्प के अंदर शारीरिक शोषण की घटना बढ़ रही है। महिला डॉक्टरों की कमी की वजह से औरतों की कई सारी बीमारियों का इलाज नहीं हो पा रहा है। बातचीत के दौरान हमने पाया कि इन चार महीनों की कैम्प की जिंदगी में बहुत सारी औरतों ने बच्चों को जन्म दिया और कई गर्भवती भी हैं मगर उनके लिए कोई विशेष सुविधा नहीं है। हमने कैम्प में कई सारी राहत सामग्री पाई जैसे अनाज, कपड़ा, रजाई, खिलौने इत्यादि मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि औरतों के लिए माहवारी के दौरान इस्तेमाल होने वाले सैनिटीरी नेपकीन भी भेज दी जाए, किसी ने यह भी नहीं सोचा कि गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष भोजन की व्यवस्था की जाए।

शिविर में रहने वाले अधिकतर बच्चे पढऩे-लिखने में काफी पीछे हैं। अभिभावक बच्चों के प्रति अपनी एकमात्र जिम्मेदारी यह समझते हैं कि उनकी शादी जल्दी से जल्दी कर दी जाए। जब एक 18-20 साल के लड़के से स्कूल में आने के लिए कहा गया तो उसने पलटकर जबाब दिया ‘अरे भाई, पढऩे तो अब मेरा बेटा जाएगा।’

इसमें कोई शक नहीं कि सांप्रदायिक हिंसा इसलिए कराई जाती है ताकि मुसलमानों को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक तौर से पीछे धकेला जाए। इसके पीछे चाल यह है कि मुसलमानों के अंदर असुरक्षा का भाव इतना भर दो कि वे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार के बारे में कभी सोच भी नहीं पाएं। मगर इसके साथ-साथ, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कैम्प की जिंदगी भी असुरक्षित है। कैम्पों के अंदर भी मुसलमान एक दूसरी मुसीबत में फंसे हुए हैं। इसलिए हम सब की यह जिम्मेदारी है कि मुसलमानों के लिए राहत और पुनर्वास योजना बनाते वक्त सभी बाहरी और अंदरूनी कारकों को भी ध्यान में रखा जाए।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सैय्यद मो. रागिब और अभय कुमार

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