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कर दिखाने का समय “दलित-बहुजन का दशक”

चुनाव जीतने के बाद, मोदी ने गुजरात से ट्वीट किया, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ जिन लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया, उनकी भी यही आशा है। जिन्होंने उन्हें वोट देकर 300 से अधिक सीटें दिलाईं, वे तो और भी अधिक आशान्वित होंगे। परंतु अभी तो ये केवल आशाएं हैं। मोदी ने आज तक बहुजन के लिए शिक्षा, रोजगार, उद्यमिता आदि क्षेत्रों में अधिक अवसर उपलब्ध कराने या उनकी महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने के संबंध में कोई स्पष्ट बात नहीं कही है

आप चाहे उत्सव मना रहे हों या शोक में डूबे हों, मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा और एनडीए की अभूतपूर्व विजय, जिसे निस्संदेह ऐतिहासिक कहा जा सकता है, के प्रति आप निरपेक्ष नहीं रह सकते, जब तक कि आप राजनैतिक कोमा में न हों। इस जबरदस्त चुनावी जीत में कई चीजें पहली बार हुई हैं। यद्यपि ‘ऐतिहासिक’ शब्द का इस संदर्भ में बहुत इस्तेमाल हो चुका है परंतु भारत के पहले अति पिछड़ा वर्ग के प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के चुनाव को, ऐतिहासिक के अतिरिक्त और कुछ कहा भी नहीं जा सकता। अगर हम कर्नाटक के ओबीसी एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली पहली संयुक्त मोर्चा अल्पसंख्यक सरकार, जिसका कार्यकाल (जून 1996-अप्रैल 1997) बहुत छोटा था, को छोड़ दें, तो हम कह सकते हैं कि मोदी, भारत के पहले असली ओबीसी प्रधानमंत्री हैं।

मार्च 2014 के अपने संपादकीय में मैंने एमजे अकबर के ‘द सण्डे गार्जियन’ में वरिष्ठ पत्रकार एमडी नालपत के लेख से उद्धृत करते हुए लिखा था ‘अगर मोदी मई 2014 में अपनी पार्टी को विजय दिलवा पाते हैं तो वह सुशासन या उनकी तुलनात्मक ईमानदारी के कारण नहीं वरन् उनकी पिछड़ी जाति की पहचान के कारण होगा…।’फॉरवर्ड प्रेस ने पहली बार मोदी की पिछड़ा वर्ग पृष्ठभूमि के बारे में लिखा था (एफ पी, सितंबर 2012 ‘नरेन्द्र मोदी व नीतीश कुमार : दो मित्रों की कहानी’)।हम खुलकर, स्पष्ट शब्दों में और जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर यह कहते आए हैं कि भाजपा को निर्णायक विजय दिलवाने के लिए संघ परिवार ने, रणनीति के तहत, ओबीसी-एमबीसी कार्ड खेला है।

आश्चर्य नहीं कि चुनाव के अंतिम सप्ताह में, जब कांग्रेस ने उन्हें ‘नकली ओबीसी’ बताया, तब मोदी ने प्रियंका गांधी के ‘नीच राजनीति’ हमले का जवाब देते हुए, छाती ठोंककर कहा कि उन्हें अपनी ‘नीच जाति’ की पृष्ठभूमि पर गर्व है। यह बिहार और कुछ हद तक उत्तरप्रदेश में मुसलमानों व यादवों के कथित रूप से बन रहे गठबंधन को तोडऩे की व्यूह रचना थी। मोदी की ‘नीच जाति’ युक्ति ने उत्तरप्रदेश में उन्हें गैर-यादव ओबीसी व गैर-जाटव दलित वोट और बिहार में गैर-यादव ओबीसी व एमबीसी वोट दिलवाए। एलजेपी के उनके गठबंधन साथी रामविलास पासवान ने गैर-महादलित मतदाताओं को उनके पक्ष में मोड़ दिया। मोदी की लहर यदि ‘सुनामी’ बन सकी, विशेषकर उत्तरप्रदेश में, तो इसके पीछे यह गठजोड़ था, ना कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण।

लहर और सुनामी

दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। जरा समुद्र में सर्फिंग करने वालों या मछुआरों से पूछकर देखिए। पहली बात तो यह है कि यदि किसी सर्फर में पर्याप्त हिम्मत और कौशल है, तो वह बड़ी से बड़ी लहर का भी मजा ले सकता है। परंतु सुनामी; अगर सुनामी की चेतावनी हो तो शायद ही कोई समुद्र के नजदीक भी जाना चाहेगा। लहरें और सुनामी एकदम अलग-अलग कारणों से जन्म लेती हैं। लहरें उपजती हैं हवा की समुद्र की सतह पर अठखेलियों से। दूसरी ओर, सुनामी तब जन्म लेती है जब समुद्र की तलहटी, भूकंप के कारण कांपती हैं। और यह भूकंप भी काफी ताकतवर होता है, जो समुद्र की तलहटी के बहुत नीचे, विवर्तनिक ह्रश्वलेटों के सरकने से उपजता है। इससे भारी मात्रा में पानी का विस्थापन होता है और यह पानी, डरावनी, विकराल व विनाशक लहरों के रूप में, तट से टकराता है। जहां लहरें केवल समुद्र की सतह के पानी से उपजती हैं वहीं सुनामी में समुद्र की तलहटी से लेकर उसकी सतह तक के पानी में उथल-पुथल मच जाती है।

यद्यपि लहरों और सुनामी में बहुत फर्क है तथापि इन दोनों रूपकों की सहायता से हम यह समझ सकते हैं कि हालिया लोकसभा चुनाव में क्या हुआ। बहुचर्चित (कुछ लोग कहते हैं अतिश्योक्तिपूर्ण) ‘मोदी लहर’ को समझना आसान है। मोदी ने बहुत लंबा और बहुत कठिन चुनाव अभियान चलाया। उन्होंने जबरदस्त मेहनत की। उनके भाषण आक्रामक और अक्सर कटुतापूर्ण हुआ करते थे और जनसंचार माध्यमों के भारत में आज तक सबसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल के जरिए, ये भाषण पूरे देश में गूंजने लगे। इससे वह हवा बनी, जिसने लहर को जन्म दिया। किसी अतिविशाल विज्ञापन अभियान की तरह, ब्रांड मोदी (भाजपा नहीं) को जनता के सामने प्रस्तुत किया गया और जल्दी ही वह चुनावी मौसम का सबसे बड़ा ब्रांड बन गया। सतत् अभियान के जरिए यह सुनिश्चित किया गया कि लोग न सिर्फ इस ब्रांड को पहचानने लगें वरन् वह उनके दिमाग में गहरे तक पैठ जावे। अंतत:, ब्रांड मोदी ‘निर्णायक नेतृत्व’, ‘सुशासन’ और ‘विकास’ का पर्यायवाची बन गया। तुलनात्मक दृष्टि से, नीतीश कुमार का ‘सुशासन’ ब्रांड फीका पड़ गया और लोग उसे भूलने लगे।

परंतु, जैसा कि विज्ञापन और मार्केटिंग के आलोचक कहते हैं, केवल अपेक्षाएं जगाने से काम नहीं चलता; उन्हें पूरा भी करना होता है अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन कहा करते थे, ‘आप कुछ लोगों को हमेशा के लिए और सब लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं, परंतु आप सब लोगों को हमेशा के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते।’यही कारण है कि चुनाव में बुरी तरह पिट चुकी कांग्रेस-जो मोदी
लहर को गुब्बारा और मार्केटिंग का कमाल कहते न थकती थी-ने भी अब यह स्वीकार कर लिया है कि मोदी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ चुके हैं और अब यह उनकी जिम्मेदारी है कि जो अपेक्षाएं उन्होंने जनता में जगाई हैं, उन्हें पूरा करें।

अब जरा लहर की बात एक बार फिर। मोदी के पक्ष में जिस तरह की सुनामी थी, वह केवल संचार माध्यमों के जरिए धुआंधार प्रचार से उत्पन्न नहीं की जा सकती। जहां मोदी और उनकी प्रचार मशीनरी ने हवा बनाई, वहीं उत्तरप्रदेश में मोदी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए चुनाव प्रचार के ‘गुजरात मॉडल’ का इस्तेमाल किया गया। इस काम को अत्यंत सुव्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया अमित शाह ने आरएसएस के विश्वासपात्र स्वयंसेवकों को जिले से लेकर बूथ स्तर तक का प्रभारी बनाया गया। यहां तक कि ‘पन्ना प्रभारी’ भी नियुक्त किए गए। ये पन्ना प्रभारी, उन 60 मतदाताओं के लिए जिम्मेदार थे, जिनके नाम मतदाता सूची के एक पन्ने के दोनों और छपे रहते हैं।

लहर तो नकली भी पैदा की जा सकती है परंतु सुनामी नहीं। वह तो अपने आप उत्पन्न होती है। आम चुनाव में जो सुनामी उठी, उसका स्रोत था दो विवर्तनिक ह्रश्वलेटों का टकराव। पहली, छोटे शहरों व गांवों के मुखर बहुजन वर्ग की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं और दूसरी, गहरी नींद में डूबी केंद्र की यूपीए-2 व कई राज्य सरकारें। इन दोनों ह्रश्वलेटों की टकराहट से कुंठा और क्रोध का जो बवंडर उठा, उसका मोदी ने इतनी चतुराई से इस्तेमाल किया जितना कि सपा या बसपा कभी नहीं कर सकीं। इस महत्वाकांक्षी और अधैर्यवान युवा पीढ़ी को मोदी के ‘ये दिल मांगे मोर’ के नारे ने मोह लिया।

दलित बहुजन का दशक

मेरे एक परम मित्र, जो दलित-बहुजन हैं, हमेशा कहते हैं, ‘जब तक तुम अपनी जड़ों को स्वीकार नहीं करोगे, तब तक तुम फ ल नहीं उगा सकते।’ मोदी ने अपनी ओबीसी जड़ों को सबसे पहले स्वीकारा अप्रैल 2013 में। नारायण गुरु के शिवगिरी मठ में बोलते हुए उन्होंने अछूतों के बारे में बात की-अपने राजनैतिक अछूत होने के बारे में। फिर, मार्च में, मुजफ्फरपुर में, एक आमसभा में, लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान के बगल में खड़े होकर, वे ज्यादा खुलकर बोले। उन्होंने कहा कि उनके ओबीसी होने के बावजूद, भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ‘मुझे विश्वास है कि आने वाला दशक दलितों, पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व समाज के अन्य कमजोर वर्गों का दशक होगा।’ उन्होंने ठीक यही बात लखनऊ व केरल में भी दुहराई, जहां से भाजपा सामान्य सीट से दलित उम्मीदवार खड़ा करने जा रही थी। मोदी यह बात कितनी गंभीरता से कह रहे थे यह कहना मुश्किल है परंतु दलित-बहुजन मतदाताओं ने उन्हें गंभीरता से लिया। यह शायद सबसे बड़ा एक कारण था जिसने दलित नौजवानों को हाथी की बजाय कमल का बटन दबाने पर मजबूर कर दिया।

चुनाव जीतने के बाद, मोदी ने गुजरात से ट्वीट किया, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ जिन लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया, उनकी भी यही आशा है। जिन्होंने उन्हें वोट देकर 300 से अधिक सीटें दिलाईं, वे तो और भी अधिक आशान्वित होंगे। परंतु अभी तो ये केवल आशाएं हैं। मोदी ने आज तक बहुजन के लिए शिक्षा, रोजगार, उद्यमिता आदि क्षेत्रों में अधिक अवसर उपलब्ध कराने या उनकी महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने के संबंध में कोई स्पष्ट बात नहीं कही है। आरक्षण के संबंध में उनकी सोच क्या है, यह साफ नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने शुरू में मंडल का विरोध किया था (कमंडल की राजनीति इस पर से ध्यान हटाने के लिए ही शुरू की गई थी) परंतु बाद में, उसने हिन्दू ओबीसी के लिए 27 फीसदी कोटा के रक्षक के रूप में मंडल को स्वीकार कर लिया।

अब, जबकि चुनाव निपट गए हैं और नई सरकार ने शासन संभाल लिया है, वायदे निभाने, कुछ कर दिखाने का समय आ गया है। चुनाव के समय, मोदी ने दलित-बहुजन से वोट मांगे और उन्होंने उन्हें वोट दिए। अब जरूरत इस बात की है कि विकास व प्रगति के कार्यक्रम इस प्रकार बनाए जावें कि दलित-बहुजन को उनके वाजिब हक मिलें। वरना, दलित-बहुजन के दशक की बातें केवल बातें ही रह जाएंगी। बल्कि, शायद दलित-बहुजन, मोदी को करारा जवाब देंगे।

जैसा कि मैंने जून 2009 के ‘फारवर्ड प्रेस में अपने संपादकीय लेख में, जिसका शीर्षक ‘महत्वाकांक्षाओं की जीत’ था, में लिखा था, ‘बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का खतरा यह होता है कि अगर वे पूरी नहीं होतीं तो वे कुंठा और कभी-कभी गुस्से में बदल जाती हैं और इस गुस्से का इजहार बैलट बॉक्स के जरिए-या कभी-कभी उसका मौका आने के पहले भी-होता है। बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण तीसरी दुनिया में बहुत विकास हुआ है परंतु इन महत्वाकांक्षाओं को कुचलने से क्रान्तियां भी भड़की हैं। श्रीमान प्रधानमंत्री, इस दुधारी तलवार से सावधान रहिए।’

मोदी निश्चित रूप से वादाखिलाफी, बिखरे हुए सपनों व अपूर्ण महत्वकांक्षाओं से उपजे क्रोध की सुनामी का सामना नहीं कर पाएंगे। दुनिया का श्रेष्ठतम मार्केटिंग अभियान भी आपको इस सुनामी से नहीं बचा सकता। याद रखिए, भारतीय राजनीति में एक दशक, पांच-पांच सालों की दो किश्तों में आता है।

फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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