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नया नहीं है ओबीसी साहित्य

रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि हृदय की मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं कि सवर्ण आलोचकों और चिंतकों की नजर में साहित्य की यह परिभाषा हो सकती है लेकिन ओबीसी साहित्य अपनी अस्मिता और सम्मान के साथ भूख मुक्ति की साधना का साहित्य है

बीते कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य विमर्शों के दौर से गुजर रहा है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श ने अपने-अपने सवालों और संवेदनाओं के साथ साहित्य के पारंपरिक मानकों को बदलकर पाठकों के सामने साहित्यशास्त्र का नया मानदंड गढा है। साहित्य के इन विमर्शों ने अपना लेखक और पाठक वर्ग भी तैयार किया है। मध्यकाल (भक्तिकाल) के बाद पहली बार इतनी भारी संख्या में दलितों और महिलाओं ने अपने साहित्य सृजित किए, जिसे प्रगतिशील शक्तियों ने मानव सभ्यता के इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा है। हाशिए के इन्हीं विमर्शों की कड़ी में भाषाविद्- आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘ओबीसी साहित्य विमर्श’ हिन्दी साहित्य के पारंपरिक आलोचना को कठघरे में खड़ा करते हुए ओबीसी साहित्य और उसके मूल्यों को प्रतिस्थापित करती है।

‘ओबीसी साहित्य विमर्श’ में राजेंद्र प्रसाद सिंह इसके नामकरण के संबंध में विचार करते हुए लिखते हैं-‘जब धर्म-संप्रदाय के नाम पर हिन्दी साहित्य में सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य की काव्यधारा की पहचान की जा सकती है, एक दबंग वर्ग के नाम पर सामंत युग की परिकल्पना की जा सकती है तो उसी समाज के एक कमजोर एवं पिछड़ा के नाम पर ओबीसी साहित्य की अवधारणा क्यों नहीं खड़ी की जा सकती।’ गौरतलब है कि हिन्दी साहित्य के आदि काल में ‘चारण काल’ तथा आधुनिक हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग (काव्य) और शुक्ल युग (आलोचना) जैसे नामकरण भी जातिसूचक उपाधियों के आधार पर किए गए हैं।

राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार ओबीसी साहित्य की अवधारणा नई है परंतु ओबीसी साहित्य नया नहीं है। ‘ओबीसी साहित्य और सिद्धांत और सिद्धांतकार’ नामक अध्याय में वे लिखते हैं-‘ओबीसी के लोग जोतिबा फुले और जुलाहा कबीर को ओबीसी विचारक कवि और नायक माना है। अपने नायकों की तलाश के क्रम में ओबीसी साहित्य सवर्ण साहित्य और दलित साहित्य में सेंध लगा रहा है। और उनकी हद और दायरे को भी दिखा रहा है।

राजेंद्र प्रसाद सिंह धर्मनिरपेक्षता को ओबीसी साहित्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में चिन्हित करते हैं। संत साहित्य में रविदास के काव्य में छूआछूत और जाति-प्रथा का जितना विरोध है कबीर के काव्य में वैसा नहीं है। कबीर के साहित्य का केन्द्रीय स्वर धर्मनिरपेक्षता है मंडलोत्तर भारत में कबीर का वही स्वर राजेंद्र यादव के यहां देखा जा सकता है। आधुनिक भारत में महात्मा जोतिबा फुले, पेरियार, डॉ. राममनोहर लोहिया, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, वीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर के विचारों और आंदोलनों से भारतीय समाज व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा और भारत में दलित-पिछड़ा समूहों के बीच संगठित और जातिप्रथा के खिलाफ आंदोलन का जन्म हुआ।

रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि हृदय की मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं कि सवर्ण आलोचकों और चिंतकों की नजर में साहित्य की यह परिभाषा हो सकती है लेकिन ‘ओबीसी साहित्य अस्मिता और सम्मान के साथ भूख मुक्ति की साधाना का साहित्य है।’ जोतिबा फुले द्वारा लिखित ‘तृतीय रत्न’ (नाटक) ‘किसान का कोडा’ और गुलामगिरी, मैथिलीशरण गुप्त का काव्य संग्रह किसान’ और गौतम बुद्ध पर आधारित ‘यशोधरा’ और ‘अनघ’, भारत में पुराने हैं। उनके अलग सिद्धांत और मान्यताएं रही हैं। उनके अलग विचार और ग्रंथ रहे हैं। ब्राहणवादी संस्कृति से अलग उनकी नए ढंग की श्रममूलक संस्कृति भी रही है। बात सिर्फ रेखांकित करने की है।’

वे कौत्स को ओबीसी साहित्य के प्रथम मौलिक सिद्धांतकार मानते हैं। कौत्स वेद विरोधी थे। उनकी वेद विरोधी विचारधारा को वेदपाठियों ने कुत्सित विचारधारा कहकर खारिज किया है। मक्खली गोशाल, अजीत केशकंबली और गौतम बुद्ध ओबीसी की दूसरी पीढी के नायक हुए। इन सभी ओबीसी नायकों-विचारकों ने वेदवाद, जातिप्रथा, ब्राहणवाद और यज्ञ कर्मकांड का विरोध किया तथा श्रम की गरिमा को सामने रखा। हिन्दी साहित्य के सिद्ध और नाथ संप्रदाय के अधिकांश कवि ओबीसी समाज के थे और उनकी रचनाओं को ओबीसी साहित्य के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार नाथपंथ के मछिंदरनाथ कामरूप के मछवाहे थे और गोरखनाथ ग्वाल (यादव) परिवार से आते थे।

ओबीसी साहित्य अपने नायकों की तलाश के क्रम में उन सभी नायकों को सूचीबद्ध कर रहा है जो दलितों और सवर्णों के खेमें में बांट लिए गए हैं। प्रसिद्ध दलित आलोचक डॉ. धर्मवीर ने कबीर को दलित साहित्यकार माना है परंतु राजेंद्र प्रसाद सिंह ने उनकी मान्यता को खारिज कर कबीर को मध्यकाल में ओबीसी नवजागरण का अग्रदूत माना है। जिस जाति के आधार पर दलित साहित्य ने ओबीसी साहित्यकारों को अपने दायरे से बाहर कर रखा था उसी के तहत राजेंद्र प्रसाद सिंह ने शाक्यवंशी बुद्ध, माली ‘काबा और कर्बला’, भारतेंद्र हरिशचंद्र की ‘सभै जाति गोपाल की’, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ और ‘स्वर्ग में विचार सभा’ दि रचनाओं में ओबीसी साहित्य की प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है।

राजेंद्र प्रसाद के अनुसार जयशंकर प्रसाद को ओबीसी नायक काफी पसंद थे। वे अपने नाटकों के लिए या तो मौर्य राजाओं को चुनते हैं या गुप्तवंशीय राजाओं को। प्रसाद को गौतम प्रिय थे। उन्होंने ‘इरावती’ उपन्यास में बौद्धकालीन वातावरण को सजीवता के साथ प्रस्तुत किया है। पहली ओबीसी पत्रिका ‘इंदू’ थी जिसे प्रसाद ने 1909 में निकाला। हिन्दी कथा साहित्य में फ णीश्वरनाथ रेणु, अनूपलाल मंडल, मधुकर सिंह, रामधारी सिंह दिवाकर, प्रेमकुमार मणि और संजीव का साहित्य ओबीसी चेतना का साहित्य है।

भोजपुरी के ओबीसी साहित्यकारों की लम्बी सूची देते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह ने कबीर को भोजपुरी का आदि कवि माना है। बूला साहब, रामदास, दरियादास, पलटू साहब, कवि बालखंडी, छत्तरबाबा टेकनराम, भिनकाराम, केसोदास, मिट्ठ कवि, कवि बिहारी, रसूल मियां और भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर भोजपुरी के ओबीसी कवि हैं। इस प्रकार भोजपुरी साहित्य ही ओबीसी साहित्य है। वैसे भी किसी भी समाज का लोक साहित्य उसके श्रमशील जातियों का ही साहित्य होता है।

1990 में ‘हंस’ के दलित साहित्य विशेषांक के संपादकीय में राजेंद्र यादव ने ओबीसी साहित्यकारों को सवर्णों का मुखापेक्षी बताते हुए ओबीसी साहित्य को सवर्ण साहित्य से अलग पहचान की जरूरत महसूस की थी। राजेंद्र प्रसाद सिंह की यह पुस्तक ‘ओबीसी विमर्श’ को तर्कसंगत ढंग से स्थापित करती है।

पुस्तक : ओबीसी साहित्य विमर्श
लेखक : डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह
प्रकाशक : सम्यक प्रकाशन, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
फोन  न : 9810249452

(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

जितेंद्र कुमार यादव

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