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फारवर्ड विचार, जून 2014

आंकड़े चाहें जो कहें, परंतु मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को यह याद रखना होगा कि वह केवल कुछ हितों के प्रतिनिधि के रूप में काम न करे और ना ही उसकी ऐसी छवि हो

जनता ने अपना निर्णय सुना दिया है। मोदी को जबरदस्त बहुमत मिला है परंतु प्रश्न यह है कि उनकी सरकार किसकी प्रतिनिधि है तकनीकी दृष्टि से वे केवल उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होंने मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को वोट दिया (31 प्रतिशत भाजपा, 38.5 प्रतिशत एनडीए)। यद्यपि एनडीए को आधे से कम वोट मिले हैं परंतु लोकसभा की 336 (62 प्रतिशत) सीटें उसकी झोली में आ गई हैं। दूसरी ओर, बसपा को लगभग 4.5 प्रतिशत वोट मिले हैं, मुख्यत: उत्तरप्रदेश में, परंतु उसे एक भी सीट नहीं मिली। आश्चर्यजनक रूप से आप को केवल 2 प्रतिशत वोट मिले परंतु उसे 4 सीटें (सभी पंजाब से) मिल गईं और पार्टी पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल रही। यह अलग बात है कि 16वीं लोकसभा में एनडीए का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। दरअसल, हमने जिस वेस्टमिंसटर मॉडल को अपनाया है, उसमें सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार विजयी होता है। अत: हमारे देश के जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत, एनडीए अब संपूर्ण भारतीय गणराज्य के 120 करोड़ नागरिकों की सरकार है।

आंकड़े चाहें जो कहें, परंतु मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को यह याद रखना होगा कि वह केवल कुछ हितों के प्रतिनिधि के रूप में काम न करे और ना ही उसकी ऐसी छवि हो। इनमें शामिल हैं वे कारपोरेट घराने, जिन्होंने देश के सबसे महंगे चुनाव अभियान का खर्च उठाया, संघ परिवार और विशेषकर आरएसएस, जिसने मोदी को विजय दिलवाने में पसीना बहाया और भाजपा के ब्राह्मणवादी तत्व, जिनके हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक एजेण्डे हैं। ना ही ऐसा लगना चाहिए कि सरकार का रिमोट कंट्रोल नागपुर में है। नई सरकार को बहुसंख्यक वाद से भी बचना होगा।

चुनाव आयोग मतदाताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि-धर्म व जाति-के बारे में न तो कुछ पूछता है और ना ही जानता है। परंतु सौभाग्यवश, प्रतिष्ठित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेमोक्रेटिक सोसायटीज (सीएसडीएस) अपने चुनाव पूर्व व एग्जिट पोल सर्वेक्षणों में ये आंकड़े इकट्ठे करता है। चुनाव परिणामों पर हमारी आवरणकथा के लेखक इसी सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार हैं। ‘दलित बहुजन का दशक’ पर मेरा संपादकीय लेख भी विभिन्न पार्टियों के मतदाताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि के इसी अध्ययन पर आधारित है।

यह अंक केवल राजनीति और चुनाव पर केन्द्रित नहीं है। हम इस अंक में प्रतिनिधित्व से जुड़े एक अन्य मुद्दे पर विमर्श प्रारंभ कर रहे हैं दलितों और बहुजन के साहित्य में प्रतिनिधित्व पर। पिछले कुछ महीनों से इस विषय पर गोष्ठियों, मीडिया व सोशल मीडिया में जमकर बहस चल रही है। इस बहस की शुरुआत हुई ‘नवायन’ द्वारा आंबेडकर की ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ के नए संस्करण के प्रकाशन से। कुछ लोग तो किसी सवर्ण द्वारा बाबासाहेब के ‘पवित्र लेखन’ में फुटनोट लगाने भर से आग-बबूला हो जाते हैं परंतु हमला मुख्यत: बुकर पुरस्कार विजेता, उपन्यासकार व लेखक-कार्यकर्ता अरुंधति राय लिखित भूमिका पर हो रहा है, जो कि आंबेडकर की 1936 के भाषण-जो कि नहीं दिया गया था-से लंबी है।

हम इस विमर्श की शुरुआत दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक अनिरुद्ध देशपांडे की तार्किक व संतुलित व्याख्या से कर रहे हैं। अब तक इस बहस में तार्किकता का अभाव रहा है। फॉरवर्ड प्रेस इस भावनात्मक मुद्दे पर अन्य विचारों का स्वागत करती है। हमारा अनुरोध केवल यह है कि जो कुछ कहा जाए, वह यदि शिष्ट भाषा में न भी हो, तो भी कम से कम तार्किक तो हो। हमें याद रखना चाहिए कि दलित-बहुजन को आने वाले दिनों में जो लड़ाइयां लडऩी हैं, उनमें उन्हें ढेर सारे मित्रों और साथियों की जरूरत पड़ेगी। इनमें से कुछ सवर्ण भी हो सकते हैं। भारतीय सामाजिक क्रांति के पितामह जोतिबा फुले के भी कई वफादार साथी सवर्ण थे जिन्होंने अंत तक उनका साथ दिया। या फिर क्या हमें बहुजन प्रतिनिधित्व अधिनियम की जरूरत है?


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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