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वीडियो कैमरा झूठ नहीं बोलता

वे भूल जाते हैं कि द्रोणाचार्य भी शिक्षक थे और उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया था और एकलव्य ने अपने शिष्य धर्म का पालन किया था। लेकिन क्या द्रोणाचार्य ने गुरुधर्म की भावना से एकलव्य का अंगूठा मांगा था

मानव सभ्यता के विकास के इतिहास में शायद ही कोई वैज्ञानिक यंत्र समाज में इतनी व्यापक जगह बना सका होगा, जितनी कि वीडियो कैमरा ने बनाई है। आखिर कोई तकनीक इतनी भरोसेमंद कैसे हो सकती है? क्या समाज में अविश्वास की खाई इस कदर चौड़ी हो गई है कि लोगों को वीडियो कैमरा एक भरोसे का माध्यम दिखाई देने लगा है? आखिर ये अविश्वास किसके खिलाफ बना और इस अविश्वास के बढ़ते जाने के क्या कारण हो सकते हैं? क्या लोगों को वीडियो कैमरे के आने से ये लगने लगा कि यह उनके अविश्वास को कायम रखने का, फिलहाल एकमात्र साधन है?

जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रों की एक सभा में यह मांग की गई कि विश्वविद्यालय में छात्रों के नामांकन के वक्त जो मौखिक परीक्षा ली जाती है, उसकी वीडियो रिकार्डिंग होनी चाहिए। उनका आरोप था कि मौखिक परीक्षा यानी वाईवा में शिक्षक ईमानदारी से काम नहीं लेते हैं और वे अपने मनपसंद छात्रों को बढ़ा-चढ़ाकर नंबर देते हैं। शिक्षक ऐसे सवाल पूछते हैं जिनका विषय से कोई लेना-देना नहीं होता है। इस मांग पर यह कहकर आपत्ति की गई कि शिक्षकों पर सवाल उठाना ठीक नहीं है। लेकिन जो लोग आपत्ति कर रहे हैं, वे शिक्षक और छात्रों के संबंधों की गौरवगाथाओं से प्रभावित दिखते हैं।

वे भूल जाते हैं कि द्रोणाचार्य भी शिक्षक थे और उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया था और एकलव्य ने अपने शिष्य धर्म का पालन किया था। लेकिन क्या द्रोणाचार्य ने गुरुधर्म की भावना से एकलव्य का अंगूठा मांगा था? समाज में व्याप्त अविश्वास के कारणों को समझना जरूरी है। इसे भावनात्मक मुद्दा बनाकर ढंकने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।

शिक्षक समाज का सदस्य होता है। शिक्षण कार्य उसका पेशा भर होता है। वह भी जीवन को प्रभावित करने वाली संस्थाओं से निर्देशित होता है। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रों ने तथ्यों के साथ यह बताया है कि जिन छात्रों को लिखित परीक्षा में अच्छे अंक मिलें, उन्हें मौखिक परीक्षा में शून्य से लेकर पांच तक अंक मिलें। दूसरी तरफ, जिन छात्रों को लिखित परीक्षा में कम नंबर आए उन्हें मौखिक परीक्षा में काफी नंबर दिए गए और उनका नामांकन सुनिश्चित किया गया। यह महज संयोग नहीं है कि मौखिक परीक्षा में कम नंबर पाने वाले विद्यार्थी पिछड़े-दलित समुदायों से होते हैं। दूसरी तरफ, जिन्हें लिखित परीक्षा में प्राप्त अंकों की तुलना में काफी ज्यादा नंबर दिए गए वे समाज के पिछड़ों के ऊपर बैठे वर्ग के सदस्य के रूप में जाने जाते हैं।

सवाल यह खड़ा किया जाना चाहिए कि आखिर मौखिक परीक्षा का प्रावधान ही क्यों हों। मौखिक परीक्षा में शिक्षकों के पास 30 प्रतिशत अंक होते हैं। जब समाज में विभिन्न वर्गों के बीच वर्चस्व बनाने, बचाने या खत्म करने का संघर्ष चल रहा हो उस स्थिति में कोई शिक्षक कैसे उस माहौल से खुद को बचाकर रख सकता है? यह संभव है लेकिन आमतौर पर नहीं होता। दूसरा, माहौल तात्कालिक ही नहीं होता है बल्कि किसी व्यक्ति की मानसिकता के निर्माण के क्रम में विकसित होता है। और वह बराबर बना रहता है। एक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर, 1980 को अपने एक फैसले में मौखिक परीक्षा में 15 प्रतिशत से ज्यादा अंकों के प्रावधान को ठीक नहीं बताया है। लेकिन अब भी कई विश्वविद्यालयों में 15 प्रतिशत से ज्यादा अंक का प्रावधान बना हुआ है। सवाल यह है कि आखिर मौखिक परीक्षा की जरूरत ही क्या है?

आखिर क्यों समाज में कोई ऐसी संस्था या व्यक्ति दिखाई नहीं देता है जो अविश्वसनीयता के इस माहौल में भरोसे के स्तंभ के रूप में सामने आ सकें? क्यों अविश्वास से भरे लोगों को तकनीक ही सबसे बड़ा सहारा लगता है? उन्हें लगता है कि कैमरे के सामने सत्ता अपने को छुपाने और बच निकलने की स्थितियां तैयार नहीं कर सकती। यह बेहद पीड़ादायी स्थिति है और समाज के लिए ठीक नहीं है।

सामाजिक और मानवीय मूल्यबोध को बचाने और विकसित करने की जिम्मेदारी ही मनुष्य को मनुष्य से जोड़े रखती है। सामाजिक अन्याय, मानवीय मूल्यबोध पर हमला है। अन्याय का शिकार नितांत अकेलेपन की ओर बढ़ता है। मूल्यबोध की कमान मनुष्य के हाथों से निकल जाने से संस्थाएं भी मर रही हैं। संस्थाओं को इन्हीं मूल्यबोध को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन जब संस्थाओं को सामाजिक अन्याय का मंच बना लिया जाता है तो संस्थाएं कैसे बच सकती हैं। संस्थाएं मरेंगी तो मनुष्य सामूहिक तौर पर सोच की अपनी पूरी पद्धति को खत्म कर देगा। लेकिन विडंबना है कि आज समाज के हर कमजोर तबके के भीतर सत्ता अपने भरोसे को तोड़ चुकी है। मीडिया भी उसमें एक है। ऐसी स्थिति में तकनीक ही एक बड़ा सहारा नजर आने लगता है। वह तकनीक जिसे वह खुद के नियंत्रण में महसूस करता है। वंचित करने की रणनीति जिस कदर सतह दर सतह तैयार की जाती है उसी तरह वंचित वर्गों के भीतर सतह दर सतह अविश्वास बना हुआ है। तकनीक को वह सब कुछ साफ-साफ दिखाने वाले आइने की तरह महसूस करता है।

 

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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