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कांग्रेस ओबीसी और दलित नेतृत्व पैदा नहीं कर सकी

मुझे ऐसा नहीं लगता। वे हिटलर तो नहीं, अटलबिहारी वाजपेयी जरूर बन जाएंगे। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में यह ताकत है। मोदी को बहुमत मिला है, यह उन्हें बदल देगा

जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर ने, फारवर्ड प्रेस के घुमंतू संवाददाता संजीव चंदन से एक बातचीत में कहा कि मोदी लहर ने नहीं बल्कि कांग्रेस के प्रति जनाक्रोश ने भाजपा को चुनाव में विजय दिलवाई और यह भी कि भारतीय प्रजातंत्र में इतनी शक्ति है कि वह मोदी को वाजपेयी बना सकती है। प्रस्तुत है इस बातचीत के चुनिंदा अंश, जिसमें चुनाव नतीजों की पहचान की राजनीति के निहितार्थ पर भी विस्तार से चर्चा हुई

कुलदीप नैयर

हम लोगों की तरह आपको भी भाजपा को इतनी सीटें मिलने का अनुमान नहीं था। आपने चुनाव के पूर्व ढाका में ऐसा कहा भी था…

बिल्कुल, बल्कि मैं तो भाजपा को 180 सीटें ही दे रहा था। मतदान हो जाने के बाद मुझे लगा कि 200 सीटें बीजेपी को मिलेंगी। लेकिन 282 का अनुमान तो निश्चित ही मुझे नहीं था। अनुमान तो खुद बीजेपी को भी नहीं था। मेरा ख्याल है कि जनता ने जितना बीजेपी को वोट किया है, उससे आधिक कांग्रेस के खिलाफ वोट किया है, उससे निराशा के कारण। चूंकि जनता के पास कोई विकल्प नहीं था, बीजेपी के अलावा, इसलिए बीजेपी को बहुमत मिल गया। आम आदमी पार्टी तो अभी शैशव अवस्था में ही है। कांग्रेस का इतना खराब प्रदर्शन तो इमरजेंसी के बाद भी नहीं था। लोगों में इस बार कांग्रेस के खिलाफ बहुत गुस्सा था-उसके भ्रष्टाचार, महंगाई और सत्ता के अहंकार के खिलाफ। जनता में काफी आक्रोश था। यह जनादेश मोदी लहर के कारण नहीं है।

इस बार का चुनाव मुद्दाविहीन भी था। प्रचार का स्तर काफी निचला था …

हां, वह तो था ही। चुनाव में न गरीबी कोई मुद्दा थी, ना ही अच्छी पढाई या स्वास्थ्य या रोजगार। इस बार के चुनाव में भाषण भी अच्छे नहीं थे।

सीएसडीएस के एक शोध के अनुसार इस बार अतिपिछड़ों, दलितों और पिछड़ों के वोट बड़ी संख्या में भाजपा को मिले हैं, जबकि अस्मिता की राजनीति करने वाली पार्टियों का प्रदर्शन खराब रहा। बसपा का तो खाता तक नहीं खुला। क्या इसे अस्मिता की राजनीति की दशा और दिशा में परिवर्तन माना जाए, या कहीं वह खत्म तो नहीं होने जा रही है? या ऐसा कहना जल्दबाजी होगी?

यह जरूर है कि बसपा का खाता नहीं खुला, लेकिन भाजपा ने भी महज 31.2 फीसदी वोट लेकर ही 282 सीटें हासिल की हैं। ऐसा पहली बार हुआ है। दूसरी पार्टियों का वोट बंट गया है। क्षेत्रीय पार्टियां वही बची हैं, जिन्होंने काम किया। पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियों का प्रदर्शन शानदार रहा, लेकिन मुलायम सिंह की पार्टी का लगभग सफाया हो गया। अपवादस्वरूप बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जरूर है, जिसने काम किया, लेकिन फिर भी खेत रही। अस्मिता की राजनीति खत्म हो जाएगी, ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। इस बार भी जाति चली, पैसा चला, सिर्फ धर्म का कार्ड नहीं चला।

मोदी में हिटलर की छवि देखी जा रही है, क्या आपको ऐसा लगता है कि 10 सालों तक यदि मोदी की लोकप्रियता बनी रही, तो वे हिटलर की राह पर चल निकलेंगे?

मुझे ऐसा नहीं लगता। वे हिटलर तो नहीं, अटलबिहारी वाजपेयी जरूर बन जाएंगे। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में यह ताकत है। मोदी को बहुमत मिला है, यह उन्हें बदल देगा। इसकी शुरुआत उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बुलाकर कर दी है। बहुमत के कारण वे ऐसी स्थिति में हैं भी। वे हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री की तरह बात करेंगे, बीजेपी के नेता की तरह नहीं। मुझे नहीं लगता, जैसा कि विहिप वाले कह रहे हैं, कि वे मंदिर बनाएंगे, या 370 को हटा देंगे। मोदी एक विभाजनकारी व्यक्तित्व हैं, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उसका यह व्यक्तित्व बदल जाएगा, यही भारतीय लोकतंत्र की ताकत है।

तो क्या लोगों को इस विभाजनकारी व्यक्तित्व में आशा दिखी?

नहीं। लोगों को निराशा थी बेरोजगारी से, महंगाई से। उन्हें लगा कि बदलाव से उस पर नियंत्रण होगा। अगले छह महीने तक लोग देखेंगे। यदि नाउम्मीद होंगे तो फैसला करेंगे। पिछले कुछ सालों से जो सरकार थी, वह ‘नान गवरनेंस’ की सरकार थी। सिर्फ प्रशासन ही दे दें, गवरनेंस ही दे दें, तो भी लोग खुश हो जाएंगे।

लेकिन कुछ जगहों पर हिन्दुत्व का प्रभाव दिखने लगा है, उसके अलग-अलग संगठन कानून हाथ में ले रहे हैं…

मुझे लगता है कि उन लोगों का उतना प्रभाव मोदी पर नहीं है, जितना कि वैसे लोगों का, जो प्रशासन में यकीन रखते हैं। मोदी पर अशोक सिंघल से ज्यादा अरुण जेटली का प्रभाव है, यानी उन लोगों का, जो सेंसिबल (समझदार) हैं। मुझे यह भी लगता है कि आरएसएस और बीजेपी, दोनों में अब खास फर्क नहीं रह गया है। दोनों ही हार्डलाइनर नहीं रह गए हैं। झंडेवालान और नागपुर का फासला कम हुआ है। आरएसएस के बड़े लोगों की बातें मोदी मानेंगे।

तो आप 1975 की स्थितियां नहीं देखते?

नहीं। एक तो वैसे भी अब इमरजेंसी लगानी मुश्किल है। अब छह राज्यों की सहमति लेनी होती है। लेकिन मुझे जो डर है, वह है राष्ट्रपति प्रणाली की शासन व्यवस्था का। सरकार में मोदी का वर्चस्व रहेगा। वैसे भी, मोदी ने चुनाव प्रचार राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर ही किया है। मोदी सिंगल ह्रश्ववाइंट ऑफ फोकस हो जाएंगे।

आम आदमी पार्टी क्या अवसान की ओर जा रही है?

हां, शुरू में तो इससे उम्मीदें थीं, लोगों को लगा यह हटकर राजनीति करेगी, इसलिए वे जाति-धर्म से ऊपर उठकर उसके साथ आए। फिर अन्ना अलग हो गए, उससे फर्क पड़ा और उससे भी ज्यादा इस बात से फर्क पड़ा कि जो इसका नया नेतृत्व आया, वह दूसरों से अलग नहीं था, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र भी नहीं है। इस पार्टी का अब पुन: प्रभावी होना मुश्किल है। हां, पुनर्जन्म हो सकता है। नहीं तो विकल्प कांग्रेस ही रह जाएगी और कांग्रेस का मतलब है ‘वंशवाद’। वे किसी दूसरे का नाम आगे आने ही नहीं देते हैं। मुझे डर है कि एक-दूसरे का विकल्प यदि कांग्रेस और भाजपा ही रहेंगे, तो दो दलीयव्यवस्था बन जाएगी। कोई न कोई और विकल्प चाहिए।

तो क्या अस्मिता की राजनीति एक विकल्प नहीं बन सकती? और जनप्रतिरोध को आप कहां देखते हैं, माओवाद के जरिए जो जनसंघर्ष है,
उसे?

हां, क्षेत्रीय पार्टियां विकल्प बनी रह सकती हैं।माओवाद का जहां तक सवाल है, तो उसका प्रभाव सीमित है। जब तक माओवादी संसदीय चुनाव प्रणाली में नहीं आएंगे वे कोई बड़ा विकल्प नहीं दे सकते। मोदी का पहला निशाना भी माओवादी होंगे। शहरों में इनके बुद्धिजीवी समर्थक हैं। सुब्रमण्यम स्वामी, मोदी के ही आदमी हैं। वे तो आम आदमी पार्टी को भी माओवादी कहते हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि मोदी शहरों के इन बुद्धिजीवियों को अभी निशाना बनाएंगे। इस हद तक दमन की जरूरत भी नहीं है। इन बुद्धिजीवियों का इतना प्रभाव भी कहां है।

एक अंतिम सवाल कि कांग्रेस ने न तो ओबीसी नेतृत्व पैदा किया, न उनके मुद्दे छुए, जिसके कारण वह 43 तक सिमट गई, जबकि भाजपा
ने ओबीसी नेताओं को बढ़ावा दिया…

हां, कांग्रेस ने इन्हें संबोधित नहीं किया, इनके मुद्दों की पहचान नहीं की, उनसे जुड़ी नहीं, वंशवाद में सिमटी रही जिसके कारण भी उसका यह हस्र हुआ है। वे मंडल के बाद की स्थितियों को नहीं समझ पाए। राज्यों में विश्वसनीय ओबीसी और दलित नेतृत्व पैदा नहीं कर सके।

 

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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