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इस चुनाव में हम क्या करें?

बहुजन तबका सेकुलरिज्म के ब्राह्मणवादी अथवा कुलीन पाठ के मुकाबले एक बहुजन पाठ विकसित करें। कबीर और फुले की तरह।

चुनावी समर की शुरुआत हो चुकी है। भारत की महान जनता सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए तय तारीखों पर अपने वोट डालेगी। हर चुनाव की कुछ न कुछ खासियत होती है। लेकिन यह चुनाव, जैसा कि अनुमान है, अपने नतीजों को लेकर लंबे अरसे तक जाना जाएगा और उम्मीद यह भी है कि यह भारत की भावी राजनीति का प्रस्थान बिंदु बनेगा। अर्थात् कई दृष्टियों से यह चुनाव ऐतिहासिक महत्व का होगा।

परंपरानुसार, हम अपने वोट का दान करते हैं-मतदान। इसका इस्तेमाल हम हथियार या औजार की तरह कुछ गढऩे या संघर्ष करने के लिए नहीं करते। शायद ऐसा इसलिए भी है कि हमारा समाज और लोकतंत्र आज भी मध्ययुगीन या उससे भी प्राचीन जमाने की मानसिकता में पल-बढ़ रहा है।

लेकिन मेरा आग्रह होगा भारत की जनता अपने वोट का इस्तेमाल हथियार और औजार की तरह करे। खासकर उस जनता को तो मैं सीधे-सीधे संबोधित करना चाहूंगा, जो भारत का शोषित, है, जिसे बुद्ध ने बहुजन और फुले ने बलिजन कहा था, क्योंकि सुशासन की सबसे ज्यादा दरकार उन्हें ही है। तमाम सरकारों और  पूरी व्यवस्था ने उनका केवल शोषण-दोहन किया। लोकतांत्रिक सभ्यता और आर्थिक विकास का पूरा ढांचा, उनके कंधों पर टिका हुआ है, लेकिन दुर्भाग्य से वह उस सभ्यता और व्यवस्था के हिस्सा नहीं बन सके हैं। वह ‘अन्य’  बने हुए हैं।

मित्रो, पिछले दो दशकों से अधिक से न केवल वैचारिक या बौद्धिक स्तर पर, अपितु व्यावहारिक स्तर पर भी मैंने दलगत राजनीतिक प्रक्रियाओं को उसके भीतर शामिल होकर देखा-समझा है और सब मिलाकर यही कह सकता हूं कि बहुजन तबके को नए सिरे से सोचने-विचारने की जरूरत है। हकीकत यही है कि भारत के श्रमिक, किसान और दस्तकार, जिनमें से अधिकांश दलित, ओबीसी व आदिवासी हैं या तो राजनीति के हाशिए पर जा चुके हैं, या फिर उसके एजेंडे से उतर चुके हैं। उनके नेताओं ने उनके साथ धोखा किया है, फरेब किया है और इन सबका चेहरा उन ताकतों से ज्यादा कुत्सित है जो हमारे वर्गशत्रु हैं। शायद बहुत विस्तार से बात करने की गुंजाइश नहीं है इसलिए मैं संक्षेप में अपनी बात रखना चाहूंगा। मैं आपका ध्यान सीधे-सीधे मुल्क की मौजूदा राजनीतिक स्थितियों की ओर खींचना चाहूंगा।

वर्तमान स्थिति

पिछले दस सालों से राज कर रही यूपीए सरकार, उसके मुखिया मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी कांग्रेस ने चुनाव के पूर्व ही मानो पराजय स्वीकार कर ली है। उनके कार्यकलाप और बोली-बानी यही संकेत देते हैं। दूसरी तरफ, भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी लगातार आक्रामक हुए जा रहे हैं। चुनावी सर्वेक्षणों और मीडिया ने मिल-जुलकर उनको बहुत आगे कर दिया है और इसके परिणामस्वरुप अश्वमेध पर निकले नरेंद्र मोदी की धज से चुनाव के पूर्व ही शासकीय दंभ टपकने लगा है। कुछ प्रांतीय पार्टियों और बचे-खुचे वामदलों ने तीसरे फ्रंट की एक कमजोर कवायद भी शुरू की है, जो सतमासे बच्चे की तरह पॉलिटिकल क्लिनिक के इनक्यूबेटर में येन-केन सांसें गिन रहा है। मैं नहीं समझता भारत की जनता इस फ्रंट को गंभीरता से ले रही है। यह अपने ही प्रांतों में घुट रहे राजनेताओं का एक अखिल भारतीय संगठन जैसा है। 1940 के दशक में भारतीय रजवाड़ी ताकतों (देशी रियासतों) ने ऐसा ही एक संगठन बनाया था।

दरअसल, तथाकथित तीसरा मोर्चा सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक तत्वों पर टिका हुआ है। उसका एक हिस्सा जो स्वयं को लेफ्ट कहता है (जिसमें मुलायम सिंह भी अपने को शामिल मानते हैं) भाजपा के तो विरुद्ध हैं, लेकिन कांग्रेस की केवल कुछ नीतियों से ही उनकी असहमति है। दूसरा हिस्सा, जिसमें शरद यादव व नीतीश कुमार जैसे लोग हैं, भाजपा के नहीं नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैं, उनका भी कांगेस से आंशिक ही विरोध है। तो सब मिलाकर तीसरा मोर्चा एंटी-भाजपा कम एंटी-नरेंद्र मोदी ज्यादा है और यही उसकी एकता का आधार है।

यूपीए की वैचारिकी में भी भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध ही केंद्रीय तत्व है। अन्यथा कांग्रेस, उसके सहयोगी दलों और भाजपा की आर्थिक-सामाजिक नीतियों में कोई अंतर नहीं है। धर्मनिरपेक्षता तो एक नकाब है जिससे अपने कुत्सित चेहरे को इन लोगों ने छुपा रखा है। आप जरा कल्पना करके देखिए कि यदि इस देश में मुसलमानों की संख्या पंद्रह करोड़ की बजाय ईसाईयों या सिखों के बराबर होती तो थर्ड फ्रंट या यूपीए की वैचारिकी का क्या होता। मोहम्मद अली जिन्ना गलत नहीं कहते थे कि भारत का सेकुलर स्वरूप वहां के मुसलमानों की अच्छी-खासी मौजूदगी के कारण होगा। इसी आधार पर वे पाकिस्तान में भी हिंदुओं की अच्छी-खासी मौजूदगी चाहते थे ताकि पाकिस्तान का भी सेकुलर राजनीतिक ढांचा बना रहे। दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि इतने समझदार जिन्ना साहेब को तब पाकिस्तान का फितूर ही क्यों दिमाग में आया था। यदि खंडित भारत के मुसलमान मोदी जैसे सांप्रदायिक सोच वालों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं तो संयुक्त भारत के मुसलमान मोदी जैसों की राजनीति असंभव कर सकते थे। तब भारत के राजनेता सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर विमर्श करने के लिए मजबूर रहते।

लेकिन आज तो नरेंद्र मोदी की ताकत बढ़ रही है। इसके विपरीत कांग्रेस और उनके अन्य विरोधी लगातार कमजोर होते दिख रहे हैं। इसके कारणों पर विमर्श किया गया तो तथाकथित सेकुलर ताकतें मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगी।

धर्मनिरपेक्षता के संकट की जड़

आजादी के बाद से मुसलमानों की इतनी बड़ी आबादी को अल्पसंख्यक बता-बताकर उनमें असुरक्षा के भाव पैदा किए गए और उनका लगातार शोषण किया गया। एक साजिश के तहत सांस्कृतिक संपोषण की आड़ में उन्हें मजहबी शिक्षा और संस्कारों से बांधे रखा गया। नतीजतन वे विकास की दौड़ में पिछड़ गए। ऐसा कुलीन (अशरफ) मुसलमानों की देखरेख में हुआ, जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और अंग्रेजी छांटते हैं।  पिछड़े (पसमांदा) मुसलमानों के बच्चों को वैसे ही मदरसों के भरोसे छोड़ा गया जैसे हिंदू दलित, पिछड़े बच्चों को बदतर सरकारी स्कूलों के भरोसे। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा करने से आम, पिछड़े मुसलमानों को मध्ययुगीन बनाए रखना आसान हुआ और इसी सोच के आधार पर अशराफ (ऊंची जाति) मुसलमानों का वर्चस्व उन पर बना रह सकता था। यह काम भारत की सेकुलर ताकतों ने बखूबी किया।

इसलिए बहुजन तबके से मेरा आग्रह होगा कि सेकुलरिज्म के ब्राह्मणवादी अथवा कुलीन पाठ के मुकाबले एक बहुजन पाठ विकसित करें। कबीर और फुले की तरह। कांग्रेस और तथाकथित थर्ड फ्रंट का सेकुलर पाठ न केवल दकियानूसी बल्कि खतरनाक भी है। बहुजन ताकतों को इसे खारिज करना चाहिए।

किस तरह के ओबीसी हैं मोदी?

लेकिन हम नरेंद्र मोदी का क्या करें। कोई दो साल पहले मैंने बताया था कि भाजपा अब ओबीसी कार्ड खेल सकती है। मैंने यह भी बताया था कि इसमें भाजपा को आशातीत सफलता मिलेगी। तब हमारे मित्रों ने मेरा मजाक बनाया था। आज उनको सब कुछ दिख रहा होगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह जोर-शोर से अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार को पिछड़ा, चायवाले का बेटा बता रहे हैं। नरेंद्र मोदी कभी गर्व से अपने को हिंदू कहते थे, आज छाती पीट-पीट कर स्वयं को पिछड़ा कह रहे हैं। भाजपा और नरेंद्र मोदी मंडल दौर में क्या कर रहे थे ? आप इनसे पूछिए तो जरा कि नरेंद्र मोदी जी, जब हम लाठियां और गोलियां खा रहे थे, तब तो आप हमारे विरोध में निकले आडवाणी की सोमनाथ यात्रा का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे, उनकी आरती उतार रहे थे, अपने को हिंदू बता रहे थे। आज आप हिंदू से पिछड़ा में कैसे रुपांतरित हो गए?

कई लोगों ने मुझसे पूछा कि नरेंद्र मोदी की ताकत का राज क्या है? एक अदना आदमी भी बता सकता है कि मोदी, आडवाणी, राजनाथ सिंह, जोशी, सुषमा और जेटली जैसे नेताओं से अलग हैं तो केवल इसलिए कि वे पिछड़े वर्ग के हैं। यही उनकी ताकत है। लेकिन पाखंड भी यही है। मैंने पहले ही बताया है कि मनु स्वयं तो ब्राह्मण नहीं था, लेकिन उसने ब्राह्मणवाद की संहिता तैयार की। जब भी ब्राह्मणों के हाथ से सत्ताधिकार छिटकने लगता है, तब वह अपने हितों की सुरक्षा के लिए उन शक्तियों का पृष्ठपोषण करता है जो उनके हितों की सुरक्षा कर सके। क्षत्रिय मनु ने एक समय यह काम किया था, आज एक शूद्र और कानून की भाषा में ओबीसी नरेंद्र मोदी यह काम करेंगे लेकिन वह भारतीय राजनीति की बहुजन पटकथा का निर्देशन नहीं करेंगे, उसके ब्राह्मणवादी पाठ का करेंगे। इस पटकथा को नागपुर पीठ में तैयार किया गया है, आम्बेडकर की दीक्षाभूमि में नहीं बल्कि आरएसएस के मुख्यालय में। रामविलास पासवान, रामदास अठावले और उदित राज जैसे कठपुतले वहां डोरियों में बंधकर डांस करेंगे। अन्य ओबीसी नेता भी करतब दिखाएंगे और इसी डांस पर रीझ कर आप अपनी आत्मा उड़ेल देंगे।

आप अपना वोट ब्राह्मणवाद के नए पिछड़ावतार नरेंद्र मोदी की मायावी झोली में डाल देंगे, जो स्वयं जादूगरों सा धज बनाए पूरे देश में घूम-घूम कर अपने पिछड़ा होने का  उद्घोष कर रहे हैं। इस बार बलिराजा नहीं, उनका बहुजन समाज ही ब्राह्मणवाद की जादुई डोरियों में बांधा जाएगा।

नरेंद्र मोदी के उभार का अंदाज हिटलर की तरह का ही है। वह भी जनतंत्र की सीढिय़ों पर चढ़कर ही आया था। उसने भी अपनी गरीबी और मोची परिवार में जन्म की बात को खूब उछाला था। कभी लालू प्रसाद अपनी मां के दही बेचने की बात उछालते थे, आज नरेंद्र मोदी अपने पिता के चाय बेचने की बात उछाल रहे हैं। लेकिन हिटलर ने सत्ता में आकर समता के आदर्श को नहीं, उस नित्शेवाद को पकड़ा जो सामाजिक न्याय की जगह सामाजिक वर्चस्ववाद की वकालत करता है। इसी वर्चस्ववाद का भारतीय संस्करण ब्राह्मणवाद है। अब एक शूद्र मोदी इस वर्चस्ववाद का गुजराती पाठ पूरे देश में लागू करेंगे। विकास की राजनीति इसी की अनुमति देती है प्रिय बहुजन मतदाताओ।

तो मेरे प्यारे बहुजन साथियो, आप क्या करेंगे? मैं आपकी पीड़ा समझता हूं। आप यही कहना चाहेंगे कि हम तो इन मुलायम सिंह, लालू प्रसादों, मायावतियों और नीतीश कुमारों से भी वैसे ही तबाह हैं। आप की बात बिल्कुल सही है। इन सबको आप धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर ताकतें मान रहे थे लेकिन ये सब के सब धर्महीन अथवा अधम ताकते हैं। याद रखिए, धर्मनिरपेक्ष और अधम ताकतें अलग-अलग होती हैं। झूठ, फरेब, घोटाले और कुनबावाद की अनैतिकता में आपादमस्तक डूबे ये लोग बहुजन राजनीति के नायक नहीं बन सकते। इनकी वैचारिक जड़ें फुले-आम्बेडकरवाद में नहीं, गांधी-सावरकरवाद और अब तो उससे भी बढ़कर स्वार्थवाद में धंसी हैं। ये सब प्रच्छन्न ब्राह्मणवादी हैं और गहरे अनैतिक भी। इनकी कारगुजारियों के कारण ही भाजपा का लगातार विस्तार हो रहा है। इन सबका अतीत चाहे जैसा हो वर्तमान इतना गलीज है कि नरेंद्र मोदी इनके मुकाबले धवल दिखता है। यह भी सच है कि एक बार यदि नरेंद्र मोदी का उभार हो गया तब सामाजिक न्याय और सेकुलरवाद का साइनबोर्ड लगाए इन सारे नालायक ओबीसी दलित नेताओं की खटिया हमेशा-हमेशा के लिए खड़ी हो जाएगी। इनका अंत हृदयविदारक होगा। इनमें से ज्यादातर का अंत तो जेल की काल-कोठरियों में होगा।

तब ऐसे में हम क्या करें? हमारा आग्रह होगा कि पूरे राजनीतिक परिदृश्य का बारीकी से अध्ययन करें। किसी भी स्थिति में भ्रष्ट, अनैतिक और लंपट उम्मीदवारों को अपना समर्थन नहीं दें। वोट में हिस्सा जरूर लें लेकिन उसका इस्तेमाल ऐसे करें जिससे संसदीय राजनीति में विमर्श की गुंजाइश बनी रहे और उसके लोकतांत्रिक आवेग कमजोर न हों।

 

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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