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आंबेडकर से जुड़ें नेपाल के दलित : गहतराज

जातिगत भेदभाव और छुआछूत प्रथा को समाप्त करने का एक ही रास्ता है और वह है आंबेडकर का नारा 'शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो'

ओमप्रकाश गहतराज नेपाल के आंबेडकरवादी आंदोलन के मानो विश्वकोष हैं। वे वरिष्ठ दलित नेता मोहनलाल कपाली से लंबे समय तक जुड़े थे। जब, सन् 1956 में, बाबासाहेब आंबेडकर विश्व बौद्ध समेलन में भाग लेने काठमांडू गए थे तब कपाली ही उन्हें शहर की दलित बस्तियों में ले गए थे। गहतराज ने कपाली की जीवनगाथा भी लिखी है। उन्होंने नेपाल सरकार में दलितों और उनकी बेहतरी से संबंधित कई सरकारी पदों पर कार्य किया है। वे अब भी नेपाल के दलित आंदोलन में भागीदारी कर रहे हैं। गहतराज सन् 1980 के दशक में प्रकाशित दलित साहित्यिक त्रैमासिक ‘प्रतिनिधि’ के मुख्य संपादक रहे हैं। उनके लेख कई प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत है विद्याभूषण रावत से उनकी बातचीत के चुनिंदा अंश :

आपने डाक्टर आंबेडकर की 1956 में नेपाल यात्रा के बारे में चर्चा की थी। यह जानना दिलचस्प होगा कि नेपाल के दलित समुदाय ने बाबासाहेब का स्वागत कैसे किया था? क्या आप इस यात्रा के बारे में हमें कुछ और बता सकते हैं-उन लोगों के बारे में जो उनके मेजबन थे और उन स्थानों के बारे में जहां बाबासाहेब गए थे। क्या उन्होंने नेपाल के लोगों को कोई सलाह दी थी?

नेपाल की सरकार और बौद्ध समुदाय ने डाक्टर आंबेडकर की मेजबानी की थी। वे कई दलित बस्तियों में गए थे, विशेषकर देवपाटन (पशुपति मंदिर के आसपास), सहागल (ललितपुर), ढालकू-छेत्रापति (काठमांडू) व भक्तपुर। दलितों की बदहाली देखने के बाद बाबासाहेब ने उन्हें सलाह दी थी कि वे एक व्यापक संघर्ष शुरू करें।

वे कहां रुके थे?

चूंकि नेपाल की सरकार और बौद्ध समुदाय ने डाक्टर आंबेडकर को निमंत्रित किया था अत: वे सरकारी अतिथिगृह शीतल निवास में ठहरे थे। यह अतिथिगृह अब राष्ट्रपति का निवास है।

बाबासाहेब ने भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्परिभाषित किया था। उनकी यह मान्यता थी कि बौद्ध धर्म ही अछूतों की मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। क्या बौद्ध धर्म ने नेपाल में भी उसी तरह की मुक्तिदायिनी भूमिका अदा की है या फि र यहां के दलित, सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दू ही बने हुए हैं? क्या बाबासाहेब के इस संदेश को नेपाल में फैलाने के लिए कोई आंदोलन चल रहा है?

जहां तक मैं जानता हूं, नेपाल में किसी बौद्ध ने दलितों को जातिगत भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए आंदोलन नहीं चलाया। बौद्ध अपने धार्मिक प्रवचनों में समानता के मुद्दे पर कम ही बोलते हैं। हम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बाबासाहेब के संदेश का नेपाल में प्रचार-प्रसार करने के लिए आंदोलन शुरू किए हैं।

मोहनलाल कपाली पर लिखी आपकी पुस्तक के अनुसार, बाबासाहेब पशुपतिनाथ मंदिर भी गए थे? क्या आपको पक्का पता है कि ऐसा हुआ था? क्या बाबासाहेब की पशुपतिनाथ मंदिर यात्रा की कोई फोटो उपलब्ध है ? मंदिर यात्रा के बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया थी? क्या उन्होंने स्वयं मंदिर जाने की इच्छा व्यक्त की थी या फि र स्थानीय समुदाय के अनुरोध पर वे वहां गए थे?

पशुपतिनाथ मंदिर के आसपास दलितों की एक बड़ी बस्ती है जिसका नाम है देवपाटन। पहले इसे देवपाटन कहा जाता था अब इसे पशुपति कहा जाता है। डाक्टर आंबेडकर इस इलाके में दलितों की हालत देखने गए थे, पशुपति मंदिर में दर्शन करने नहीं। रास्ते में उन्होंने पशुपतिनाथ मंदिर को देखा परंतु उन्होंने वहां पूजा-अर्चना नहीं की। आज भी उस इलाके में हजारों दलित रह रहे हैं। न तो दलित नेता चाहते थे कि बाबासाहेब वहां जाएं और ना ही बाबासाहेब की ऐसी कोई इच्छा थी। बात बस यह थी कि मंदिर, दलित बस्तियों की ओर जाने वाले रास्ते पर था।

नेपाल में दलितों की स्थिति को देखकर बाबासाहेब बहुत व्यथित हुए होंगे। उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

नेपाल की सरकार के दलितों के प्रति दृष्टिकोण से डाक्टर आबेडकर बहुत क्रोधित थे। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा लगता है कि नेपाल के नेताओं ने उनके साथ छल किया है। दलित बस्तियों की यात्रा से लौटने के बाद दलित नेताओं के दल के नेता सहर्षनाथ कपाली, जो कि मोहनलाल कपाली के सबसे बड़े भाई थे, ने शीतल निवास पर बाबासाहेब के सम्मान में एक चाय पार्टी का आयोजन किया। पार्टी में बाबासाहेब ने नेपाल के दलितों का आह्वान किया कि वे अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष शुरू करें।

आपने बताया था कि बाबासाहेब प्रधानमंत्री से मिलना चाहते थे और जब प्रधानमंत्री को यह बात पता चली तो वे स्वयं उनसे मिलने शीतल निवास पहुंचे। क्या आप इस मुलाकात का विवरण हमें दे सकते हैं? क्या प्रधानमंत्री ने बाबासाहेब को कोई विशेष आश्वासन दिया था?

मैंने कभी यह नहीं कहा कि बाबासाहेब प्रधानमंत्री से मिलना चाहते थे। जब वे दलित बस्तियों में गए तो दलितों की बदहाली देखकर वे बहुत क्रोधित हुए। इस यात्रा के दौरान जो सरकारी अधिकारी उनके साथ थे उन्होंने यह बात तत्कालीन प्रधानमंत्री तनकाप्रसाद आचार्य को बताई। जब बाबासाहेब शीतल निवास लौट आए तब प्रधानमंत्री ने उन्हें इस मसले पर बातचीत करने के लिए अपने निवास पर आमंत्रित किया। परंतु बाबासाहेब प्रधानमंत्री के निवास पर जाने के अनिच्छुक थे। अंतत: प्रधानमंत्री स्वयं शीतल निवास पहुंचे और उन्होंने बाबासाहेब को यह आश्वासन दिया कि दलितों की स्थिति सुधारने पर सरकार ध्यान देगी।

नेपाल के आंबेडकरवादी आंदोलन के बारे में हमें बताइए। इसकी क्या उपलब्धियां रही हैं? मोहनलाल कपाली की नेपाल में आंबेडकरवाद और दलित आंदोलन को मजबूती देने में क्या भूमिका थी?

नेपाल का आंबेडकरवादी आंदोलन, दलित नेताओं द्वारा संचालित किया जाता है, गैर-दलितों द्वारा नहीं। दिवंगत मोहनलाल कपाली ने जीवनपर्यंत नेपाल के आंबेडकरवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने बाबासाहेब के बारे में हमें बताया। आज नेपाल के अधिकांश दलित नेता यह मानते हैं कि बाबासाहेब का दर्शन ही जातिगत भेदभाव को मिटाने में सक्षम है।

क्या नेपाल के नागरिक समाज की दलितों के साथ हो रहे भेदभावको समाप्त करने के प्रयासों में कोई भागीदारी है ? क्या दलित अधिकारों के मुद्दे पर नेपाल में चल रहे विभिन्न आंदोलनों में एकमत है?

जहां तक दलितों के साथ हो रहे भेदभाव की समाप्ति का प्रश्न है, इस प्रयास में नेपाल के नागरिक समाज की कोई भूमिका नहीं रही है। अलबत्ता दलित अधिकारों के लिए संघर्षरत् विभिन्न आंदोलनों में एकता है। नागरिक समाज के अधिकांश संगठनों का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथों में है।

नेपाल में दलितों की स्थिति कैसी है? क्या सरकार ने उनकी बेहतरी के लिए आरक्षण जैसा कोई सकारात्मक कदम उठाया है?

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दलित, नेपाल की आबादी का 13.2 प्रतिशत है। परंतु आज भी मंत्रिमंडल में एक भी दलित सदस्य नहीं है। 75 मुख्य जिला अधिकारियों में से केवल 1 दलित है। संविधान सभा के 601 सदस्यों में से केवल 41 दलित हैं। सरकारी सेवाओं की भर्ती में दलितों का प्रतिशत एक से भी कम रहता है। सरकार ने दलितों की बेहतरी के लिए बहुत कम कानून बनाए हैं और जो कानून बनाए भी गए हैं, उनका ठीक से पालन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश प्रमुख राजनैतिक दलों के शीर्ष नेता ब्राह्मण हैं। वे अपने परिवारों को प्राप्त विशेषाधिकार खोना नहीं चाहते।

नेपाल में छुआछूत को प्रतिबंधित कर दिया गया है परंतु फि र भी दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत बरकरार है। सरकार का इस मामले में क्या रुख है? राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय दलित आयोग इस संबंध में क्या कर रहे हैं? क्या उन्हें ऐसे अधिकारियों को अपने समक्ष प्रस्तुत होने का आदेश देने या उन्हें बर्खास्त करने का अधिकार है, जो देश के कानूनों का उल्लंघन करते हैं?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग केवल सरकार से कानूनों को लागू करने की सिफारिश कर सकता है। जहां तक राष्ट्रीय दलित आयोग का सवाल है, वह संवैधानिक संस्था नहीं है इसलिए उसे कोई शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। वह केवल संबंधित एजेंसी से न्याय करने की गुजारिश कर सकता है। इस संबंध में की गई शिकायतों पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। सरकार ने राष्ट्रीय दलित आयोग व दलित विकास समिति के जरिए, दलितों को ही इस समस्या से निपटने की जिमेदारी सौंप दी है। गैर-दलितों की इस कार्य में कोई रुचि नहीं है।

वामपंथी संगठनों और पार्टियों की दलित आंदोलन को मजबूती देने में क्या भूमिका है? आंबेडकरवादी संगठन-अगर ऐसे संगठन नेपाल में हैं तो-वामपंथी संगठनों और पार्टियों की भूमिका को किस रूप में देखते हैं? दलितों के हक की लड़ाई में माओवादियों की क्या भूमिका रही है?

ये सब दलितों को केवल अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं और उनका काम निकल जाने के बाद, वे दलितों से संबंधित मुद्दों को कचरे के डिब्बे में फेंक देते हैं। यही सच्चाई है। वामपंथी पार्टियों के अधिकांश नेता भी ब्राह्मण हैं इसलिए उनका रुख ऐसा है।

क्या राजनैतिक दल, दलितों को अपने संगठन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए तैयार हैं? या फिर वे अपनी वर्तमान नीति पर ही चलते रहना चाहते हैं।

वे दलितों को बहुत कम प्रतिनिधित्व देते हैं और जहां तक उच्च पदों का सवाल है, उनमें बिल्कुल भी नहीं। वे केवल अपने दानदाताओं को यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी पार्टी का चरित्र समावेशी है।

फिर, नेपाल में जातिगत भेदभाव और छुआछूत कैसे समाप्त होंगे?

जातिगत भेदभाव और अछूत प्रथा को समाप्त करने का एक ही रास्ता है और वह है आबेडकर का नारा ‘शिक्षित बनो संगठित रहो और
संघर्ष करो।’

 

(फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्कृति  व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। द मार्जिनालाज्ड प्रकाशन, इग्नू रोड, दिल्ली से संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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