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उपभोक्तावाद और बहुजन

कमलू मिश्र कहते हैं अब गानों को सुनकर यह निर्णय करना कठिन है कि किस टोले में विवाह हो रहा है। एक चिंता स्वाभाविक है कि इधर लोक की गढ़ंत जिस तरह से बदल रही है कालांतर में वे समय की लपटों के बीच कपास की तरह काली राख छोड़कर विलीन न हो जाए। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि हमारी जो प्राचीन लोकसंस्कृति थी उसकी अच्छाइयों के रेशे भी जगह-जगह उघरे नजर आते हैं

सन् 2002 की दुर्गा पूजा की एक घटना बार-बार जेहन की दीवारों पर दस्तक देती है। उस साल अष्टमी के दिन मेरी बहन अपनी सहेली स्वाति के साथ पूजा देखने गई। अब तो गांवों में अन्य दिनों में भी नजदीक के बाजार में तरह-तरह की चीजें मिल जाती हैं मगर वह संधिकाल था जब चीजें आनी शुरू ही हुई थीं और लोग लकदक-चमकदार शै की तलाश में मेलों में चक्कर लगाते थे। पांच चीजें घर के जरूरी सामान की होती थीं तो साथ में एक सामान सजावट का या बच्चों के खेलने का भी होता था, जिसे देखकर घर की वृद्धा भी प्रसन्न हो जाती थी। अब तो गांव के चौक पर भी हर दिन चमकीली चीजें मिल जाती हैं जिसे देखकर कभी किसी का मन कभी खीझता है तो कभी रीझता है-‘उसी को देखकर जीते हैं जिस काफि र पर दम निकले।’ बहरहाल, मेरी बहन और उसकी सहेली मेले का आनंद ले रही थीं कि तभी उनकी नजर मुसहर टोली की महालक्ष्मी पर पड़ी। वो एकटक देखती ही रह गई। लगा जैसे कोई बड़ी घटना घट गई हो। बात बस इतनी थी कि महालक्ष्मी ने वही साड़ी पहन रखी थी जो स्वाति ने पहनी थी। स्वाति का मूड खराब हो गया और वह मेले से तुरंत लौट गई। बहन बताती है कि उसने वह साड़ी फिर कभी नहीं पहनी। यह उपभोग के सामानों के बीच जातिगत और आर्थिक आधार पर भिन्नता का टूटना था जो स्वाति को भौंचक कर गया। इसी का एक सिरा वहां तक जाता है जहां कोई चह्रश्वपल पहनकर दरवाजे पर नहीं आ सकता था और दूसरा सिरा वहां जहां कोई चंदेश्वर मिश्र किसी भी जाति के घर के दरवाजे पर बंधे सुन्दर बैल को जबर्दस्ती खरीद लाता था।

लोकजीवन में इस तरह की धन-आधारित व जाति- आधारित उपभोग की बंदिशों का एक पूरा संसार दिखता है जो उसके गीतों, रूपकों, मिथकों, प्रतीकों, बिंबों, मुहावरों, दर्शनों, विचारों व विवेचनों में इस तरह शामिल रहा है कि उसे अलग से पहचानना कई बार बहुत मुश्किल हो जाता है। नथुनी मल्लाह के बारे में पूरे गांव में प्रचलित था कि उन्हें सुगंधित चावल खाने पर उल्टी हो जाती है और पता नहीं कब हम बच्चे भी ‘महकौआ चावल, नथुनी भागल’ (सुगंधित चावल देखकर नथुनी भाग गया) कह-कह कर उसे चिढ़ाने में शामिल हो गए। उपभोग पर लगी बंदिशों के ढ़ीला होने की प्रक्रियाएं काफी जटिल हैं। इसके लिए प्रदीर्घ समाजशास्त्रीय विवेचन की आवश्यकता है। बहरहाल, इतना तो तय है कि पूंजीवादी एंव आधुनिकेतर संस्कृति ने ‘दाम दो, सामान लो’ की संस्कृति को जन्म दिया है और जिसके पास ‘दाम’ नहीं है उसके लिए
पीड़ादायक तो है किन्तु उसने जो पहले किसी भी सूरत में कुछ सामानों का उपयोग नहीं कर सकते थे उनके लिए नया संसार भी खोला है। मगर जब एक बार यह संसार खुल गया है तो फिर उपभोग का पूंजी आधारित होना एक बड़ी सीमारेखा है। खासकर उस क्षेत्र में जहां बड़ी संख्या में लोगों के कल के खाने की भी निश्चिंतता नहीं रहती। जो समृद्ध हैं वे डाइटचार्ट बना सकते हैं या नेट पर अलग-अलग होटलों के मेनू देखकर नए साल के पहले दिन का खाना तय कर सकते हैं। मगर जो विपन्न हैं उन्हें यह भी पता नहीं रहता कि कल के कलेवा में क्या रहेगा या कुछ रहेगा भी या नहीं?

उपभोग के भेद का टूटना उस जगह सबसे ज्यादा स्पष्ट है, जहां पैसा प्रतिबंधक तत्व बनकर सामने नहीं आया है और इससे सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं मनोरंजन के क्षण, जहां एक ही तरह के गीतों पर विभिन्न आय, जाति व धर्म के लोग नाचते नजर आते हैं। जिसे कुछ लोग जनसमूहात्मक संस्कृति का अंश कहते हैं। एक जनवरी के उत्सव से लेकर पूजा तक अलग-अलग टोलों और अलग-अलग गांवों में प्राय: एक ही तरह के गाने बजते नजर आते हैं। कमलू मिश्र कहते हैं अब गानों को सुनकर यह निर्णय करना कठिन है कि किस टोले में विवाह हो रहा है। एक चिंता स्वाभाविक है कि इधर लोक की गढ़ंत जिस तरह से बदल रही है कालांतर में वे समय की लपटों के बीच कपास की तरह काली राख छोड़कर विलीन न हो जाए। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि हमारी जो प्राचीन लोकसंस्कृति थी उसकी अच्छाइयों के रेशे भी जगहज
गह उघरे नजर आते हैं।

रामलीला में भाग लेने वाले कलाकार, संगीत से संबंध रखनेवाली यथा पमरिया, डफाली, चमार (ये सुअवसरों पर शहनाई बजाते थे) जाति के लोग कभी भी बहुत सम्मानित नहीं माने गए। फि ल्म ‘मिर्च मसाला’ में एक दृश्य है जहां नसीरूद्दीन शाह ग्रामोफोन दिखाकर स्मिता पाटिल को आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। यह विदित है कि सांस्कृतिक उपादान भी इसके धारकों को एक ताकत देती है जिसका वे नाजायज इस्तेमाल भी कर सकते हैं। वे दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं जब दूरदर्शन पर रामायण सीरियल या क्रिकेट मैच देखने के लिए बाबू-बबुआनों के यहां भीड़ लगी रहती थी और बाबू-बबुआन बीच-बीच में टीवी वाले कमरे को बंद कर देते थे और लोग परदे की बजाय घर का चमकता हुआ किवाड़ ताकते रह जाते थे। अब तो पर्व-त्योहार पर या अन्य दिनों में भीे गांव के लोग चंदा करते हैं और कहीं बैठकर भर रात सीडी देखने का लुत्फ लेते हैं। कुछ बुजुर्गों के द्वारा अवज्ञाकारी माने जाने वाले इस काम में उन्हीं लोगों की ज्यादा हिस्सेदारी रहती है, जिन्हें पहले के दिनों में मात्र सेवा करने वाला माना जाता था। जोकि मैथिली कहावत के अनुसार ‘बाभनक छोट और राड़क मोट’ (ब्राह्मण के छोटे एवं शूद्रों के मोटे) के रूप में इंगित हैं।

समय बदल रहा है, चीजें बदल रही हैं, समय को चीजें और चीजों को समय तब्दील कर रहा है। अब स्त्रियां चह्रश्वपल पहनकर खाना बनाने लगी हैं और मर्द उनका साथ देने लगे हैं। मगर मानव जाति ने अपनी लम्बी यात्रा में जिन परम्परागत मूल्यों को प्राप्त किया है उनमें जो श्रेष्ठ हैं उन्हें भी हमें बचाना है। और निश्चय ही उपभोग पर आयद बंदिशों का टूटना और उपभोक्तावाद के भंवर में डूब जाना एक ही बात नहीं है (और बहुजन डूबेंगे भी नहीं क्योंकि यहां डूबने के लिए गर्दन से लटकी पैसों की थैली जरूरी है)। हमें यह भी ध्यान रखना होगा जो अगली शाम की चूल्हे की धधक के लिए पत्ते चुन रही हैं उसे क्या पता है कि टीवी पर अभी कौन सा विज्ञापन चल रहा है।

 

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

मनोज कुमार झा

मनोज कुमार झा हिंदी के युवा कवि हैं

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